श्रीहनुमानचालीसा
चौपाई २
Chaupai 2 Analysisराम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥ २ ॥
राम दूत अतुलित बल धामा | ||
रामदूत | = | राम का सन्देश ले जाने वाले |
अतुलित बल धामा | = | अतुल बल के धाम |
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा | ||
अंजनि-पुत्र | = | माता अंजनि के पुत्र |
पवनसुत | = | पवनपुत्र |
नामा | = | नाम वाले |
भावार्थ
आप रामजी के दूत हैं । आपके बल की कोई तुलना नहीं है । आप अतुल बल के धाम हैं । आप माता अंजनि के पुत्र हैं और पवनपुत्र आपका नाम है अर्थात् पवनपुत्र नाम से आप जाने जाते हैं ।
व्याख्या
हे अतुल बल के धाम हनुमानजी अर्थात् हे हनुमानजी ! आप अतुल बल के भंडार हैं । अतुलित का अर्थ है जिसकी तुलना न की जा सके किसी के साथ । बल यानि शक्ति तथा धाम का अर्थ है घर, सदन अथवा आश्रय-स्थान । अतुलित बल धामा कहने से तात्पर्य है कि आप अद्भुत् और महाबलशाली हैं, ओज और बल का आप भण्डार हैं । श्रीरामचंद्र की मुद्रिका व उनका संदेश लेकर माँ जानकी के पास लंका में गये थे । आप चतुर रघुपतिदूत हैं, एक सजग संदेशवाहक हैं ।
तुलसीदासजी हनुमानजी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि आप माता अंजनि के लाल हैं । हनुमानजी की जन्मकथा के अनुसार माता अंजनि ने रुद्र के ओज (वीर्य) को पवनदेव के स्फुरण व संस्पर्श से प्राप्त किया जिससे रुद्रावतार हनुमानजी का जन्म हुआ, अत: वे पवनपुत्र भी है । और इस दोहे की दूसरी पंक्ति में गोस्वामी तुलसीदास उन्हें अंजनि-पुत्र एवं पवनपुत्र कह कर पुकारते हैं । उनमें पवनदेव के गुण व उनकी शक्तियां हैं— जैसे क्षोभकारक तथा संहारक शक्ति, गति वेग और पराक्रम व अन्य अनन्त । वैदिक ऋषि तो पवन अथवा वायु को विश्वभेषज: पुकारते हुए वेदों में स्तुति करते हैं, जिसका तात्पर्य है कि वायु सबकी, समस्त विश्व की औषधि है । रामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में जाम्बवन्तजी हनुमानजी से कहते हैं कि पवनतनय बल पवन समाना । सच तो यह है कि वायुरूप होने के कारण वे सर्वत्र सहज रूप में विद्यमान हैं । हम जो श्वास लेते हैं, वह भी तो वायु है । वायुरूप कहें या पवनरूप, वे हर समय हमारे साथ ही होते हैं, चाहे उनका भौतिक वेश किसी भी प्रकार का हो । केवल हमें इस बात की अनुभूति या प्रतीति नहीं रहती कि हम श्वास ले रहे हैं, उसी प्रकार हमारे भीतर इस बात के प्रति जागरूकता भी नहीं आती कि वे वायुपुत्र सदैव हमारे साथ ही बने रहते हैं तथा उनके बिना जीवन ही संभव नहीं । गोस्वामीजी इस दोहे में अपने आराध्य का भिन्न-भिन्न नामों से उनका पावन स्मरण करते हैं ।
किसी कार्य के प्रारम्भ में व यात्रा के आरम्भ में श्रीहनुमत्स्मरण को हमारे धार्मिक ग्रन्थों में परम मंगलकारी माना गया है । तुलसीदासजी के तो वे आराध्य भी हैं । इस प्रकार वे श्रीहनुमानचालीसा के आरम्भ में हनुमानजी का शुभ स्मरण करते है ।
चौपाई १ | अनुक्रमणिका | चौपाइ ३ |