शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ५

Shloka 5 Analysis

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम्
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोsयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ।। ५ ।।

किमीहः किम् + ईहः
किम् = क्या, किस
ईहः = इच्छा (से)
किंकायः किम् + कायः
किम् = किस
कायः = देह (से)
= वह
खलु = सचमुच
किमुपायस्त्रिभुवनम् किम् + उपायः + त्रिभुवनम्
किम् = किस
उपायः = उपकरण (से )
त्रिभुवनम् = तीनों लोक
किमाधारो किम् + आधारः
किम् = किस
आधारः = आधार (पर)
इति = यह
=
धाता = सृष्टिकर्ता
सृजति = रचता है
किमुपादान किम् + उपादानः
किम् = किस
उपादानः = साधन, उपकरण
= और
अतर्क्यैश्वर्ये अतर्क्य + ऐश्वर्ये
अतर्क्य = ( जो ) तर्क से परे (अतीत) है
ऐश्वर्ये = दिव्यता ( दिव्य गुणों में )
त्वय्यनवसरदुःस्थो = त्वयि + अनवसरदुःस्थः
त्वयि = आपको लेकर ( आप से संबंधित ), आप तक
अनवसरदुःस्थः = ( आपके ऐश्वर्य की कल्पना तक में भी पहुँचने में ) असमर्थ
हतधियः = नष्टबुद्धि
कुतर्कोsयं कुतर्कः + अयम्
कुतर्कः = विकृत बात या तर्क
अयम् = यह
कांश्चिन्मुखरयति कांश्चित् + मुखरयति
कांश्चित् = कुछ (नष्टबुद्धि लोग )
मुखरयति = वाचालता से बोलते हैं
मोहाय = भ्रम में डालने के लिए
जगतः = संसार को , ( संसार को भ्रम में डालने के हेतु )

अन्वय

स धाता किमीहः किंकायः किमुपायः किमाधारः किमुपादनः च त्रिभुवनं सृजति इति अयं कुतर्कः अतर्क्यैश्वर्ये त्वयि अनवसरदुःस्थः खलु जगतः मोहाय कांश्चित् हतधियः मुखरयति ।

भावार्थ

सृजनकर्ता ( ब्रह्म ) किस इच्छा से अथवा किस इच्छा के वशीभूत हो कर, किस देह से, किस उपकरण से, किसे आधार बना कर, किस साधन से तीनों लोकों का सृजन करता है । वह कुतर्क किसी भी तर्क से परे यह जो आपकी दिव्यता है उस तक पंहुच पाने में असमर्थ कुछ नष्टबुद्धि के लोगों को, जगत को मोह-भ्रम में डालने के हेतु से वाचाल बना देता है ।

व्याख्या

शिवमहिम्नःस्तोत्रम् के पांचवें श्लोक में गंधर्वराज पुष्पदंत नष्ट एवं भ्रष्ट बुद्धि के लोगों द्वारा प्रकारांतर से ईश्वर व धर्म को न मानने वाले नास्तिक जनों द्वारा दिए गए ईश-विरोधी तर्कों के बारे में बताते हैं । वे ऐसे लोगों को हतधिय: कह कर पुकारते हैं । हतधियः अर्थात् जिनकी बुद्धि का ह्लास हो चुका है। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले अस्ति धर्मी न होकर नास्ति धर्मी हैं, जो ईश्वर के होने के विषय में अपनी अज्ञानाच्छन्न कुटिल बुद्धि से तरह-तरह की कुशंकाएँ उठाते हैं । दृश्यमान वास्तविकता से परे कुछ भी न देख-सोच पाने वाले और केवल देह को ही सब कुछ मानने वाले व्यक्ति उनकी दृष्टि में नष्ट और भ्रष्ट बुद्धि वाले लोग हैं । ऐसे इन्द्रियप्रत्यक्षपरक एवं भौतिकवादी लोग वेदों की आप्तता में विशवास नहीं रखते । ईश्वर व धर्म को न मानते हुए जीवन व जगत को समझने और उसकी व्याख्या करने में कोरी पदार्थवादी बुद्धि को ही महत्त्व देते हैं । आत्मा, परमात्मा, परंपरा, पाप-पुण्य, परलोक एवं मोक्ष आदि को अन्धविश्वास बताते हैं तथा नितांत क्षणवादी-भौतिकवादी दृष्टिकोण के चलते मनगढंत व तथाकथित वैज्ञानिक तर्कों से अपने दूषित निष्कर्ष निकाल कर ऐसे हतधियः व्यक्ति जनसाधारण को पथभ्रान्त करते हैं । ( भारतीय चिंतन-परंपरा में देहात्मवादी चार्वाक दर्शन इन्हीं मान्यताओं का आग्रही है और इसे नास्तिक-दर्शन भी कहते हैं । अपने ऊपर किसी यम-नियम-धर्म का अनुशासन न मानते हुए उनकी भोगप्रवण उक्ति है –

ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत

अर्थात् ऋण लेकर घी पियो और मस्त रहो । नास्तिक जन कहते हैं कि “त्रयी वेदस्य कर्तारो भण्डी-धूर्त्त=निशाचराः ।” ) कुछ इन्हीं प्रकार के लोगों के लिए स्तुतिकार ने हतधियः शब्द का प्रयोग किया है ।

परात्पर ब्रह्म के प्रति लोगों की भक्तिभाव व आस्था का उपहास करते हुए संदेहवादी, प्रत्यक्षवादी जन यह नहीं नहीं मानते कि इस ;जगत का सृष्टा, संपालक और संहारक ईश्वर या देवता या देवतागण हैं । पदार्थवादी दृष्टिकोण वाले बौद्धिक जन किमीह: किंकाय  प्रकार के निरर्थक प्रश्न पूछते हैं कि किस इच्छा से ईश्वर ने यह जगत बनाया, उस ईश्वर का शरीर कैसा है, किन साधनों-उपकरणों की सहायता से व किस आधार पर स्थित हो कर उस ब्रह्म ने तीनों लोक बनाये आदि-आदि । स्तुतिकार का कहना है कि हे महादेव ! आपका महैश्वर्य ( महा ऐश्वर्य ) अचिन्त्य है, अतर्क्य है, उसकी कल्पना तक भी पहुँच पाने में वे कुटिल जन असमर्थ हैं, जिनको बुद्धि ही नष्ट -भ्रष्ट हो चुकी है । ऐसे देहात्मवादी आप जैसे श्रद्धैकगम्य परमात्मा को जब किसी आकार व कलेवर में नहीं पाते तो वे आपके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा देते हैं । वे पूछते हैं कि आपकी देह कैसी है ? उसका क्या वर्ण है, क्या गुण हैं ? किन तत्वों से वह विनिर्मित है ? ईश्वर की देह यदि भौतिक नहीं है तो इस भौतिक जगत की सृष्टि उसने कैसे की ? यदि वह कोई आध्यात्मिक सत्ता है तो एक आध्यात्मिक व मानसिक सत्ता भौतिक जगत की रचना और उसके ऊपर नियंत्रण कैसे कर सकती है ? यदि यह ब्रह्म ने ही रचा है तो उसकी इस रचना के पीछे क्या उदेश्य निहित था, वह सब निष्प्रयोजन तो नहीं होना चाहिए।

अनीश्वरवादी लोग संशयात्मक स्वर में प्रश्न उठाते हैं कि ईश्वर यदि है तो उस ईश्वर की इच्छाएं किस प्रकार की हैं व किस इच्छा के वशीभूत हो कर उसने तीनों लोक रचे और उनकी रचना में किन साधनों से काम लिया गया, किन यंत्रोपकरणों को प्रयुक्त किया गया ? कौन से पदार्थ इसे बनाने के लिए जुटाए गए ? निस्संदेह कोई रचना बिना उद्देश्य के और बिना उपकरणों की सहायता से नहीं हो सकती । जब संसार पूर्व कुछ भी ही नहीं था तो उसे बनाने के साधन-संसाधन कहाँ से आये ? उत्पादन के वे कौन से उपकरण थे व कैसे वे जुटाए गए ? साथ ही इस त्रिभुवन-रचना की उपादेयता क्या है ? इसका महत्त्व क्या है ? कोरे उपयोगितावाद जैसे खण्डनात्मक तथ्यों से अपनी बुद्धि को बांधने वाले लोग स्वयं भ्रमित रहते हैं व दूसरों को भ्रमित करने के लिए व्यर्थ की जल्पना करते हैं । हे प्रभो ! ऐसे नष्टबुद्धि के लोग इन कुतर्कों से आपकी सत्ता व महत्ता को चुनौती देते है। प्रकारांतर से हे महादेव ! यह मूढ़मति-जड़मति लोग आपके महैश्वर्य (महा ऐश्वर्य ) के विषय में कुशंकाएं उठा कर उसे खण्ड-खण्ड करने का व अन्य लोगों को विपथगामी बनाने का प्रयास करते हैं । स्थूल ऐन्द्रियबोध से जकड़ा हुआ नास्तिक नहीं जानता कि स्वयं उसमें भी आपका रूप बसा हुआ है –

बरफ पूतरी सिंधु विच वदति पियास पियास ।

वस्तुतः ईश्वर को मानने विषयक बाते तर्काश्रित नहीं भावाश्रित व प्रज्ञानाश्रित हैं । कहते भी हैं कि

मानो तो महदेव नहीं तो पत्थर ।
श्लोक ४ अनुक्रमणिका श्लोक ६

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