महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक ७
Shloka 7अयि रणदुर्मदशत्रुवधाद्धुरदुर्धरनिर्भरशक्तिभृते
चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतदुरन्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
अयि रणदुर्मदशत्रुवधाद्धुरदुर्धरनिर्भरशक्तिभृते | ||
अयि | = | हे |
रणदुर्मदशत्रुवधाद्धुरदुर्धरनिर्भरशक्तिभृते | → | रण + दुर्मद + शत्रु + वधाद् + धुर + दुर्धर + निर्भर + शक्तिभृते |
रण | = | रणभूमि (में) |
दुर्मद | = | (हिंसा के) मद में चूर |
शत्रु | = | वैरी |
वधाद् | = | वध से, वध के कारण |
धुर | = | वर्धित, बढ़ी हुई |
दुर्धर | = | दुस्सह |
निर्भर | = | तीव्र, उग्र |
शक्तिभृते | = | (हे) धारण करने वाली |
चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते | ||
चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते | → | चतुरविचार + धुरीण + महाशय + दूतकृत + प्रमथाधिपते |
चतुरविचार | = | चतुराई भरे विचारों वाले |
धुरीण | = | अग्रणी, |
महाशय | = | पूज्य, श्रेष्ठ |
दूतकृत | = | दूत बनाये गये |
प्रमथाधिपते | = | (हे) प्रमथाधिपति अर्थात् भूतनाथ को दूत बनाने वाली देवी |
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतदुरन्तगते | ||
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतदुरन्तगते | → | दुरित + दुरीह + दुराशय + दुर्मति + दानवदूत + दुरन्तगते |
दुरित | = | अधम, पापी |
दुरीह | = | पाप- कामना से युक्त |
दुराशय | = | कुत्सित उद्देश्य वाले |
दुर्मति | = | दुर्बुद्धि व मैली बुद्धि वाले |
दानवदूत | = | दानवराज द्वारा भेजे गये दूत |
दुरन्तगते | → | दुर्+ अन्तगते |
दुर् | = | कठिनाई व बुराई सूचक शब्द (उपसर्ग) |
अन्तगते | = | अन्त तक पहुंचना, समझ पाना |
दुरन्तगते | = | जिसे समझ पाना कठिन हो (ऐसी हे देवी) |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
अयि रण दुर्मद शत्रु वधाद् धुर दुर्धर निर्भर शक्तिभृते (हे) चतुरविचार धुरीण महाशय दूतकृत प्रमथाधिपते (हे) दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत दुरन्तगते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
रणभूमि में हिंसा के मद में चूर वैरी-वध से बढ़ी हुई एवं दुस्सह व उत्कट शक्ति को धारण किये हुए हे देवी, भूतनाथ, जो विचक्षण बुद्धिशालियों में अग्रणी और सर्वश्रेष्ठ हैं, को दूत बना कर दौत्यकर्म सौंपने वाली (दैत्यराज के पास भेजने वाली), साथ ही अधम,पापेच्छा व कुत्सित प्रयोजन रखने वाले दुष्टबुद्धि दानवदूत जिन्हें (तनिक भी) समझ में न पाये, (जिनका तनिक भी थाह न पा सके) ऐसी हे माता, हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के पांचवें श्लोक में स्तुतिकार देवी को उग्र व उत्कट शक्ति से सज्जित बता कर सम्बोधित करता है । वह कहता है कि देवेश्वरी आविर्भूत हुईं हैं उन दैत्यों का अन्त करनेके लिये, जो दुर्मद हैं यानि रण के, हिंसा के उन्माद में मत्त हैं , धुत्त हैं । (वास्तव में) देवताओं के तेजांशों से देवी का आविर्भाव ही देवों कोआतंकित करने वाले उनके प्रबल शत्रु महिष असुर (महिषासुर) व उसके अन्य साथी असुरों को मारने के लिए हुआ था | देवी-भागवत में महिषासुर-वध की कथा के अनुसार देवी का आविर्भाव हुआ था देवताओं को महाभयंकर महिषासुरके त्रास से मुक्त कराने के लिए, जो कि वरदान पा कर दुर्धर्ष हो गया था । देवी के आविर्भाव पर सभी देवताओं ने अपने अपने तेज का अंश उन्हें प्रदान किया था, जिससे एक अत्यंत दीप्तिमान तेजपुंज प्रकट हुआ, भगवती के रूप में । उनकी अठारह भुजाएं थीं । तब सभी देवों ने उन्हें विविध आयुध व वस्त्राभूषण भी प्रदान किये । वे शत्रुओं के वध के लिए उदित (प्रकट) हुईं । दुस्सह व सदैव ओजमयी-तेजमयी शक्ति से सज्जित देवी को उद्धत और अधम असुर किसी भी भांति सह नहीं सकते थे, चाहे उनके हाथों में कोई भी आयुध हो । तेजोमयी देवी का सामना करने का सामर्थ्य वे न जुटा पाये । संग्राम में माँ रणचंडी बन कर दैत्यों का संहार करती हैं । वैरियों के वध के कारण अर्थात् उत्साहवर्धन के फलस्वरूप उनकी शक्ति और भी अधिक उग्र व उत्कट हो उठती है । शक्तिभृता यानि शक्ति धारण करने वाली, शक्तिशालिनी | इस प्रकार की ओजमयी शक्ति को, निर्भर अर्थात् उग्र शक्ति को धारण करने से माता शक्तिभृता कहलाईं । और सम्बोधन के कारण इसका रूप हो गया शक्तिभृते । देवी-भागवत की कथा के अनुसार अग्निदेव ने भगवती को शत्रुओं के संहार में सक्षम और मन के सदृश तेज गति करने वाली शक्ति प्रदान की थी । पूरी पंक्ति का अर्थ हुआ- प्रचण्ड-अनश्वर शक्ति से सज्जित व यद्धोन्मादी शत्रुओं के वध से उत्कर्ष को प्राप्त, उत्कट शक्ति से चण्डीरूपा हे देवेश्वरी !
