शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक २७

Shloka 27 Analysis

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा-
नकाराद्यैर्वर्णैर्स्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि:
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥ ॥ २७ ॥

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा-न्
त्रयीं = ऋक्, यजु: और साम तीनों वेदों को
तिस्र: = तीन
वृत्तीस्त्रिभुवनमथो वृत्ती: + त्रिभुवनम् + अथो
वृत्ती: = (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीन) अवस्थाओं को
त्रिभुवनम् = तीनों लोकों को
अथो = और
त्रीनपि त्रीन् + अपि
त्रीन् = तीनों
अपि = भी
सुरान् = ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों देवों को
-नकाराद्यैर्वर्णैर्स्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति
नकाराद्यैर्वर्णैर्स्त्रिभिरभिदधत् -न् + अकाराद्यै: + वर्णै:+ त्रिभि: + अभिदधत्
-न् = पहली पंक्ति का सुरान् का न्
अकाराद्यै: = अकार, उकार, मकार आदि से
वर्णै: = अक्षरों से
त्रिभि: = (इन) तीनों से
अभिदधत् = बतलाता हुआ, अवगत कराता हुआ
तीर्णविकृति = निर्विकार, विकार से परे
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि:
तुरीयम् = चतुर्थ, अखण्ड
ते = आपके
धाम = स्वरूप को
ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि: ध्वनिभि: + अवरुन्धानम् + अणुभि:
ध्वनिभि: = (नाद से) ध्वनियों से
अवरुन्धानम् = अवगत कराता हुआ, वर्णन करता हुआ
अणुभि: = अत्यन्त सूक्ष्म (ध्वनियों से)
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्
समस्तम् = समूचा (ॐ पद) मिलित रूप से
व्यस्तम् = बंटा हुआ (ॐ पद) अलग-अलग रूप से
त्वाम् = आपको
शरणद = हे शरण देने वाले (प्रभो) !
गृणात्योमिति गृणाति + ओम् + इति
गृणाति = प्रतिपादित करता है
ओम् = ओम्
इति = यह
पदम् = शब्द

अन्वय

शरणद ! त्रयीं, तिस्र: वृत्ती:, त्रिभुवनम् अथो त्रीन् सुरान् अपि अकाराद्यै: त्रिभि: वर्णै: अभिदधत् तीर्णविकृति तुरीयम् ते धाम अणुभि: ध्वनिभि: अवरुन्धानम् ओम् इति पदम् त्वाम् समस्तम् व्यस्तम् गृणाति ।

भावार्थ

हे शरण्य प्रभो ! तीनों वेदों (ऋक्, यजु: व साम), तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति), तीनों लोकों ((भू: भुव: स्व:), तथा तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को अकारादि तीन वर्णों से, अर्थात् अ-उ-म् इन तीन वर्णों से बतलाने वाला तथा सम्पूर्णतया विकाररहित आपके विशुद्ध स्वरूप का अति सूक्ष्म ध्वनियों से बोध कराने वाला ॐपद (ॐकार) समस्त व व्यस्त—इन दोनों प्रकारों से आप ही को प्रतिपादित करता है । दूसरे शब्दों में व्यस्त रूप में प्रपंच सहित तथा समस्त रूप मे प्रपंच रहित (सब त्रिपुटियों से रहित) ॐ पद अ अ म् इन तीन वर्णों से आपके सर्वविकारातीत स्वरूप को (तुरीय रूप को) सूक्ष्म ध्वनियों से बतलाते हुए आप ही का वर्णन करता है ।

