शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३६

Shloka 36 Analysis

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिका: क्रिया: ।
महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३६ ॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिका: क्रिया:
दीक्षा = व्रतादि दीक्षा धारण करने की क्रिया
दानम् = धन, गौ आदि का दान करना
तपस्तीर्थं तप: + तीर्थम्
तप: = तपस्या
तीर्थम् = तीर्थ सेवन करना
ज्ञानम् = ज्ञान
यागादिका: = हवन, यज्ञ आदि
क्रिया: = कर्म, क्रियाएं
महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्
महिम्न: = महिम्न स्तोत्र के
स्तवपाठस्य = स्तोत्र-पाठ की
कलााम् = कला के, अंश के
नार्हन्ति न + अर्हन्ति
= नहीं
अर्हन्ति = योग्य नहीं हैं, (तुल्य नहीं हैं)
षोडशीम् = सोलहवीं ((कला के)

अन्वय

दीक्षा दानम् तप: तीर्थम् ज्ञानम् यागादिका: क्रिया: महिम्न: स्तवपाठस्य षोडशीम् कलाम् न अर्हन्ति ।

भावार्थ

व्रत आदि दीक्षा, दान, तपस्या, तीर्थ-सेवन, ज्ञान, अर्थात् ज्ञानार्थ किये जाने वाले कर्म (साथ ही) यज्ञ-हवन आदि सभी क्रियाएँ महिम्न स्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं ।

व्याख्या

प्रस्तुत श्लोक में महिम्न स्तोत्र की महत्ता प्रतिपादित की गई है । रचनाकार ने कुछ धार्मिक व पुण्य कृत्यों का उल्लेख करके बताया है कि महिम्न स्तोत्र के पाठ इनसे इतना अधिक श्रेष्ठ है कि ये क्रियाएँ इस स्तोत्र की सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं हैं । यह कह कर वे अन्य पवित्र क्रियाओं का अनादर नहीं करना चाहते, केवल इस स्तोत्रपाठ की पवित्र महत्ता निरूपित करने के लिये ही ऐसा कहा जा रहा है ।

सर्वप्रथम  पवित्र क्रिया दीक्षा बतायी है । दीक्षा का कोशगत (शब्दकोश में दिया गया) अर्थ है किसी धर्म-संस्कार के लिये समर्पण, पवित्रीकरण । किसी विशेष उद्देश्य के लिये स्वयं को समर्पित करना या व्रतादि व अनुष्ठान के लिये संस्कारित होना वस्तुत: दीक्षित होना है । दीक्षित व्यक्ति को या शिष्य को अपने धर्म-संस्कार व संप्रदाय संबंधी आचरण व कुछ निश्चित कर्मों का संपादन नियमित रूप से करना आवश्यक होता है । न करने  पर सदाचार की कमी मानी जाती है । अपने गुरु से मन्त्र-दीक्षा लेना भी इसके अन्तर्गत आता है । शिवदीक्षित भक्तगण मन्त्र से अभिमन्त्रित भस्म को शास्त्रों द्वारा कहे गये अंगों पर लगाते हैं  व त्रिपुण्ड्र  धारण करते हैं ।

स्तोत्र में अगली धार्मिक क्रिया दान बतायी गई है । अपने स्वत्व (अधिकार) की वस्तु बिना किसी बदले की अपेक्षा किये किसी को सद्भाव से देना, उदारतापूर्वक धर्माचरण करते हुए पुरस्कार व उपहारादि देना दान है । दान धर्मार्थ दिया जाने वाला द्रव्य या वस्तु हो सकती है । इसमें देने की क्रिया है । जैसे शास्त्रों के कथनानुसार दान तो  सदैव  ही दिया जाना चाहिए, किन्तु विशेष पर्वों पर दान देने से व्यक्ति अक्षय पुण्य का भागी बनता है । और ऐसे अनेक अवसरों में से कुछ का नाम लिया जाये तो वे हैं, मकर-संक्रान्ति, अक्षय तृतीया आदि । विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ का मानना है कि दान देने से मन में सात्विकता के भाव का उदय होता है, और सात्विकता स्वर्गदायिनी है ।

स्तोत्रकार ने तप का भी उल्लेख किया है । स्वेच्छा से, न कि विवशतावश, कल्याणार्थ कष्ट सहना तपस्या है । समस्त सुख-सामग्री के रहते हुए भी उसका भोग न करके प्रसन्नता से उसका  त्याग करना तपस्या है । कृपणता नहीं है । कृपणता में वस्तु-सामग्री को बचाने की लालसामयी वृत्ति होती है, जबकि तपस्या में त्याग व तितिक्षा के गुण हैं । यह एक कड़ी व कष्टकर धार्मिक साधना है । आत्मोद्धार और लोककल्याण की उदात्त भावना तप में निहित है । स्वामी महेशानन्द गिरिजी महाराज अपनी रुद्र नामक पुस्तक में तप को विवेचित करते हुए बताते हैं कि स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसाहरितोषणात् अपने धर्म का पालन करने में जो अग्नि अपने को जलाती है, वह तपस्या है । तपस्वी सूर्य की भाँति जलता है और तेजस्वी होता है ।

