शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक २

Shloka 2 Analysis

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ।।

जटाकटाहसम्भ्रम जटा + कटाह + सम्भ्रम
जटा = केश, बाल
कटाह = कड़ाह या कमंडलु के आकार का पात्र
सम्भ्रम = क्रीड़ा करती हई, चक्कर काटती हुई
भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी भ्रमन् + निलिम्प + निर्झरी
भ्रमन् = भ्रमण करती हुई, घूमती हुई
 निलिम्प = देव
निर्झरी = नदी
विलोलवीचिवल्लरी विलोल + वीचि + वल्लरी
विलोल = चंचल
वीचि = लहरें
वल्लरी = बेल, लता
विराजमानमूर्धनि विराजमान + मूर्धनि
विराजमान = प्रदीप्त होती हुई, झिलमिल चमकती हुई
मूर्धनि = सिर के ऊपर
धगद्धगद्धगज्ज्वल् धगद्धगद्धगद् + ज्वल्
धगद्धगद्धगद् = धधकती
ज्वलद् = तेजी से जलती
ललाटपट्टपावके ललाटपट्ट + पावके
ललाटपट्ट = भाल प्रदेश
पावक = अग्नि
किशोरचन्द्रशेखरे किशोर + चन्द्र + शेखर
किशोर चन्द्र = बाल चंद्र
शेखरे = शिखा के ऊपर, सिर के ऊपर
रतिःप्रतिक्षणंमम रतिः + प्रतिक्षणं + मम
रति: = प्रीति
प्रतिक्षणं = हर पल
मम = मेरी

अन्वय

जटा-कटाह सम्भ्रम भ्रमन् निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि धगद् धगद् धगद् ज्वलल्ललाटपट्ट पावके किशोर – चंद्रशेखरे प्रतिक्षणं मम रति: (भवतु) ।

भावार्थ

शिव की जटा को एक कड़ाह (कड़ाही जैसा एक बड़ा पात्र) की उपमा देते हुए रावण कहता है कि जटा में बड़ी द्रुत गति से चक्राकार भ्रमण करती हुई देवनदी गंगा की क्षुब्ध लोल लहरें लता की तरह लग रहीं हैं व उनके शीश पर झिलमिला रही हैं । दूसरी ओर उनके माथे पर धधकती हुई भीषण अग्नि प्रज्वलित हो रही है । अपने शीश पर वे अर्ध-चन्द्र धारण किये हुए हैं । स्तुतिकार कहता है कि ऐसे भगवान शंकर में मेरी प्रीति प्रति पल बनी रहे ।

व्याख्या

ganga-dhara-shiva-naga-jata-yoga-omरावण का कहना है कि शिव के जटा रूपी कड़ाह में क्षिप्र गति से घूमती हुई सुरसरिता की चंचल लहर-लताओं से जिनका शीश शोभायमान हो रहा है, तथा भाल पर जिनके प्रचण्ड अग्नि धधक रही हैं, ऐसे किशोर-चँद्रमा अर्थात् बाल-चँद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग पल-पल बढ़ता रहे ।

शिवताण्डवस्तोत्रम् के दूसरे श्लोक में रावण ने शिव के सौम्य एवं रौद्र रूप का सशक्त और सुंदर वर्णन करते हुए उनके प्रति अपने अनुराग को व्यक्त किया है । श्लोक में जटा के बँधे हुए केश-पाश की कुण्डलाकार आकृति को जटाकटाह अर्थात् कड़ाह जैसे पात्र की तरह बताया है और कहा है कि जटा रूपी कड़ाह में सुरसरिता अर्थात् गंगा नदी अति वेग से घूर्णित हो कर क्रीड़ा कर रही है । विलोलवीचिवल्लरी कहते हुए लहर-लहर लहराती गंगा की उपमा बेल अथवा लता से की है । जिस प्रकार वल्लरी अर्थात् लता किसी तरु से या तरु-शाखा से लिपट कर बंकिम चाल से चढ़ती है और आगे बढ़ती हुई पुन: नीचे की ओर उतर कर भूमिशायी हो कर फैलने लगती है, उसी प्रकार सुरसरिता गंगा का वारि प्रवाह भी शिव-जटा के कटाह में सिमटा-लिपटा हुआ है । भगवान महाजटी अपनी जटाजूट की एक लट जब खोलते हैं तो उससे वारि प्रवाह पृथ्वी पर प्रबल वेग से कल-कल करता बहने लगता है । शिवमूर्द्धा (शिवमस्तक) से निर्झरित होने के कारण तरंगलोला गंगा को स्तुतिगायक ने विराजमान मूर्द्धनि कहा । लोक में भी शिवजटा से निकल कर प्रवहमान होने के कारण गंगा को जटाशंकरी कहते हैं । इसी से गंगा मैया का एक नाम शिवमौलिमालती भी है ।