व्याख्या

ॐपद भगवान् शिव का ही वाचक है । अ, उ, म् इन तीन वर्णों (अक्षरों) को जोड़ कर ओम् बनता है । इन्हीं को क्रमश: अकार, उकार और मकार कहा जाता है । ॐकार दो प्रकार का है,  एक समस्त व दूसरा व्यस्त । प्रस्तुत श्लोक में  स्तोत्रकार पुष्पदन्त के कथन का तात्पर्य यह है कि हे शरणागत-वत्सल प्रभो !  ॐपद प्रत्येक प्रकार से अति सूक्ष्म ध्वनियों से (जो कर्णगोचर नहीं हैं) आपके त्रिगुणातीत रूप का प्रतिपादन करता है । इसमें व्यस्त रूप से ॐ पद तीनों वेदों, तीनों वृत्तियों, तीनों लोकों व तीनों देवों को तीन अक्षरों (अ-उ-म) से बतलाता है तथा समस्त रूप में यही ॐ पद ऊपर वर्णित सभी त्रिपुटियों से परे (एवं अन्य सभी त्रिपुटियों से परे), अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनियों से आपके परम शान्त-शुद्ध  और अखण्ड रूप को अवगत कराता है । शिवजी का यह रूप उनके सगुण व निर्गुण दोनों रूपों से परे है और वाणी द्वारा सर्वथा अनिर्वचनीय है । इसीको चतुर्थ स्वरूप कहते हैं । प्रस्तुत श्लोक में ॐकार की तीन मात्राओं के साथ वेदत्रयी, अवस्थात्रय, त्रिभुवन व त्रिदेव, की संगति बिठाई गयी है । ॐकार को त्रिगुणातीत भगवान् शिव की धामाभिव्यक्ति कहा है स्तुति-गायक कवि ने ।  प्रस्तुत श्लोक में इसी तथ्य का विवेचन करते हुए कवि का अपने आराध्य से यह कहना है कि हे शरण्य ! ॐकार के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ आप ही हैं । यह पद (शब्द) व्यस्त व समस्त दोनों प्रकार से आपके स्वरूप का ही बोधक है । यह ॐकार सभी त्रिपुटियों से परे आपके अखण्ड स्वरूप अथवा धाम को ही प्रतिपादित करता है ।

सर्वप्रथम प्रस्तुत स्तोत्र में ॐ पद के साथ प्रयुक्त किये गये समस्तम् व्यस्तम् शब्दों पर दृष्टिपात करना युक्तिसंगत होगा । वेदों के मर्मज्ञ स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का कथन है कि पूरे ॐकार को समस्त कहते हैं व ध्वनि सहित तीन अक्षरों को व्यस्त कहते हैं, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट होता है ।

ॐकारो द्विविध: प्रोक्त: समस्तम् व्यस्त एवं च ।
समस्त: कृत्स्न ओंकारो सध्वनिस्त्र्योक्षरोऽपर: ॥

अ-उ-म तीन अक्षर, नाद शब्द से प्रसिद्ध ध्वनि, ये मिल कर व्यस्त ॐकार होता है । ध्वनि शब्द से नाद और बिन्दु दोनों ग्राह्य हैं, किन्तु इन्हें संक्षेप में ध्वनि कह दिया जाता है । पूरे ॐकार को समस्त माना जाता है ? यह भी नादसहित होता है, ॐकार: स समस्त: स्यात्सनाद: सोऽपि 

प्रस्तुत श्लोक में सर्वप्रथम त्रयीम् का उल्लेख स्तुतिकार ने किया है । वेदों में ऋक्, यजु:, साम और अथर्व नाम की चार संहिताएँ हैं । यही मूलत: वेद हैं । इनको क्रमश:  ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद कहते हैं । त्रयी शब्द वेदत्रयी के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इससे ऋक्, यजु: व साम का बोध होता है । विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ का वेदत्रयी के विषय में व्यक्त किया हुआ मत बहुत महत्वपूर्ण है । उनके शब्दों में—इसका अर्थ तीन वेद नहीं है । इस नाम ने बड़े-बड़े वैदिक अन्वेषकों को भ्रम में डाला है । वे यह सोच बैठे कि तीन वेद ही मुख्य हैं और चौथा कदाचित् पीछे का है ; किन्तु ऐसा मानना सर्वथा भ्रम है । वेदत्रयी का अर्थ है त्रिकाण्डात्मक वेद । वेद में ज्ञान, कर्म और उपासना इन्हीं तीन विषयों का वर्णन है । पूरे वेदों के सब मन्त्र इन्हीं में से किसी न किसी विषय का प्रतिपादन करते हैं । इन तीन विषयों का प्रतिपादक होने से वेद को त्रयी कहते हैं ।

