महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक २२

Shloka 22

स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत् ।
प्रिया रम्या स निषेव्यते परिजनोsरिजनोsपि च ते भजेत् ।।

स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत्
स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत् स्तुतिम् + इमाम् + स्तिमित: + सुसमाधिना + नियमत: + यमत: + अनुदिनम् + पठेत्
स्तुतिम् = स्तोत्र का
इमाम् = इस
स्तिमित: = स्थिर रह कर,
सुसमाधिना = एकाग्र हो कर सद् चिन्तन से, तप से
नियमत: = नियमपूर्वक
यमत: = स्वयं पर नियंत्रण रख कर
अनुदिनम् = प्रतिदिन
पठेत् = पाठ करता है
प्रिया रम्या स निषेव्यते परिजनोsरिजनोsपि च ते भजेत्
प्रिया = पत्नी, प्रिय लगती है जो
रम्या = सुन्दरी (से)
स: = वह
निषेव्यते = सेवित होता है
परिजनोsरिजनोsपि परिजन: + अरिजन:
परिजनः = बन्धु-बान्धवगण, अनुचर वर्ग
अरिजन: = शत्रुपक्ष के लोग
अपि = भी
= और
ते = उसे
भजते = सम्मान देते हैं

अन्वय

इमाम् स्तुतिम् स्तिमित: सुसमाधिना (य:) नियमत: यमत: अनुदिनम् पठेत् स: रम्या प्रिया निषेव्यते च परिजन: अरिजन: अपि ते भजते ।

भावार्थ

जो मनुष्य निश्चल मन से (एकाग्र हो कर), अपनी इन्द्रियों का निग्रह करके (उनपर नियंत्रण करके) नियम से इस स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, वह मनोरमा प्रिया (पत्नी) द्वारा सेवित होता है । उस उपासक के परिजन व अरिजन भी उसका सम्मान करते हैं ।

व्याख्या

महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र के अन्तिम श्लोक में इसके पाठ की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए स्तुतिकार का कहना है कि जो कोई भी भक्तजन एकाग्रचित्त हो कर, दत्तचित्त हो कर अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए इस स्तोत्र का पाठ नियम से प्रतिदिन करता है, वह अतिशय सुख व सम्मान का भागी बनता है । कदाचित् इसलिये कि जगदम्बिका की ममता का प्रवाह उसकी ओर उमड़ता है व मुक्तहस्त से माता महामाया उसे भोगैश्वर्यों का कृपा-दान देती हैं । आगे कवि कहते हैं कि ऐसा मनुष्य रम्यशीला तथा पति-प्रसादन करने वाली पत्नी पा कर, उसका वल्लभ होकर व अपनी सानुकूल सहचरी द्वारा सेवित हो कर सुख-समृद्धि का भोक्ता बनता है । लक्ष्मी का वास ऐसे मनुष्य के घर पर बना रहता  है । इसके अतिरिक्त यह उपासक अपने परिवारजनों का पूज्य भी बनता है व स्नेह-सत्कार का सुख-सेवन करता है । यही नहीं उसके शत्रुजन भी उसका सम्मान करते हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ऐसे साधक की प्रशंसा व उसका प्रसादन-आराधन उसके शत्रु लोग भी करते हैं । इस तरह विभिन्न उपलब्धियों से सजा हुआ, भरा-पूरा जीवन जीते हुए साधक सर्वत्र समादर-प्राप्ति का अधिकारी बनता है ।

यहां एक बात और कहनी है । भगवती जगदम्बा को समर्पित यह स्तोत्र श्रीसंकटास्तुति: के नाम से भी अन्यत्र प्राप्त होता है । यह बात ध्यान रखने योग्य है कि संकट शब्द का अर्थ केवल विपदा अथवा आपदा ही नहीं होता, अपितु संस्कृत भाषा में संकट का अर्थ पहाड़ की संकीर्ण घाटी भी होता है । पर्वत-विषयक इसी अर्थ को लेकर पर्वतराज-पुत्री पार्वती को संकटादेवी भी कहा जाता है । इसके विपत्तिबोधक अर्थ में भी माता पार्वती संकटनाशिनी हैं ही तथा देवताओं को वे जगदम्बा भीमविक्रम दैत्यों से संकटमुक्त करती हैं, जिसका वर्णन इस स्तोत्र महिषासुरमर्दिनी में मिलता है ।

दूसरी बात यह भी कहने की इच्छुक हूं कि हमारे इस स्तोत्र के मूलपाठ का स्रोत है गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक देवीस्तोत्ररत्नाकर, और इसमें यह स्तुति श्रीसंकटास्तुति: के नाम से दी गई है । पहले अन्य स्थल से मूलपाठ को लिया था, किन्तु भिन्न-भिन्न स्थलों पर प्रकाशित पाठों में चिन्ताजनक अन्तर पाया गया । अत: धार्मिक ग्रंथों में सर्वाधिक प्रामाणिक मानी जाने वाली गीता प्रेस के प्रकाशन वाली पुस्तक का भगवती की कृपा-प्रेरणा से हमने अपने मूलपाठ के लिये चयन किया, जिसके लिये हम गीता प्रेस, गोरखपुर के आभारी हैं । यही कारण है कि प्राय: विभिन्न वेबसाइटों से पढ़ने वाले सुधी पाठकों को अन्य पाठों से इस पाठ में अन्तर दिखाई दे । हमने भी अपने पहले दिये गये श्लोकों में और उनके क्रम में तदनुसार परिवर्तन कर दिये हैं, और पुराने पाठकों को कुछ असुविधा हो सकती है, जिसके लिये हम क्षमाप्रार्थी हैं । हम आभारी हैं, उन पाठकों के, जिन्होंने बार-बार शब्दों के अन्तर पर हमारा ध्यान खींचा, फलत: सर्वाधिक शुद्ध पाठ की खोज अनिवार्य हो गई तथा माँ सुवाणी की महती कृपा से इसका परिणाम आपके सम्मुख है । जय माता की ।

–समाप्त —
श्लोक २१ अनुक्रमणिका

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2 comments

    • Kiran Bhatia says:

      भक्त-हृदय से छलकती भावों की रसाल धार शब्दों की आवश्यकता को स्वयं ही वारित कर देती है । सुधी पाठकों की सराहना हमारे लिये माँ सुवाणी का प्रसाद है । इति शुभम् ।

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