 निलिम्पनिर्झरी का अर्थ है देवसरिता, अर्थात् गंगा । निलिम्प यानि देवता तथा निर्झरी का अर्थ नदी है । देवापगा के निर्झर-से फूटते प्रवाह में त्वरा है, क्षिप्रता है । वह गर्वीली है । नभ से शम्भु-शीश के खुले जटाजाल पर पूरे वेग से गिरते ही उनके द्वारा बांध दिये जाने के विवशताजन्य विक्षोभ से कड़ाह-सी जटा में तड़पती, त्वरा से चक्कर काटती सुरसरिता रुक्ष केशों की बंकिम लटों के कुंडलाकार कटावों के मध्य में  क्षिप्र वेग से भ्रमण करती है । अंततः शिव द्वारा एक अलक के खोल दिये जाने पर, उसकी एक वेणी अर्थात् जलधारा कल्लोल करती हुई लोक में लहरा उठती है । शिव की अलक (बालों की लट) से निकलने के कारण जलधारा उनकी नन्दा (नन्दिनी) अर्थात् पुत्री मानी गई । उनके अलक की नन्दा होने के कारण अलकनन्दा के नाम से जग में विश्रुत हुई । (शिवालिक पर्वतश्रेणी का नाम भी शिव की अलक (शिव+अलक = शिवालक) शब्द से व्युत्पन्न है, जो कि बाद में उच्चारण की सरलता के कारण शिवालिक बोला जाता रहा, ऐसा भाषाविज्ञान के विद्वानों का मानना है । उनका यह भी कथन है कि शिव की फैली हुई अलकें हैं, शिवालिक की पहाड़ियां ।) वेणी का अर्थ जलधारा होता है । तीन वेणियों अर्थात् तीन जलधाराओं का संगम प्रयागराज में त्रिवेणी कहलाता है । अपने कड़ाहाकार जटापथ पर त्वरा से चक्कर काटती, फूटती, बहती चटुल-चपल गंग-तरंग स्तुतिकार को लता-सी भासती है । मस्तकस्थ अर्धचन्द्र के मृदु आलोक में वह ज्योत्स्ना-स्नात हो उठती है । यह शिव का सौम्य रूप है । यहाँ परम शैव गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा प्रणीत शिवमहिम्न:स्तोत्रम् का एक श्लोक स्मरण हो आता है, जिसका उल्लेख कर पाने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूं । गन्धर्वराज कहते हैं

वियद्व्यापीतारागुणितफेनोद्गमरुचि:
प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते ।।१७।।

अर्थात् हे शिव ! तारागणों की द्युति से भास्वर होता हुआ आकाशगंगा का जलप्रवाह, जो आकाश पर्यन्त व्याप्त हो रहा है, वह आपके सिर पर एक नगण्य जलकण के समान दिखाई पड़ता है ।

रावण ने इससे विपर्यस्त स्थिति वाला शिव का एक और रूप भी वर्णित किया है । यह रूप अग्नि-स्फुलिंगमय है, जिसमें क्रोधातिशय है । उनके भाल-प्रदेश पर भयंकर अग्नि धधक रही है । यह रौद्र-रूप है । महादेव के संहारमूर्ति रौद्र रूप का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कंध में एक स्थान पर आता है, जहाँ सती अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में स्वयं को योगाग्नि में दग्ध कर देती हैं और यह जानने के बाद शिव का क्रोधानल फूट पड़ता है । इस रोमांचकारी वर्णन की एक वानगी यहाँ प्रस्तुत है ।