इसके उपरांत अगली पंक्ति में देवी के द्वारा प्रमथनाथ अथवा भूतनाथ महादेव को दौत्य-कार्य (दूत का कार्य) के लिए भेजे जाने का संकेत देते हुए कहा गया है चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते अर्थात् चतुराई से विचारणा करने वालों में अग्रणी यानि प्रमुख हैं जो, ऐसे महाशय अर्थात् महाबुद्धिमान प्रमथाधिपति को अर्थात् गणों के अधिपति को अपना दूत बनाने वाली हे देवी ! प्रमथाधिपति शब्द का संधि-विच्छेद है प्रमथ + अधिपति, और इसमें प्रमथ शब्द का अर्थ है शिवजी के गण । यह भूत-प्रेत, भैरव, बेताल, कूष्माण्ड, गुह्यक आदि हैं, तथा अधिपति शब्द का अर्थ है स्वामी, नाथ, नियन्ता । इन गणों के स्वामी होने के कारण शिवजी को प्रमथाधिपति, प्रमथनाथ अथवा भूतनाथ कहा जाता है । यहां धुरीण शब्द भी विचारणीय है । इस शब्द का एक अर्थ जहां मुख्य व अग्रणी है वहां इसका एक और अर्थ है आवश्यक कार्यों में नियुक्त ! कुल मिला कर इस पूरे लम्बे शब्द का अर्थ है कि चातुर्यपूर्ण विचारणा करने वाले जनों में श्रेष्ठ एवं विचक्षण बुद्धि से युक्त, चतुर-चूड़ामणि भूतनाथ शिव को दौत्य-कार्य (दूत के कार्य) में लगाने वाली हे देवी !
शिवजी को दूत बना कर देवी द्वारा दैत्यराज शुम्भ के पास भेजने की कथा अति संक्षेप में इस प्रकार है । महान बलवाले दो भाई-शुम्भ-निशुम्भ अन्धक दानव के पुत्र थे । ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर वे घमंड से मद में चूर हो गए थे । दोनों भाइयों ने तीनों लोकों को प्राप्त कर लिया था । शुम्भ ने इंद्रत्व प्राप्त कर देवताओं को स्वर्ग तथा यज्ञभाग से दूर कर दिया था । इंद्र सहित सब देवगण हिमालय पर्वत पर गए व महामाया की स्तुति की । प्रसन्न देवी प्रकट हुईं व देवताओं से उनकी व्यथ-कथा सुनकर भगवती ने अपने शरीर से एक दूसरा रूप प्रकट कर दिया । देवी के काय-कोष से निकलने के कारण इन अम्बिका का नाम कौशिकी पड़ा । पार्वती के शरीर से देवी कौशिकी के निकल जाने से उनका शरीर क्षीण हो गया व पार्वती कृष्ण वर्ण की हो गईं और वे कालिका नाम से विख्यात हुईं । अंजन के समान काली दैत्यों के लिए महाभयंकर तथा भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली होने के कारण कालरात्रि भी कही गईं । लेकिन कौशिकी अत्यंत मनोहर व लाावण्यमयी थीं । उन्होंने देवताओं को उनकी कार्य-सिद्धि का आश्वासन दिया तथा सिंह पर सवार हो कर शुम्भ के नगर में कालिका के साथ जा पहुंचीं, जहां एक उपवन में मधुर गीत का गायन करने लगीं । एक त्रिभुवन-सुंदरी के आगमन का समाचार पा कर कामातुर शुम्भ ने प्रणय-संदेश देवी के पास अपने दूत के हाथ भेजा । देवी ने प्रत्युत्तर में उसे ललकारा व कुछ घटनाओं के बाद भयंकर युद्ध होता रहा ।
