महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक ११

Shloka 11

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोरमकान्तियुते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते ।
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

यि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोरमकान्तियुते
अयि = हे
सुमन: = सुप्रसन्न, सन्तुष्ट
सुमन: = सुन्दर मन वाली, उदार
सुमन: = पुष्प
सुमन: = फूल सी मृदुल
सुमनोरमकान्तियुते सुमनोरम + कान्तियुते
सुमनोरम = श्रेष्ठ मनोरम, सर्वाधिक मनोरम
कान्तियुते = प्रभा से युक्त हे ( देवी)
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते श्रितरजनी + रजनी + रजनी + रजनी + रजनीकर + वक्त्रभृते
श्रितरजनी = रात्रि से सुशोभित
रजनी = देवी का एक नाम है
रजनी = रात्रि सी सुखकरी
रजनी = रात्रि सी रहस्यमयी
रजनीकर = चन्द्रमा
वक्त्रभृते = (चन्द्र सा) मुख धारण करने वाली हे (देवी)
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते सुनयन + विभ्रमर + भ्रमर + भ्रमर + भ्रमर + भ्रमराभि: + दृते
सुनयन = सुंदर नयन
विभ्रमर = लालित्य
भ्रमर = (काले) भंवरे
भ्रमर = (मतवाले) भंवरे
भ्रमर = (चंचल) भंवरे
भ्रमराभि = भंवरों द्वारा
दृते = आदृत, (जिनका) आदर किया जाता है, ऐसी हे (देवी)
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनी महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोरम कान्तियुते (हे) श्रितरजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रभृते (हे) सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराभि: दृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

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भावार्थ

सुमन की भाँति सुकोमल तन तथा सुन्दर मन वाली और श्रेष्ठ मनोहर कांति से संयुत रूप  वाली हे देवि ! देवी की शोभा से शोभिनी है रात्रि तथा देवी भी रात्रि की भांति ही सौम्य, रहस्यमयी तथा सुखकरी हैं और चंद्रमा सदृश उज्जवल आभा से युक्त  मुख-मंडल वाली हैं तथा  (हे) काले, मतवाले भंवरों के सदृश, अपितु उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली  (देवी), हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

durga`महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्` के ग्यारहवें श्लोक में कवि देवी के आंतरिक और बाह्य सौंदर्य का गुणगान करता है । देवी की देह रमणीक कांति से देदीप्यमान हैं । दुर्दान्त  दैत्यों का अंत करने वाली देवी को त्रिदेवों का महातेज व अन्य देवताओं का तेज भी प्राप्त हुआ था । इन सभी के सम्मिलित तेज से देवी का प्रादुर्भाव हुआ था । उनकी रूप-कांति, उनकी प्रभा सर्वश्रेष्ठ है । अतः उन्हें सुमनोरमकान्तियुते कहा है । सुमन: फूल को कहते हैं एवं अच्छे और उदार मन वाले को भी कहते हैं ।  देवी फूल-सी मृदु व फूल-सी मेदुर-कान्ति से संपन्न हैं । इतना ही नहीं, उनका मन भी फूल-सा सुन्दर और सुकोमल व सुप्रसन्न है । सुमन: शब्द की प्रत्येक आवृत्ति प्रस्तुत श्लोक में फूल की एक नई तथा एक भिन्न विशेषता को संकेतित करती है । फूल में जैसे सुगंध और पराग होता है, वैसे ही देवी में अनुपम आकर्षण एवं लावण्य है एवं देवी के अनेक नामों में उनका एक नाम सुगन्धा भी है । कोमलांगी होने पर भी उनका युद्ध-कौशल प्रचण्ड है । ये कान्ति रक्षणशीला भी है और रिपुविनाशिनी भी । इसीलिये यह कान्ति श्रेष्ठ है व उन्हें सुमनोरम कान्ति से युक्त बताया है । अपने भक्तों पर आने वाली विपदा को वे विनष्ट कर देती हैं ।  फूल-सी चित्ताकर्षक होने के अलावा वे मृदु मन वाली हैं । मृदु मन वाला उसे कहते हैं जो दया के अतिरेक से आर्द्र हो जाता है । इस बात को तनिक स्पष्टता से समझने के लिये रघुवंशम् से एक उदाहरण प्रस्तुत है, महर्षिमृदुतामगच्छत् अर्थात् महर्षि मृदुता को प्राप्त हो गये यानि महर्षि दया से आर्द्र हो गये अथवा पिघल गये । देवी भी  भयभीत रिपुपत्नियों द्वारा शरण-ग्रहण करने से उन पर करुणा से द्रवित हो जाती हैं तथा वे उनका अभीष्ट उन पतिपरयणा वैरीवधुओं को प्रदान करती हैं तथा उनके योद्धा-पतियों को अभयदान दे कर वे कृपासागरी उनका संहार नहीं करतीं । करुणावरुणालया देवी की शरणापन्न हो कर शत्रु-पत्नियां भी सौभाग्यवती रहती हैं । देवता भी सुमनस् कहलाते हैं । माँ देवी होने के नाते सुमन हैं । सुन्दर मन से संयुत देवी सुरों पर वरदानों की वर्षा करती हैं व उन्हें आश्वासन देती हैं कि जब भी वे आर्त्त हो कर सहायतार्थ देवी को पुकारेंगे, तो वे अवश्य उनकी रक्षा करेंगीं । इस प्रकार सबका मंगलविधान करने वाली देवी को ‘अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते’ पुकारना सर्वथा समीचीन है ।

