शिवसंकल्पसूक्त
संक्षिप्त परिचय
Shiva Sankalpa Sukta – An Overviewछह मन्त्रों वाला शिवसंकल्पसूक्त शुक्ल यजुर्वेद का अंश (अध्याय ३४, मन्त्र १-६) है । यह छह मन्त्र अपनी संरचना और संदेश में इतने सारगर्भित व भावपूरित है कि इन्हें स्वतंत्र रूप से एक उपनिषद् की मान्यता भी दी गई है । इस प्रकार शिवसंकल्पसूक्त को शिवसंकल्पोपनिषद् के नाम से भी जाना जाता है । यहाँ शिव संकल्प से तात्पर्य शुभ संकल्प, श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी संकल्प से है। इन मन्त्रों में मनुष्य को ईश्वर से प्राप्त `मन` नामक दिव्य ऊर्जा के अद्भुत सामर्थ्यों का वर्णन है ।
मन के संबंध में पातंजलि योगसूत्र में लिखा गया है कि प्रत्येक मनुष्य को जिस प्रकार स्थूल अस्तित्व के रूप में देह मिली है, उसी प्रकार सूक्ष्म अस्तित्व के रूप में उसे मन मिला है तथा कारण अस्तित्व के रूप में आत्मा प्राप्त हुई है । दार्शनिकों ने मन को छठी इन्द्रिय कहा है और यह छठी इन्द्रिय अन्य इन्द्रियों से कहीं अधिक प्रचण्ड है । मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ज्योतिस्वरूप है । वैदिक ऋषियों ने मनुष्य के ह्रदय-गुहा में स्थित इस ज्योति को देखा व पहचाना है । श्रद्धेय विनोबा भावे ने अपनी पुस्तक महागुहा में प्रवेश में कहा है:
“मनुष्य के द्वारा जो कुछ होता है, वह मन के द्वारा ही होता है । तो जिसके द्वारा काम होता है, वह एजेंसी अगर बिगड़ी हुई हो, तो सारा काम बिगड़ जायेगा । आंख अच्छी है, लेकिन मन ख़राब है, तो देखने का काम अच्छा नहीं होगा । इस प्रकार यद्यपि कर्म इन्द्रियों द्वारा होता है, तो भी कर्म का अच्छा या बुरा होना मन पर निर्भर करता है । इसलिये अपना मन क्या है, यह देखना, उसका परीक्षण करना बहुत जरुरी है ।”
स्वामी करपात्रीजी महाराज का कथन है:
अर्थात् पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है, फिर वैसा ही बन जाता है । उनके अनुसार कर्म का आधार मन में उठने वाले विचार है । भारतीय वाङ्गमय में मन एवं उसके निग्रह पर मनीषियों ने बहुत कुछ कहा है । शिवसंकल्पसूक्त का संबंध भी मन से है । ईश्वर से की गई अपनी प्रार्थनाओं में वैदिक ऋषि कहते हैं कि वह उन्हें शारीरिक तथा वाचिक ही नहीं अपितु मानसिक पापों से भी दूर रखें । उनके मन में उठने वाले संकल्प सदैव शुभ व श्रेयस्कर हों । मनुष्य का मन अपूर्व क्षमतावान् है, उसमें जो संकल्प जाग जाएं, उनसे उसे विमुख करना बहुत कठिन कार्य है । इसीलिए ऋषि मन को शुभ व श्रेष्ठ संकल्पों से युक्त रखने की प्रार्थना करत्ते हैं ।
— | अनुक्रमणिका | पहला श्लोक |
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शिव संकल्प मन या मनका विकारौका निरिक्षण करके मन वह चित्तकी शुद्धि करने का मन्त्र है या इश्वर की स्तुति और वह स्तुतिके बलपर पुरुषोत्तमको प्राप्त करनेका है ?
कृपया स्पष्ट करे महोदय ?
आदरणीय महोदय, अपनी अल्प मति से मैं यह समझती हूँ कि ईश्वर-प्राप्ति कृपा-साध्य है, क्रिया-साध्य नहीं । और मन को शुद्ध किये बिना ईश्वर की प्रसन्नता कहाँ ? मेरी बौनी बुद्धि जितना शिवसंकल्पसूक्त को हृदयंगम कर पाई है उसके अनुसार मैं समझती हूँ कि शिव संकल्प अर्थात् शुभ, कल्याणकारी संकल्प चित्तशुद्धि देने में सहायक व समर्थ हैं एवं शुद्ध चित्त स्वयं परमात्मा की प्रसन्नता का प्रसाद साधक को लब्ध कराता है । रामचरितमानस में श्रीराम विभीषण से कहते हैं कि “निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा” ।
जीव ईश्वर का ही व्यष्टि रूप है, अत: वह सदा संकल्प अथवा इच्छा-शक्ति के साथ जन्म लेता है ।अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर सर्वज्ञ व जीव अल्पज्ञ है । शुभ संकल्प मनुष्य की इच्छा को सदिच्छा (सद् + इच्छा) का रूप देकर उसे अपने और दूसरों के प्रति कल्याणकारी कर्मों की ओर प्रवृत्त करते हैं । अपने संकल्प के अनुरूप कर्म करता हुआ मनुष्य अपना संसार भी वैसा ही रच लेता है । ऋषि-मुनि, योगी-यति व तपस्वी जन सर्वोत्तम संकल्पबल की निष्ठा से ब्रह्मविद्या प्राप्त कर ब्रह्म से एकमेक हो जाते हैं ।
इस प्रकार ‘शिवसंकल्पसूक्त’ चित्त को शुद्ध करने के उद्देश्य से परमात्मा से की गई प्रार्थना है । इति शुभम् ।
ज्ञानदीप्त किरण भगिनी !
वेद के छन्दों को “श्लोक नहीं ”
मन्त्र लिखने की महरबानी करो।
धन्यवाद ।
कीरण भाटीया दिदी.. जय श्रीकृष्ण
वेदोके रचनाको ऋचा/अनुवाका कहते हैl आपने शिवसंकल्प सूक्तका बडा सुंदर सार बताया हैl मन बहोत चंचल है,उसको संकल्प विकल्प लगे रहते है, वोही इंद्रीयो द्वारा काम करवाता है इसलीए उसे पवित्र संकल्पमे रखना बहोत जरूरी है l मन,बुध्दि,चित्त व अहंकार ये मनुष्यके अंत:करणकेही ४ प्रभाग है जिसे अंतकरण चतुष्टय कहते हैl अहंकार छोडकर,निश्चयात्मक बुध्दी रखते हुए,मनके पवित्रसंकल्प द्वारा.. चित्तको परम समाधान व शांती प्राप्त होती हैl हरि:ॐ
आदरणीय मिलिन्दजी, जय श्रीकृष्ण ! धन्यवाद ।