तप के बाद गन्धर्वाचार्य पुष्पदन्त पवित्र क्रियाओं में तीर्थम् कहते हुए तीर्थसेवन अथवा तीर्थाटन को रेखांकित करते हैं । पवित्र स्थानों को तीर्थ कहा जाता है । नदी के किनारे, नदियों के संगम-स्थल या नदी का समुद्र से संगम, पर्वतीय प्रदेशों में देवालय आदि तीर्थस्थलों में आते हैं । तीर्थों में कार्यों एवं विशेष कार्यों को करने से उन कार्यों का महत्व अधिक हो जाता है । सामान्य स्थान में मन को एकाग्र करने हेतु बहुत प्रयास करने पड़ते हैं । तीर्थस्थलों में समायी हुई सात्विकता तथा वहाँ का सुरम्य वातावरण मन में धार्मिक भावों को प्रगाढ़ता देता है । श्रद्धालु जन तीर्थाटन करने के लिये कठिन यात्रा भी करते हैं  व स्नान-दर्शन के अलावा कथा-श्रवण, दान, जप, व्रत, होम एवं धार्मिक अनुष्ठानों जैसे अनेक शुभ कर्म करके तीर्थसेवनजनित पुण्य फलों की प्राप्ति करते हैं ।

प्रस्तुत श्लोक में धार्मिक क्रिया के रूप में ज्ञान को भी कवि ने बताया है, जिससे उनका अभिप्राय ज्ञान की साधनभूत क्रियाओं के करने से है, जैसे वेद, उपनिषद् व अन्य धर्म-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन, स्वाध्याय, शास्त्रविहित आचार-पालन, मुक्ति हेतु पवित्र प्रयास आदि । श्रीमद्भागवदगीता के चौथे अध्याय में भगवान् कृष्ण अर्जुन से ज्ञान के विषय में कहते हैं—सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते  अर्थात् सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में आकर समाप्त हो जाते हैं । यहां वे द्रव्य यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बता रहे हैं । भगवान् आगे कहते हैं कि श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त करके वह अविलम्ब परम शान्ति को प्राप्त होता है—ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति  ॥ कहीं कहीं पाठभेद से ज्ञानम् के स्थान पर स्नानम् लिखा हुआ देखने को मिलता है । उस स्थिति में तीर्थ-स्नान की पवित्रता व पुण्य अभिप्रेत है । विशेष अवसरों पर व  विशेष स्थलों में जाकर पवित्र नदी में स्नान करना विशेष पुण्य का कृत्य होता है, जैसे कार्तिक-स्नान, माघ-स्नान, कुम्भ-स्नान, गंगा-स्नान, नर्मदा-स्नान व त्रिवेणी-स्नान व अन्य तीर्थों में स्नान इत्यादि ।

अन्तिम धार्मिक क्रिया में गन्धर्वाधिपति यागादिका: क्रिया: कह कर यज्ञादि कर्मों का उल्लेख करते हैं । यज्ञ भारतीय संस्कृति की प्रमुख वैदिक क्रिया है, जिसमें अग्नि प्रज्ज्वलित करके यजन-योग्य पदार्थों की आहुति देवताओं के लिये दी जाती है । भारत की पुरातन काल से जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त संस्कारों की चली आती हुई जो परम्परा है, उसमें यज्ञ-अग्निहोत्र का अपना विशेष महत्व है । यजुर्वेद व ब्राह्मण ग्रन्थों में विविध प्रकार के यज्ञों का उल्लेख मिलता है । शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ को देवों की आत्मा कहा गया है व श्रेष्ठ कर्मों को भी यज्ञ की संज्ञा से अभिहित किया गया है—यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । सर्वव्यापी ब्रह्म का यज्ञ में प्रतिष्ठित होना भगवान् कृष्ण ने गीता में बताया है । यज्ञादि कर्मों से सात्विकता का प्रसार होता है व लोक-कल्याण में वृद्धि होती है । मनुष्य होम (हवन) कर्म करके पुण्य का अर्जन करता है ।

उपर्युक्त धार्मिक क्रियाओं को बताने से प्रस्तुत स्तोत्र के रचयिता का प्रयोजन है महिम्न स्तोत्र की महिमा को रेखांकित करना । उनका कहना है कि महिम्न:स्तवपाठ सर्वाधिक पुण्यदायी है । इसकी गरिमा का गान करने हेतु आरम्भ में वे दीक्षा, दान, तप, तीर्थ व ज्ञान एवं यागादिक क्रियाओं के विषय में बताते हैं, जिसका अभिप्राय है कि कि ये सभी धार्मिक क्रियाएं  सुखद हैं व सुफल की देने वाली हैं । तथापि ये महादेव के महिम्न स्तोत्र की सोलहवीं कला या अंश की कला के तुल्य भी नहीं हैं । उनका आशय अन्य को कम बताना नहीं है, अपितु यह निरूपित करना है कि इन स्वर्गदायिनी क्रियाओं से भी वह पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है जो इसके पढ़ने मात्र से होता है । वस्तुत: वरवर्षक भगवान् शंकर का यह प्रिय स्तोत्र है व शिवभक्त अविलम्ब इसके पाठ से आशुतोष की कृपा पाकर धन्य हो सकता है । इसे श्रेष्ठ बताने के पीछे निहित है लोकहित की शुभभावना । इस स्तव का पाठ करने वाला स्वयं तो पवित्र होता ही है अपितु अन्य को भी पवित्र करने वाला हो जाता है ।

श्लोक ३५ अनुक्रमणिका श्लोक ३७

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