महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक १४
Shloka 14कमलदलामलकोमलकान्तिकलाकलितामलभाललते
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले ।
अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
कमलदलामलकोमलकान्तिकलाकलितामलभाललते | ||
कमलदलामलकोमलकान्तिकलाकलितामलभाललते | → | कमलदल + अमल + कोमलकान्ति + कलाकलित + अमलभाललते |
कमलदल | = | कमल की पंखुड़ी |
अमल | = | विशुद्ध, पवित्र, निर्मल |
कोमलकान्ति | = | मृदुल प्रभा |
कलाकलित | = | (चन्द्र की) कला को धारण किये हुए |
अमलभाललते | = | हे पवित्र ललाट-पटल (माथा) वाली (देवी) |
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले | ||
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले | → | सकल + विलासकला + निलय + क्रम + केलि + चलत् + कलहंस + कुले |
सकल | = | सम्पूर्ण |
विलासकला | = | मनोविनोद, क्रीड़ा, ललित कलाएं |
निलय | = | आवास, आश्रयस्थली |
क्रम | = | चाल, पग रखना |
केलि | = | क्रीड़ा, लीला |
चलत् | = | गतिशील |
कलहंस | = | राजहंस (के) |
कुले | = | हे कुलम् अर्थात् समुदाय से सुशोभित (देवी) |
अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले | ||
अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले | → | अलि + कुल+ संकुल + कुन्तलमण्डल + मौलि + मिलद् + बकुल + अलिकुले |
अलि | = | भ्रमर |
कुल | = | समुदाय |
संकुल | = | सघन |
कुन्तलमण्डल | = | केशराशि, केशकलाप |
मौलि | = | सिर, चोटी |
मिलद् | = | सटे हुए, सघन होना |
बकुल | = | मौलिश्री (के पुष्प) |
अलिकुले | = | हे भ्रमरों के झुण्ड (से युक्त देवी) |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
(हे) कमलदल अमल कोमलकान्ति कलाकलित अमलभाललते (हे) सकल विलासकला निलय क्रम केलि चलत् कलहंस कुले (हे) अलि कुल संकुल कुन्तलमण्डल मौलि मिलद् बकुल अलिकुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी के समान सुकुमार, उज्जवल आभा से, तथा (आपके शीश पर स्थित चंद्र की) कला से कान्तिमती है भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी और समस्त ललित कलाओं की आश्रय-स्थली एवं चाल-ढाल व पग-संचरण गरिमा से गुम्फित तथा राजहंसों के समुदाय से घिरी हुई हे देवी, आपके भ्रमरावली-से काले व सघन केशजाल पर बनी वेणी में गुँथे मौलिसिरी के पुष्पों से आकर्षित हो कर मँडराते हुए भ्रमर-समुदाय से युक्त हे देवी, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के चौदहवें श्लोक में स्तुतिकार ने देवी की चेष्टाओं में, उनके हावभाव में, सर्वांगसुंदर देह के क्रिया-कलापों में दिखती हुई कलात्मक छटा को, उनकी अंग-कांति की सुषमा को, उनके केश-वेश की विशिष्टता को, मोहकता को रेखांकित किया है । देवी के सर्वांगसुंदर देह की अंग-कांति की सुषमा की समानता कवि ने कमल जैसे पवित्र पुष्प की कोमल पंखुड़ी की सौम्य आभा से की है । कवि के शब्दों में कमलदलामलकोमलकान्ति अर्थात् कमल के पुष्प की निर्मल कोमल पंखुड़ी से निकलती हुई अमल और उज्जवल आभा के समान तथा आगे कहता है कलाकलितामलभाललते अर्थात् चन्द्र की कला से सुंदर ललाट को देदीप्यमान हो रहा है जिसका, ऐसी हे देवी । ललाट अथवा भाल को भाललता कहा गया है । संस्कृत भाषा में प्रायः कविगण देह के विभिन्न अंगों के रूप-वर्णन के समय उनके साथ, कुछ प्रत्यय जोड़ देते हैं, जैसे ललाट-पट, भुज-लता , मुख-मंडल, कंठ-कन्दली, कर्ण-कुहर, नासिक-पुट, कटि-तट आदि । यहाँ पर भाल के साथ लता को जोड़ कर बन गया भाललता । भाल कुछ आगे की ओर निकला हुआ होता है और दोनों कानों के ऊपर वाले हिस्से तक आकर पीछे की ओर मुड़ जाता है, इसी घुमावदार मोड़ के कारण भाल को भाललता (भाल रुपी बेल) कह कर पुकारा गया है । कलाकलितामल में दो शब्द हैं, कलाकलित तथा अमल । कलाकलित अर्थात् बड़ी कलात्मकता से, सूझबूझ से रचित और अमल अर्थात् मल से रहित यानि शुद्ध व पवित्र । सामान्यतया सुन्दर मुख को देख कर यह कहा जाता है कि विधाता ने अवकाश (फुर्सत) के क्षणों में, बड़े मन से इसे बनाया है । कुछ इसी प्रकार की ध्वनि कलाकलित शब्द से निकलती है, जिसका अभिप्राय है कि बड़ी कलात्मकता. बड़ी रचनात्मकता के साथ बनी हुई, अमल यानि विशुद्ध अथवा पवित्र यह भाललता है । देवी के अनेक रूपों में उनके शीश पर भी चन्द्र सुशोभित रहता है । देवी को सम्बोधित करते हुए कवि कहता है कि निर्मल कमल-पंखुड़ी की सुकुमार कांति व चन्द्रकला की सौम्य प्रभा से सुदीप्त सुन्दर भाललता से सोहती हुई हे देवी !
