शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक ४

Shloka 4 Analysis

जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुमकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ।।

जटाभुजंगपिंगल जटा + भुजंग + पिंगल
जटा + भुजंग = जटा से लिपटा हुआ सर्प
पिंगल = पीताभ सुनहली
स्फुरत्फणामणिप्रभा स्फुरत् + फणा + मणि + प्रभा
स्फुरत् = चमकता हुआ, लहराता हुआ, दमकता हुआ
फण: -> फणा = सर्प का फैला हुआ फण
फणामणि = सर्प के फण पर स्थित मणि
प्रभा = दीप्ति, कान्ति , जगमगाहट
कदम्बकुंकुंमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे
कदम्ब = हरिद्रा (हल्दी)
कुंकुंमद्रव = अंगराग, अनुलेपन
प्रलिप्त = लीपा हुआ, अनुलेपन किया हुआ
दिग्वधू = दिक् + वधू
दिक् = दिशा
वधू = सुंदरी
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मदान्ध = मद या घमंड में अंधा, मतवाला
सिन्धुर = गज
स्फुरत् = लहराता हुआ
त्वक् = त्वचा
उत्तरीय = उपरना, अंगवस्त्र ,पटुका
मेदुर = मेदयुक्त अर्थात् मोटा-मांसल
मनो विनोदमद्भुतं विभर्तु भूतभर्तरि।
विनोदमद्भुतम् = विनोदं + अद्भुतम्
विनोदम् = आनंद, बहलाव
अद्भुतम् = अनुपम, अनूठा
विभर्तु = भर दें
भूतभर्तरि = सब प्राणियों का भरण-पोषण करने वाले

अन्वय

जटाभुजंग स्फुरत् पिंगल  मणिप्रभा – कदम्ब कुंकुंमद्रव प्रलिप्त दिग्वधूमुखे मदान्ध सिन्धुर स्फुरत् त्वक् उत्तरीय मेदुरे ( स: )  भूतभर्तरि ( में ) मन:अद्भुतं विनोदं बिभर्तु ।

भावार्थ

भगवान शिव की जटा से लिपटे मणिधारी भुजंग के मणि की सुनहली-पीत प्रभा से दिशाएँ इस प्रकार जगमगा उठी हैं, मानो दिशा कोई सुन्दरी स्त्री हो, जिसके मुख को केशर-कुंकुम के अंगराग से लिप्त कर दिया गया हो । दूसरी ओर शिवजी ने मदान्ध गजासुर के चर्म का उत्तरीय (पटुका) ओढ़ा हुआ है, जिससे मेद की मांसल स्निग्ध कान्ति बिखर रही है । स्तुतिकार रावण का कहना है कि ऐसी अद्भुत आभा से युक्त भगवान भूतनाथ से मेरा मन सदा अद्भुत आनन्द को पाता रहे, उनकी सुनहली-सुचिक्कण छवि सदा मेरे मन के मोद का बने ।

व्याख्या

tandavaशिवताण्डवस्तोत्रम्  के चौथे श्लोक में स्तोत्रकार रावण अपने परम आराध्य शिव के स्वरूप के एक अन्य पक्ष को उद्गघाटित करता है । यहां रावण ने महादेव की अंग-कान्ति व उनके आभामण्डल का वर्णन किया है । स्तुतिकार रावण कहता है कि शिव के जटाजूटवर्ती (जटा में स्थित)  मणिधारी भुजंग की मणि के प्रगाढ़ पीले प्रकाश की दीप्ति से दिशाएं उद्भासित हो रही हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि जटास्थित सर्प की मणि से निकलते हुए स्वर्णिम-पिंगल प्रकाश ने दिशाओं को अपनी प्रभा-परिधि में आवृत्त कर रखा है । जटाभुजंग से निकलती हुई  मणिप्रभा के जगमग करते पिंगल आलोक से देदीप्यमान दिशाएं ऐसी दीख पड़ती हैं जैसे दिशा कोई रूपवती स्त्री हो, जिसके  मुख पर हरिद्रा-केशर के कुमकुमराग (अंगराग) का अनुलेपन कर दिया गया हो । दिशा को दिग्वधू कहा । समूचा वर्णन जीवंत हो उठा है । ऐसी कान्तिमती छटा है भगवान कपर्दी की । शिवसहस्रनाम में शिवजी का एक नाम ‘शिपिविष्ट’ भी है, जिसका अर्थ है ‘तेजोमयी किरणों से व्याप्त’ । मुग्ध है रावण  महाजटी (बड़ी जटाओं वाले) के परम तेजस्वी रूप पर ।

