महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक ८
Shloka 8धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशंग पृषत्कनिषंग रसद्भटश्रृंग हताबटुके ।
कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटद्बहुरंग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ
रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी ! रण में गर्जना करते शत्रु योद्धाओं की देहों के साथ मिलाप होने से और उन हतबुद्धि (मूर्खों) को मार देने पर, जिनके स्वर्णिम बाण (दैत्यों के लहू से) लाल हो उठते हैं, ऐसी हे देवी तथा स्वयं को घेरे खड़ी, बहुरंगी शिरों वाली और गरजते हुए शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर जिन्होंने विनाश-लीला मचा दी, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
`महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम्` के आठवें श्लोक में अम्बिका का संग्राम-सक्रिय रूप परिलक्षित होता (दिखाई देता) है । त्रिदेवों तथा अन्य देवताओं के मुखों से निकले हुए महातेज ने देवी का रूप धारण किया व सभी देवों ने उन्हें अपने श्रेष्ठ अलंकार एवं अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर, देवी को त्रैलोक्य में महाशक्ति का रूप दिया । अठारह भुजाओं एवं आयुधों से सज्जित देवी के अनुपम रूप से कामासक्त हो कर दुराचारी दैत्यों ने उन्हें रूप-यौवन-मत्त सुंदरी मात्र समझा । उनके प्रणय-सन्देश की निर्लज्जता के उत्तर में देवी द्वारा ललकारे जाने पर दुर्मद दैत्यों ने उनसे युद्ध किया और सिंहवाहिनी क्रुद्ध देवी ने रणभूमि में घोर विनाशलीला रचाई । उसीकी झलक इस श्लोक में मिलती है । उनकी अठारह भुजाओं में असुरों का संहार करने में सक्षम, विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं, साथ ही द्युतिमान आभूषण भी देवी ने धारण किये हुए हैं, जो उनकी कांति को बहुगुणित करते हैं । युद्ध करने के लिए उठे हुए उनके करों में कंगन भी खनखना उठते हैं। इस श्लोक की पहली पंक्ति में उनके कुछ इसी प्रकार के रूप से अभिभूत कवि उन्हें पुकारता है कि हे देवी ! युद्धभूमि में असुरों के साथ संग्राम करते हुए धनुष-बाण वाले तुम्हारे हाथ की गति का अनुसरण करते हुए तुम्हारे कंकण भी तदनुसार हिल उठते हैं, अर्थात् हाथ तेजी से सक्रिय होते हैं तो कंकण भी कर में नाचने लगते हैं ।
दूसरी पंक्ति में कवि कहता है कि देवी के बाण स्वर्णिम हैं । कोलाहल करने वाले, भीषण रव करने वाले उन मूर्खों पर, अपने हतबुद्धि शत्रुओं पर जब वे उन बाणों को चलाती हैं तो वे स्वर्णिम बाण, शत्रुओं के रक्त के लाल रंग के मिल जाने से सुनहरे-भूरे हो जाते हैं । यह तब होता है जब उन बाणों का मिलाप शत्रु-देह से होता है । रणभूमि में असुरों की चतुरंगिणी सेना ने देवी को घेरा हुआ है, अर्थात् हाथी-घोड़ों-रथों पर सवार तथा पदाति (पैदल) सैनिकों से सज्ज रिपु-सैन्य में दूर दूर तक विभिन्न तरह के शीश ही शीश दीख पड़ते हैं । सभी ने निज शिरों पर अपने पद व सैन्य टुकड़ी के अनुरूप शिरत्राण पहना है और कुछ उसके बिना हैं, अतः सबके शिरों का रंग भी विविध होने से उसे कवि ने `बहुरंग` कहा है । इस प्रकार दुबुद्धि या भ्रष्ट मति वाले असुरों से, नाना प्रकार के रव करते हुए, बहुरंगी शीशों से, घिरी हुई देवी ने वहां विनाश का खेल खेला । ऐसे नाचते हुए कंकण से युक्त कर वाली, रक्त से भूरे हुए रंग के सुनहले धनुष वाली, चतुरंगिणी सेना का भयंकर संहार कर देने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
पिछला श्लोक | अनुक्रमणिका | अगला श्लोक |