वेदत्रयी के विषय में स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का कथन है कि “वस्तुत: त्रयी का ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद ऐसा अर्थ मत करो । तब अथर्ववेद का असंग्रह होगा । किन्तु ऋक् यजु और साम यही अर्थ करो । नियतपादाक्षर ऋक् है । अनियत पादाक्षर यजु है । गीतियुक्त साम है । इस लक्षण से अथर्ववेद का भी संग्रह हो जाता है ।” और आगे जा कर स्वामीजी कहते हैं कि “…त्रयीपद से ऋग्वेदादि न ले कर ऋगादि ही लेना चाहिये ।

ऋगादिपरक: शब्दो न त्वृग्वेदादितत्पर: ।

सरल शब्दों में कहा जाये तो गद्य, पद्य और गीतियुक्त  इन तीन विधाओं में प्राप्त होने से वेदों को वेदत्रयी कहा जाता है । अ उ म को खण्डों में बाँट कर देखा जाये तो (व्यस्त रूप में) कार से ऋग्वेद, कार से यजुर्वेद व कार से सामवेद का प्रकाशन होता है ।

प्रथम पाद अथवा पहली पंक्ति में वेदत्रयी के बाद तीन वृत्तियों को आलोकित किया है त्रिस्रो वृत्ती: कह कर । वृत्ति का अर्थ है अवस्था । अवस्थाएं तीन हैं—जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति । तीन वृत्तियों (अवस्थाओं) के संबंध में स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी के विचार हैं कि सुषुप्तिकाल में देह का भान नहीं रहता । दूसरे शब्दों में देह का अहंकार लीन हो जाता है । तब देह जड़ के समान हो जाता है । अहंकार का आधा विकास स्वप्न है और अहंकार का पूरा विकास जाग्रत है । जाग्रत अवस्था में उसमें एक वृत्ति और एक वृत्तिमान् रहता है । और यह दोनों जिसमें भास रहे हैं, वह माया है ।( ये विचार दृग्-दृश्य विवेक नामक उनकी एक व्याख्यान-माला से लिये गये हैं ।) । वृत्ति शब्द स्त्रीलिंग है, अत: तीन पद (शब्द) का, जो कि विशेषण है, स्त्रीलिंग बहुवचन रूप लिया है तिस्र: । इस कारण से तिस्रो वृत्ती: शब्द-प्रयोग हुआ है । कवि का कहना है कि ॐकार इन तीन वृत्तियों से शिवजी के स्वरूप का वर्णन करता है । बँटे हुए रूप में देखें तो ओंकार के कार से जाग्रत, कार से स्वप्न तथा कार से सुषुप्ति की अवस्थाओं का बोध गृहीत होता है । श्रुतियों में अकारादि वर्णों (अक्षरों) का अर्थ केवल अवस्थामात्र नहीं बताया है, अपितु जाग्रत् आदि अवस्था-स्थानीय चेतन (अधिष्ठाता) भी इसके अर्थ में समाविष्ट होता है । मांडूक्य उपनिषद् में कहा गया है कि प्रथम मात्रा (अकार) वैश्वानर (विश्व) है, द्वितीय मात्रा (उकार) तैजस् है तथा तृतीय मात्रा (मकार) प्राज्ञ है । तीन अवस्थाओं में बंटा होने से यह व्यस्त रूप है । परम चैतन्य वृत्तियों से निरपेक्ष एवं निर्लिप्त    है ।