यस्त्वन्तकाले व्युप्तजटाकलाप: स्वशूलसूच्यर्पित दिग्गजेन्द्र:
वितत्य नृत्युत्युदितास्त्रदोर्ध्वजानुच्चाटहासस्तनयित्नुभिन्नदिक् ।।१७।।

प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब वे ( शिवजी ) जटाजूट को बिखेर कर, शस्त्राशस्त्र-सज्जित अपनी भुजाओं को ध्वजाओं की तरह फैला कर तांडव करते हैं, तब उनके त्रिशूल के फल से दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयंकर अट्टहास से दिशाएं छिन्न-भिन्न हो जाती हैं ।

6a0162fd3dd02a970d015393e97c32970bशिव के तांडव में सृजन व संहार दोनों क्रमागत होते रहते हैं । रावण उनके इस रोमहर्षण रूप से रोमांचित है । निर्माण पुलकित और प्रसन्न अवस्था में होता है, तथा संहार की स्थिति इससे विपर्यस्त होती है, जब पाप अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है और अनिष्ट के निवारण और निराकरण का कोई उपाय नहीं बचता । इसी रौद्र रूप से उन्होंने दर्प-स्फीत मदन अर्थात् कामदेव का दहन किया था । मदन-दहन की कथा अति संक्षेप में इस प्रकार है । वज्रांग और वरांगी का पुत्र तारकासुर ( राक्षस तारक ) पारियात्र-पर्वत पर कठोर तपस्या के फलस्वरूप ब्रह्माजी से वरदान पा कर, त्रिलोकी का स्वामी बनकर देवताओं को त्रास देने लगा था । उसका वध शिव के औरस पुत्र के सिवा और कोई नहीं कर सकता था । और शिव स्वयं हिमालय पर्वत पर तपस्या-रत थे । इंद्र ने देवताओं के हित साधने के हेतु से अपने पराक्रमी देव-सुभट ( देव-योद्धा) कामदेव को उनके पूरे दल-बल के साथ शिव-तपस्या भंग करने के लिये तप-स्थली पर भेजा और कामदेव अपनी पत्नी रति व मित्र वसंत के साथ नृत्य-संगीत-गान-कुशल अप्सरियों को ले कर तपोवन में भगवान् शंकर के आश्रम पहुँचे । ध्यानस्थ शिव के आगे वे विफल हुए लेकिन वहाँ पार्वती के आने पर कामदेव ने अपना पुष्पबाण सन्धान किया तथा अपने पांच बाणों में से पहला सम्मोहन नामक बाण शिव पर चला दिया । अपने तप पर आघात होने से क्रुद्ध शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया, आग की भयंकर लपटें निकलीं व तत्क्षण मदन यानि कामदेव वहीं अग्नि की आहुति बन गये अर्थात् भस्मीभूत हो गये । रावण भगवान शंकर के इस रूप से भी अभिभूत है ।

रावण प्रार्थना करता है कि ऐसे भगवान शशांक-शेखर में मेरी प्रीति सदा सर्वदा बनी रहे, रति: प्रतिक्षणं मम । उनका शीश किशोर अर्थात् तरुण चँद्रमा से सुशोभित है जिसकी अमल धवल चन्द्रिका में पतितपावनी पुण्यसलिला गंगा के जलकण झिलमिल कर रहे हैं । भाल पर अग्नि, कपाल पर चँद्र धारण करने वाले गंगाधर, चँद्रधर शिव के प्रेम में मैं सदा पगा रहूँ, डूबा रहूं, यही मेरी प्रार्थना है । विनयावनत रावण भावविभोर है ।

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4 comments

  1. vikas sharma says:

    नमस्कार .धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके। मूल श्लोक में धगद् धगद् धगज् ज्वलल् ललाट है।

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