मणिधारी महासर्प वासुकि वस्तुत: महादेव के आभूषण हैं । पुराणों में सर्पों का उपाख्यान विस्तार से मिलता है । वस्तुत: तीन अत्यंत विशाल महासर्प भुजंगराज या सर्पराज कहे जाते हैं, अनन्त (शेषनाग), वासुकि तथा तक्षक । अन्य सभी प्रकार के सर्प इनकी सेवा में रहते हैं । महाभारत में कथा आती है, जिसके अनुसार शेषनाग धर्मात्मा व चरित्रवान थे तथा सर्पों की कुटिलता व कपट से दु:थी रहते थे ।उन सर्पों के बीच इनका मन नहीं लगता था । अंततः अपनी धर्म-निष्ठां , धैर्य और कठोर तपस्या से वे अनंत (शेषनाग) विष्णुजी का सानिध्य पाते हैं । इसी तरह वासुकि भी भक्तिनिष्ठ थे । शेषनाग श्रीविष्णु की शैय्या बन कर धन्य हुए तथा वासुकि शिवजी का आभूषण बन कर । तक्षक वही महासर्प हैं, जिन्होंने अर्जुन के पौत्र व अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को डसा था । नागों की कथा तो लम्बी है किन्तु यहाँ अति संक्षेप में केवल इसलिए दी गई है कि प्रायः सहृदय पाठक नागराज या सर्पराज से केवल शेषनाग को ही जोड़ कर देखते हैं, अतः शिव के कण्ठ में सर्पराज या भुजंगराज पढ़ कर भ्रमित हो जाते हैं कि जो शेष श्रीविष्णु की शय्या हैं वे शिव-कंठ में या जटा में कैसे पहुँच गए ।
nagasप्रस्तुत श्लोक की पहली व दूसरी पंक्ति में महादेव की देह से उद्भासित मणिमय कान्ति के छिटकाव का वर्णन है तो तीसरी पंक्ति में उनके आभा-मण्डल के स्निग्ध लहराव का दिग्दर्शन है । श्लोक के तीसरे पाद (पंक्ति) में रावण कहता है कि भगवान शिव ने गजचर्म का उत्तरीय (दुकूल, उपरना) ओढा हुआ है और उसके लहराने के साथ-साथ एक स्निग्ध आभा भी लहरा उठती है ।क्योंकि हवा में उड़ता हुआ वह दुकूल गजासुर की मांसल त्वचा का बना हुआ है , जो महादेव द्वारा मारा गया  । उसे अपने बल व पराक्रम का बहुत मद था, इसलिये रावण ने उसे मदान्ध सिन्धु: कहा । शिव के पीले तेज की प्रखरता की तरह उनकी सुचिक्कण आभा की स्निग्धता भी रावण के मन में अनुराग उपजाती है । शिव का यह चित्र प्रस्तुत कर वह कहता है कि मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि  अर्थात् ऐसे लहराते हुए दुकूल की स्निग्ध शोभा से संपन्न भगवान भूतनाथ मेरे मन को सदा इसी तरह के अद्भुत् आनन्द से भर दें । तात्पर्य यह है कि सर्व भूतों के भर्ता भोलेनाथ का यह रूप मुझे उन्हीं में तन्मय रख कर मेरा कल्याण-सम्पादन करे ।