अगला शब्द है तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो, जिसकी सन्धि करने पर बनेगा तिस्र:+वृत्ती:+त्रिभुवनम्+अथो । तीन वृत्तियों के उपरान्त त्रिभुवनम् अर्थात् तीन लोकों का उल्लेख कवि करते हैं । ओंकार से तीन लोकों को कह कर ओंकार के व्यस्त रूप का एक और उदाहरण कवि ने दिया है । तीन भुवनों अर्थात् तीन लोकों से भू: भुव: तथा स्व: विवक्षित हैं । इन तीनों में ब्रह्माण्ड के सभी लोक समाहित हो जाते हैं । अथो से अभिप्रेत है और  तत्पश्चात् कवि ने पहली व दूसरी पंक्ति में कहा है त्रीनपिसुरानकाराद्यैर्वर्णैर्स्त्रिभि:,(त्रीन्+अपि+सुरान्+अकाराद्यै:+वर्णै:+त्रिभि:) अर्थात् ॐपद तीन सुरों को भी अकारादि तीन वर्णों से व्यक्त करता है । यह व्यस्त ओंकार है । अकार से ब्रह्मा, उकार से विष्णु व मकार से महेश विवक्षित हैं, जिनके गुण अथवा कार्य हैं क्रमश: सृष्टि, स्थिति व प्रलय । ये तीनों देव परमात्मा के स्वरूप हैं, तथापि परम स्वरूप नहीं हैं । इन तीन देवों के अन्तर्गत अन्य सभी सुरों का समावेश हो जाता है । इस तरह सृष्टि, रक्षा व प्रलय कार्यों के भेद से शिवजी ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करके तीन स्वरूपों में उद्भासित हैं ।

ओंकार के अर्थ को तीन देव भी महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं । त्रिदेवों के विषय में अति संक्षेप में कहा जाये तो ब्रह्माजी सृष्टिकर्ता हैं । वे चतुर्मुख हैं । असुरों ने इनकी उपासना कर उत्तमोत्तम वरदान प्राप्त किये । मोक्षार्थी इनकी उपासना नहीं करते, क्योंकि मोक्ष तो केवल शिव या विष्णु ही प्रदान कर सकते हैं । भगवान् विष्णु वैष्णव ग्रन्थों के अनुसार अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि हेतु कारण-वारि में शेष-शय्या पर शयन करते हैं । गर्भोदशायी रूप में विष्णु भूमा पुरुष कहलाते हैं । प्रत्येक ब्रह्माण्ड में वे ही क्षीराब्धशायी चतुर्भुज विष्णु होते हैं । इनकी नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं । भक्तों व देवों की रक्षा के लिये व असुरों का संहार करके धर्म की स्थापना के हेतु वे युग-युग में अवतार धारण करते हैं । इनके मुख्य अवतार दस हैं । उन अनन्त के अंश व कला अवतारों की तो संख्या ही नहीं गिनाई जा सकती । गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कहें तो हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता …

तीन सुरों में तीसरे भगवान् शिव हैं । शैव संप्रदाय की निष्ठा है कि जगत् के मूल कारण भगवान् शिव हैं । वे प्रणव-स्वरूप हैं, नाद-बिंदु से परे हैं । वे ही सृष्टि, स्थिति व प्रलय के हेतु ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र के रूप धारण करते हैं । उनका नित्यधाम शिवलोक है । पृथ्वी में कैलाश और वाराणसी इनके नित्यधाम हैं, जो  उनके नित्यधाम शिवलोक के प्रतीक है । प्रत्येक ब्रह्माण्ड में उनका एक शुभंकर-प्रलयंकर रूप है । उन जटाधर का वर्ण कर्पूरगौर है—कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् । शिव का अर्थ है कल्याण, शुभ । वेदों में रुद्र नाम से इनका ही वर्णन है । वेदों से लेकर अर्वाचीन युग के साहित्य में इनकी उपासना वर्णित है । रुद्री अष्टाध्यायी इन्हीं की स्तुति है ।

उपर तीन सुरों का संक्षिप्त परिचय देकर हमने कवि के इस भाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ओंकार इन तीनों को संकेतित करके शिवजी के स्वरूप का वर्णन करता है । कवि का अभिप्राय है कि हे शरणागतों के रक्षक ! सभी भूतों में बंटा हुआ अ-उ-म (ओंकार) समस्त व व्यस्त रूप से आपके ही वाच्यार्थ का वर्णन करता है । यह ॐ अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत आदि सभी भूतों में घुल-मिल कर आप ही के गुणों का गायन करता है ।

अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभि: (अकाराद्यै: वर्णै: त्रिभि:), यह द्वितीय पाद में आया हुआ शब्द है । अकाराद्यै: त्रिभि: वर्णै: अर्थात् अकारादि तीन अक्षरों द्वारा भगवान् शिव के स्वरूप को ॐकार प्रकाशित करता है । ये तीन अक्षर अथवा वर्ण हैं अ-उ-म । इन तीन वर्णों से क्रमश: कवि ने ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद को अभिव्यंजित किया । स्वामी काशिकानन्द गिरिजी के शब्दों में ऋगकारादुकाराच्च यजु: साम: मकारत: । ओम का उच्चारण करते समय अ तथा उ की सन्धि से ओ बनता है । ओष्ठ को बंद कर लेने पर म स्वत: यानि अपनेआप बन जाता है । बंद होना स्थिति है और इसका परिचायक है बिन्दु । ओम के उच्चरित होने के साथ-साथ ध्वनि की भी परम्परा चलती है, जो नाद कहलाती है । अकार यदि केवल गतिशील ही रहे तो कम्पन या स्पन्द नहीं होगा । कम्पन के लिये स्थिति भी चाहिए । आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी इस विषय में अपने निबंध शाक्त मार्ग का लक्ष्य—अद्वैत में लिखते हैं कि नाद ही गति है, बिन्दु ही स्थिति है । गति और स्थिति का विलास ही जगत् है । सो गति रूप-नाद सृष्टिकर्ता के लिये आवश्यक है, उसके साथ ही बिन्दु भी ‘म’कार, अनुस्वार या चन्द्रबिन्दु के रूप में ही तो बदलता है ।  लेखक आगे यह भी बताते हैं कि अ-उ-म इस तरह से पहला कम्पन हुआ और वह चलता रहा । वह समाप्त नहीं हुआ । उनके शब्दों में यह तो कम्पन है, चलता ही रहेगा । एक बार उठ कर बन्द हो गया तो फिर कम्पन कैसा ? अ-उ-म के  इस अक्षरत्रय का मिलित रूप है ‘ओम्’ । सच ही कहा है उन्होंने कि उठ कर बंद हो जाये तो फिर कम्पन ही कैसा और सत्यत: उस कम्पन की निरन्तरता आज भी वर्तमान है । इसलिये यह ओंकार, आचार्य द्विवेदी के अनुसार इस विश्व का आरम्भ है । इस प्रकार यह लक्षित होता है कि अकारादि अपने आप में वर्ण तो हैं ही साथ ही ये दृश्य-जगत् व भाव-जगत् के वाचक भी हैं ।  इस श्लोक में कवि के कथन का अभिप्राय है कि ॐ त्रिक् में बँटे हुए व्यस्त रूप से अवदधत् अर्थात् वर्णन करता है तथा त्रिक्र-रहित समस्त रूप से सूक्ष्म ध्वनियों द्वारा आप ही के अखण्ड स्वरूप का प्रकाशन करता है । नाद वर्ण रूप नहीं है, इसलिये उसे ध्वनि कहा । इस प्रकार वेदों, वर्णों, वृत्तियों, लोकों व देवों के दृष्टान्त से कवि अपने कथ्य को पुष्ट करता हुआ उसे बोधगम्य बनाने का भी उपक्रम करता है ।