शुम्भ काम से पीड़ित हो कर देवी को अपने अधीन करने हेतु अपने दानव-योद्धाओं को रणस्थल में भेज कर भयानक युद्ध रच रहा था । उसकी चतुरंगिणी सेना के साथ संग्राम करने हेतु देवी रणभूमि में चली, तब ब्रह्मा आदि देवताओं की विभिन्न शक्तियां भी चण्डिका के पास पहुँच गईं । शिवजी भी उन शक्तियों के साथ वहां संग्राम में भगवती चण्डिका के पास आये व देवी से बोले कि देवताओं की कार्यसिद्धि के लिए आप शुम्भ-निशुम्भ व अन्य सब दानवों का संहार कर दीजिए । तब मंद मंद मुस्कान के साथ शक्ति ने शिव से कहा कि आप कामरिपु हैं, और शुम्भ कामपीड़ित है, अतः हे कामशत्रु ! शुम्भ के पास आप मेरे दूत बन कर जाइए और शुम्भ-निशुंभ से मेरे यह शब्द कहिये कि वे सब स्वर्ग त्याग कर तत्काल पाताललोक चले जाएँ, जिससे इंद्र के साथ देवगण स्वर्ग में चले जाएँ व अपना यज्ञभाग पुनः पा सकें । अथवा युद्ध की इच्छा रखते हों तो यहाँ मरने के लिए आ जाएं । देवी का यह सन्देश ले कर शिवजी दैत्यराज शुम्भ के पास गये । इस कारण देवी शिवदूती नाम से विख्यात हुईं ।
दुरित यानि अधम, दुरीह यानि दुष्ट इच्छा (पापेच्छा) या वासना वाले, दुराशय अर्थात् कुत्सित उदेश्य या प्रयोजन वाले, दुर्बुद्धि दानवदूतों का अन्त करने वाली के रूप में देवी को चित्रित करते हुए स्तुतिकार ने देवी को दानवदूतदुरन्तगते कह कर पुकारा, जिसका अर्थ हैदाननवदूत जिन्हें समझ न सकते थे । दु:+अन्त+गते यानि जिनके अंत तक गमन करना दुष्कर हो, सरल शब्त्दों में कहें तो जिनकी थाह पाना कठिन हो, ऐसी हे देवी !
हमने प्रस्तुत स्तोत्र के लिये मूलपाठ गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तक से लिया है, जो कि सर्वाधिक शुद्धि प्रामाणिक धार्मिक सामग्री उपलब्ध कराते हैं ।किन्तु अन्य स्थलों पर पाठ में तनिक भिन्नता पाई जाती है । कदाचित् मूलपाठ लेने का स्रोत उनका भिन्न हो । कई स्थलों पर दुरन्तगते के स्थान पर कृतान्तमते देखा गया है । अत: संक्षेप में उसकी व्याख्या का भी प्रयास हमने करना सही समझा है, जो इस प्रकार है । कृतान्त मृत्यु के देवता यमराज को कहते हैं । उन मूढ़ दैत्यों के प्रति भगवती की मति यमराज जैसी हुई । दूसरे शब्दों में कहें तो, मृत्यु को देने वाले देवता की तरह मृत्यु को देने वाला अटल संकल्प देवी ने किया, अर्थात् दानवदूतों का अंत करने पर कटिबद्ध व कृतसंकल्प वे हुईं । यह सम्बोधन देवी के लिए इसलिय प्रयोग में लाया गया, क्योंकि दैत्यराज शुम्भ ने देवी पर आसक्त हो कर अपना मन मैला कर लिया था तथा कुत्सित आशय (उद्देश्य) से अधम (नीच) और निर्लज्ज सन्देश माता के पास भेजा था अपने दूतों के हाथ । जब देवी ने घोर गर्जना के साथ उनके दैत्यराज के लिए यह प्रत्युत्तर दिया कि वह उस स्थान को छोड़ कर चला जाये या फिर युद्ध करने के लिय आ जाये तो वे दूत दुबारा देवी के पास बलप्रयोग करने के प्रयोजन से भेजे गये । देवी ने निर्ममतापूर्वक उनका अंत कर दिया । इसीलिए देवी को दानवदूतों के मरण के हेतु से यमराज-बुद्धि वाली अथवा कृतान्तमते कह कर पुकारा गया ।
अंत में आस्था से आपूरित कवि दैत्यनिषूदिनी देवी की जय जयकार करते हुए कह उठता है, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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प्रमथाधिपते का अर्थ भी संधि विच्छेद कर के व्याख्या में स्पष्ट करके लिखने की कृपा करें।
` प्रमथाधिपते `शब्द का अर्थ संधि-विच्छेद के साथ कर दिया गया है । सुझाव के लिए धन्यवाद । इति शुभम् ।