शिव द्वारा असुरों के वध की बहुत सी कथाएं प्राप्त होती हैं । इन्हीं में से एक है उनके द्वारा गजासुर के वध की कथा । इस असुर का नाम नील था, कहीं-कहीं इसे अंधकासुर का मित्र भी बताया गया है । यह असुर शिव के साथ युद्ध करते समय गज का रूप ले लेता था , अतः गजासुर कहलाया । शिव ने इसका वध करके इसकी त्वचा का उत्तरीय प्रयुक्त किया। कटि पर व्याघ्रचर्म वे धारण करते हैं तथा ऊपरी भाग पर उपरना अथवा उत्तरीय वे गजासुर की त्वचा का ओढ़ते हैं । गजचर्म के प्रयोग के कारण शिव को कृत्तिवास, कृत्तिसिंधुर भी कहा जाता है ।

किसी-किसी कथा में  यह भी आता है कि गजासुर वास्तव में शिव-भक्त था । वह कड़ी तपस्या के बाद शिव से वर प्राप्त करता है कि वे उसके पेट के भीतर निवास करें, ताकि सदा उसके पास रहें । तत्पश्चात पार्वती  व  नंदी द्वारा शिव को वापिस करने के आग्रह करने पर वह शिव से पेट से बाहर आने की प्रार्थना करता है और इच्छा प्रकट करता है कि वह लोगों की स्मृति में अमर हो जाये । अतः उसके देहत्याग के बाद शिव उसके कटे सर को लिए घूमते हैं । पार्वतीनन्दन का शिरोच्छेद किये जाने के उपरांत गजासुर के शीश को वे उसमें लगा देते है तथा पार्वतीनन्दन तत्प्श्चात् ही गजानन कहलाते हैं । कथाओं में भिन्नता है किन्तु उन सब की आत्मा एक ही है कि वह असुर मरने के बाद भी शिव-सानिध्य में ही रहता है,  इसके अलावा गजचर्म धारण करने से संकेतित होता है `इन्द्रियों`को जीतना । गज को मोह का प्रतीक भी माना जाता है , अतः कतिपय चित्रों में गज के ऊपर शिव को नर्त्तन करते हुए भी दिखाया गया है, जो मोह-मद जैसी आसुरी वृत्ति पर विजय का द्योतक है। रावण स्वयं एक असाधारण व्यक्तित्व था, अपने असाधारण आराध्य की लीलाएं उसे रोचक और रोमांचक लगती हैं  तथा वह भगवान भूतनाथ से प्रार्थना करता है कि उसके मन को सदैव उनके  अद्भुत दर्शन का ऐसा अनुपम और अनूठा आनंद प्राप्त होता रहे ।

लंकापति और रक्षेन्द्र होते हुए भी रावण मन से भक्त और विद्वान था । वह चाहता था कि शिव-चिंतन से प्राप्त आनंद उसके मन बहलाव का साधन बने । अन्यथा भौतिक सुख-साधन-सम्पदा जन्य मन बहलाव की लंकाधिपति को कोई कमी नहीं थी । अंत में, उसके ऐश्वर्य की एक छोटी सी वानगी यहाँ प्रस्तुत है, जो `श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण` से ली गई है ।

या हि वैश्रवणे लक्ष्मीर्या चन्द्रे हरिवाहने ।
सा रावणगृहे रम्या नित्यमेवानपायिनी ।।
— वाल्मीकि रामायण , सुन्दर कांड, नवम सर्ग

अर्थात्  जो लक्ष्मी कुबेर, चन्द्रमाँ और इंद्र के यहाँ निवास करती हैं , वह और भी सुरम्य रूप से रावण के घर में नित्य ही निश्चल हो कर रहती थी ।

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2 comments

  1. Vikas sharma says:

    आदरणीय डॉक्टर किरण भाटिया जी नमस्कार यहां कदंब का अर्थ हल्दी दिया हुआ है कदंब का अर्थ समूह होता है या हल्दी कृपया स्पष्ट करें l

    • Kiran Bhatia says:

      संस्कृत भाषा में एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । कदंब के दोनों अर्थ सही हैं । नमस्कार ।

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