स्तोत्रगायक पुष्पदन्तजी अब आगे अपने आराध्य के परम पवित्र स्वरूप को रेखांकित करते हैं, जिसका प्रतिपादन ॐकार करता है । वस्तुत: त्रयी विकृतिरूप है तथा तीर्णविकृति विकृति से परे है । तुरीयं ते धाम कह कर कवि परात्पर शिव के सर्वविकारातीत अखण्ड स्वरूप को प्रकाशित करते हैं । यह अखण्ड स्वरूप वेदत्रयी, अवस्थात्रय, भुवनत्रय, देवत्रय व अन्य किसी भी प्रकार के त्रिक् से सर्वथा परे है । यहां वे पूर्ण शिव हैं । तीर्ण शब्द तृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है पार करना । और तीर्ण से अभिप्रेत है पार किया हुआ । विकृति कहते हैं विकार को । इस तरह तीर्णविकृति शब्द बोध कराता है उसका जो विकार या विकृति से पार गया हुआ हो , उससे अतीत हो (अतीत शब्द केवल भूतकाल का ही व्यंजक नहीं है, अपितु इसका अर्थ परे गया हुआ, पार गया हुआ भी है ।) यहां विकृति शब्द भी ज्ञातव्य है । प्राय: विकृति या विकार शब्द से रूप, मन अथवा अभिप्राय का बदल जाना—ऐसा अर्थ लिया जाता है, उदाहरण के लिये चित्तविकृति । रूप में या प्राकृतिक अवस्था में होने वाले रूपान्तरण के लिये भी विकृति शब्द प्रयुक्त होता है । इसी तरह सर्वविकारातीत से अभिप्रेत है समस्त विकारों से परे, सम्पूर्णतया विकृति से रहित । यह हुआ तीर्णविकृति से तात्पर्य ।

गन्धर्वराज पुष्पदन्त तन्मय हो कर स्तुति का गायन कर रहे हैं । अब आगे वे पर से भी परे तुरीय धाम पर प्रकाश डालते हैं । तुरीयं ते धाम में धाम के कुछ अर्थ हैं स्वरूप, अवस्था व आवास आदि और ते यानि आपका । तुरीय का कोशगत अर्थ है चतुर्थ और यहां इससे त्रिपुटी से परे, अवस्थात्रय से परे और इतना ही नहीं परे से भी पूर्णतया परे का भाव गृहीत होता है । अतएव शिवचरणकमल में नत कवि का कहना है कि सभी प्रपंचों से परे ॐकार अणुभि: ध्वनिभि: अर्थात् परम सूक्ष्म ध्वनियों से आपके अखण्ड स्वरूप (तुरीय धाम) को बतलाता है । (अणु शब्द शास्त्रों में बार-बार आता है, जहां इसका अर्थ किया गया है ‘अत्यन्त अल्प परिमाण से युक्त’।) सूक्ष्म ध्वनियों से तात्पर्य यह है कि शब्द आकाश-तत्व का गुण है, जिसका वाहक वायु है । किंतु वायु द्वारा लाया गया शब्द वह नहीं, जो हम सुनते हैं । हमारे कान केवल ध्वनि-तरंगों को ग्रहण कर पाते हैं, लेकिन उनसे भी सूक्ष्मतर विद्युत-तरंगों को नहीं । हम वायु की तरंगों से आते हुए वैखरी शब्दों को ही केवल सुन सकते हैं । अत: शब्दों की कहें तो कोई भी शब्द भगवान शिव के तुरीय अथवा चतुर्थ धाम का सन्धान नहीं दे सकता । सच तो यह है कि तुरीय धाम किसी भी शब्दाभिव्यक्ति से परे है । इस परात्पर धाम का वाचक कोई शब्द यथार्थत: है ही नहीं । स्वामी काशिकानन्द गिरिजी के शब्दों में—

अदृष्टाव्यवहार्यात्प्रपंचोपशम शिवम्  ।
अद्वैतं परमं शान्तं चतुर्थ धाम  शाम्भवम्  ।।

अर्थात् तुरीय धाम अथवा चतुर्थ धाम प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, व्यवहार का विषय नहीं है । सभी प्रपंचों से पूर्णतया परे परात्पर शिव परम शान्त हैं । ॐकार इन्ही नित्यविभूति निरंजन शिव की अलख जगाता है ।

शरणागतवत्सल भगवान भोलेनाथ का सर्वाधिक प्रिय नाम ओम है । गन्धर्वराज पुष्पदन्त ने इस श्लोक में जगत् के उद्धारार्थ ॐकार का नानाविध निरूपण किया है । ॐ ही प्रणव है । प्रणवाश्रित हो कर की जाने वाली शिवोपासना मन को प्रक्षालित करती है तथा निर्मल आनन्द की मंगल पीठिका रचती है ।

श्लोक २६ अनुक्रमणिका श्लोक २८

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