श्लोक की अगली पंक्ति देवी की क्रीड़ा-माधुरी के नेत्र-धन्य दर्शन कराती है । कवि आगे कहता है कि देवी की सभी क्रीड़ाओं में, उनके सकल हाव-भाव में, उनके चारुपगों के संचरण में विलक्षण गरिमा है, अपूर्व कलात्मकता हैं । उन्हें स्तुतिकार ने सकलविलासकलानिलय कहा है अर्थात् वे सकलविलास यानि सब प्रकार के मनोरंजन, हास-विलास, केलि एवं अभिनय व कला इत्यादि की निलय यानि निकेतन हैं । राग, रंग, रस से संयुत समस्त कलाएँ उन्हीं से उद्भूत हुई हैं तथा उन्हीं की आश्रयगता हैं । कलहंस राजहंस को कहते हैं । इनका मन्दालस (धीमा) संचरण, इनका कलस्वर, इनकी केलि अर्थात् क्रीड़ा सभी कुछ सौम्य-सरस होता है । किन्तु देवी की चलत्केलि अर्थात् उनका गतिमय क्रीड़ाविहार, उनकी मन्थर चाल-चेष्टा सर्वथा व सर्वदा उन राजहंसों के समुदाय से कहीं बढ़-चढ़ कर मंजुल व मनोहर है । यह कलहंसकुल अर्थात् राजहंसों का समुदाय देवी के केलि-विलास में, उनके रसविहार में, मुखर हो कर उनका साथ दे रहा है । वे अपने पूरे लालित्य के साथ शोभाशालिनी देवी को घेरे हुए हैं । यह है पूरे पवित्र दृश्य की सौन्दर्यश्री । अतएव देवी को केलिचलित्कलहंसकुले कह कर गन्धर्वराज ने पुकारा ।
अगली पंक्ति में कवि देवी के केश-कलाप के विषय में कहता है कि उनकी वेणी पर शोभित मौलिसिरी के पुष्पों पर सुगन्ध से आकृष्ट हो कर भ्रमरवृन्द मंडरा रहा है । भ्रमरों के संघटित समुदाय-सा श्यामल है देवी का उत्तमांग अर्थात् शीश व उस पर शोभित केशजाल । तात्पर्य यह है कि देवी की केशराशि कृष्ण है साथ ही सघन भी, इसलिये कवि अलकराशि को अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डल कहता है । अलि यानि भ्रमर, कुल शब्द समुदाय का सूचक है । संकुल यानि सघनता से पूरित, खचाखच भरा हुआ, यह शब्द भीड़ तथा घेराव के भाव की व्यंजना करता है । कुन्तल यानि केश व मण्डल यानि पटल । इस पूरे शब्द का अर्थ है केशजाल या केशपटल । अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डल से अभिप्रेत है भौंरों की भीड़ से भरा हुआ-सा प्रतीत होता हुआ, सघन व काला केशपटल । अब इसके आगे का वर्णन है मौलिमिलद्बकुलालिकुले अर्थात् इस सघन व कृष्ण केशजाल की मौलि पर, अर्थात् चूड़ा अथवा चोटी पर, गुँथी हुई वेणी पर शोभायमान हो रहे बकुल यानि मौलिसिरी के पुष्प, जिन पर मिलद् अर्थात् एकत्रित होता हुआ भ्रमरों का कुल है यानि उनका झुण्ड अथवा वृन्द है । कुल मिला कर यह कहा जा रहा है कि भ्रमर-झुण्ड से भरे लगते हुए कृष्ण केशों की चोटी पर बनाई गई वेणी पर गुम्फित मौलिसिरी के पुष्पों पर जमावड़ा है भ्रमर-समूह का । स्पष्ट है कि रस के रसिक भ्रमर मधुपूरित पुष्पों पर ही मंडराते हैं, अतएव वेणी में गुम्फित फूल सद्यविकसित (ताजे-ताजे खिले हुए) प्रतीत होते हैं, जिन्हें मकरंद-पान के प्रेमी मधुपों ने घेर रखा है । बकुल यानि मौलिसिरी के पुष्पों को मौलिश्री भी कहते हैं । इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ हुआ जिनके काले-सघन केशजालवाले शीश की वेणी भ्रमरावली से आवृत मौलिसिरी के प्रसूनों से प्रसाधित हैं, ऐसी हे देवी । और अन्त में कवि कहते हैं कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !
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nice background
धन्यवाद ।