देवी के अनेक नामों में से एक नाम उनका रजनी तथा शर्वरी भी है और दोनों का अर्थ रात्रि है । देवी-देवताओं के शतनाम व सहस्रनाम आदि में आने वाले नामों में उन विशिष्टताओं को स्पष्टता से देखा जा सकता है, जिसके कारण उन्हें वह नाम मिला । श्लोक की दूसरी पंक्ति में रजनी अर्थात् रात्रि की कुछ विशेषताओं को निरूपित करके कवि उनके साथ देवी के गुणों की समता को वर्णित करता है । श्रितरजनी  यानि रजनी की शोभा से व्याप्त है जो ।यहाँ कवि ने देवी को रात्रि-शोभना से शोभित बताया है । रात्रि की विशेषताओं से शोभित हैं देवी, अत: वे रजनी भी कहलाती हैं । रजनी (देवी) यहां रजनी (रात्रि) की शोभा से रजनी (रंजिनी) हैं, ऐसा कवि का तात्पर्य है । देवी रजनी-सी सौम्य व सुखकरी हैं । रात्रि को सौम्या भी कहते हैं । सौम्या शब्द सोम अर्थात् चन्द्रमा से बना है ।  सौम्या यानि जो सोम के गुणों से युक्त हो, सुधा से युक्त हो । सुधांशु (चन्द्रमा) से रात्रि में अमृत-झरण होता है और औषधियों व वनस्पतियों में जीवनरस आप्लावित होता है ।फलत: जीव-सृष्टि भोजन पाती है । देवी भी अन्नपूर्णा रूप में प्राणी मात्र को भोजन लब्ध कराती हैं । उन्हें देवी अन्नपूर्णेश्वरी भी कहा जाता है ।

रात्रि सभी जीवों का श्रम दूर कर के उन्हें वह विश्रांति प्रदान करती है । रजनी निद्रा की शरणस्थली है । निद्रादेवी की कृपा प्राप्त कर रात्रि में सुखशयन करने वाला व्यक्ति सवेरे प्रफुल्लचित्त हो कर उठता है । देवी का ही तो एक अन्य रूप है निद्रा, “या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता…” । रात्रि तारों की झिलमिल  द्युति से दीप्त होती है, देवी दिव्य आभूषणों से मण्डित हैं । रात्रि का एक अपना रम्य और रहस्य्मय सौंदर्य होता है। देवी परम रहस्यमयी हैं ।क्यों न हों, वही तो महामाया हैं । स्तोत्र की इस पंक्ति में देवी के देदीप्यमान वक्त्र अर्थात् मुखमण्डल को रजनीकरवक्त्रभृते कह कर रजनीकर यानि चंद्रमा की द्युति सदृश बताया गया है ।  चन्द्रोज्ज्वल आभा से दमकता हुआ उनका मुखमण्डल मानो विधु की किरणों को धारण करता है । निज जनों के लिये, उनके हित हेतु रजनी ही की भांति वे सुखकरी व क्षेमकरी हैं । किन्तु दारुण दैत्यों के लिये वे कालरात्रि हैं  व भय-संचारिणी हैं । उनके दिव्य आभूषणों से उनका सौम्य स्वरूप और भी अधिक देदीप्यमान हो उठता है । रण में रक्षा के हेतु अग्रसर हुई देवी के कारण संत्रस्त देवगण आश्वस्त हो कर विश्रांति पाते हैं । अतः देवी को `श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनीकरवक्त्रवृते` कह कर पुकारा है ।

अगली पंक्ति देवी के नेत्र-सौंदर्य को रेखांकित करती है । उनके नेत्रों में कवि को काले, मतवाले और चंचल भ्रमरों की मनोरम्यता दिखाई देती है । भ्रमर की ही भांति देवी के नयन काले हैं, भ्रमर पर जैसे पुष्प के पराग या मधु का उन्माद छाया होता है, उसी प्रकार देवी की आंखें युद्ध के उन्माद से मतवाली हो रही हैं । भ्रमर जैसे फूल-फूल पर मंडराता है, उनके मकरंद का पान करने के लिए, वैसे ही देवी एक-एक दैत्य को मार कर उनके रक्त की प्यासी हो रही हैं । उनके रक्त-पान का मद भ्रमर के रस-पान के मद को बहुत पीछे छोड़ देता है । अपने नयनों के मतवालेपन, सलोनेपन व बचपन की-सी लोल-चंचलता के कारण भ्रमर उनका समादर करते हैं, अतएव वे भ्रमराभिदृते हैं । अन्त में देवी को सम्बोधित करते हुए कहा है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिजा , तुम्हारी जय हो, जय हो !

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