शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३७

Shloka 37 Analysis

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज:
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥ ३७ ॥

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज:
कुसुमदशननामा = कुसुमदशन नामक
सर्वगन्धर्वराज: = गन्धर्वाधिपति
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दासः
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य शिशुशशिधरमौले: + देवदेवस्य
शिशुशशिधरमौले: = शीश पर बालचन्द्र धारण करने वाले (महादेव का)
देवदेवस्य = देवाधिदेव का
दासः = सेवक, गण (था)
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स: = वह
खलु = सचमुच ही
निजमहिम्न: = अपनी विभूति (गन्धर्वपद) से
भ्रष्ट: = गिर गया
एवास्य एव + अस्य
एव = ही
अस्य = उनके (महादेव के)
रोषात् = कोप से
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न:
स्तवनमिदमकार्षीद् स्तवनम् + इदम् + अकार्षीत्
स्तवनम् = स्तोत्र को
इदम् = इस
अकार्षीत् = रचा
दिव्यदिव्यम् = परम दिव्य (स्तोत्र को)
महिम्न: = (शिव) महिमा के

अन्वय

शिशुशशिधरमौले: देवदेवस्य दास: कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: अस्य रोषात् खलु निजमहिम्न: भ्र्ष्ट: स: एव महिम्न: इदम् दिव्यदिव्यम् स्तवनम् अकार्षीत् ।

भावार्थ

शीश पर बालचन्द्रधारी देवाधिदेव महादेव का पुष्पदन्त नामक सेवक गन्धर्वाधिपति था । वह भगवान् शिव के कोप से अपनी विभूति (गन्धर्व को प्राप्त शक्तियों) से च्युत हो गया । तब उसने शिवजी की महिमा के इस परम दिव्य स्तोत्र को रचा (व अपने खोये हुए ऐश्वर्य को प्राप्त किया) ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के इस श्लोक में इस अतीव दिव्य स्तोत्र के रचे जाने का कारण प्रकाश में आता है । वस्तुत: शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के साथ एक कथा जुड़ी है , जिसे पाठक दो शब्द शीर्षक के अन्तर्गत दी गई प्रस्तावना में विस्तृत रूप से पढ़ सकते हैं । कथा के अनुसार गन्धर्वराज पुष्पदन्त जो शिवजी के गण अथवा सेवक थे, वे अदृश्य रहते हुए आकाशमार्ग से कैलाश जाते समय अपने आराध्य महादेव की अर्चा हेतु राजोद्यान से पुष्प चुरा लिया करते थे । बहुत प्रयासों के बाद भी चोर का सन्धान न पाने पर उद्यापनथ पर शिव-निर्माल्य बिछा दिया गया, जिससे कि उसका उल्लंघन करने पर  चोर शिवकोप का भागी बनेगा व पकड़ा जायेगा । हुआ भी वही । पथ पर महादेवी को चढ़ाये गये बेलपत्रों की बिछावन से अनभिज्ञ पुष्पदन्त अदृश्उय रह कर उनका उल्लंघन करते हुए शिवजी के कोप का भाजन बने व अपने अपराध के कारण शिवलोक से अपनी गन्धर्वोचित विभूति अथवा विशेष शक्तिमत्ता खोते हुए गन्धर्वपद से गिर गये । तब विकल होकर कातर स्वर में उन्होंने भगवान् शिव की महिमा गाते हुए स्तुति की । आशुतोष प्रसन्न होकर अपने आर्त्त सेवक के सम्मुख तभी प्रकट हुए । यही परम पवित्र स्तुति शिवमहिम्न स्तोत्र है । क्षमाक्षेत्र भगवान् ने गन्धर्वराज को उनकी दिव्य शक्तियां व गन्धर्वपद लौटाया । साथ ही यह भी वरदान दिया कि “तुम्हारे द्वारा की गई यह स्तुति अब सिद्ध हो गयी । इससे जो मेरा स्तवन करेगा, वह मेरा प्रिय होगा ।” यहां इसी कथा को संकेतित किया गया है ।

प्रस्तुत श्लोक के प्रथम पाद में कुसुमदशननामा शब्द का अर्थ है कुसुमदशन नाम वाला और इस नाम से अभिप्रेत है पुष्पदन्त, क्योंकि कुसुम का अर्थ है पुष्प तथा दशन का अर्थ है दन्त । द्वितीय पाद अर्थात् दूसरी पंक्ति में महादेव के लिये शिशुशशिधर शब्द प्रयुक्त हुआ है,  शिशु से तात्पर्य है बालरूप तथा शशिधर से तात्पर्य है शशि अर्थात् चन्द्र को धारण करने वाले व शशिशशिधर से विवक्षित है बालचन्द्र अथवा द्वितीया के चन्द्र को धारण करने वाले । कहीं-कहीं पाठभेद से शिशुशशधर लिखा हुआ मिलता है । शशधर का अर्थ है शश अर्थात् ख़रगोश को धारण करने वाला यानि चन्द्र । शिशुशशधर का अर्थ हो गया बालचन्द्र तथा मौलि अर्थात् शीश । इस प्रकार से शिशुशशधरमौलिका अर्थ होता है बाल-शशधर को शीश पर धारण करने वाले भगवान् ।  देवदेवस्य दास:  से अभिप्रेत है देवाधिदेव का गण, दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी सेवा करने वाला । अन्तिम दो पाद इससे जुड़ी कथा का संकेत देते हैं, जिसे संक्षेप में ऊपर वर्णित किया है । गन्धर्व कवि बताते हैं कि महादेव के रोष से निज महान् पद अथवा दिव्य ऐश्वर्य से भ्रष्ट होकर महादेव के कुसुमदशन नामक दास ने शिवजी की महिमा के इस परम दिव्य स्तोत्र को रचा है ।

कवि के द्वारा महिम्न स्तोत्र को दिव्यदिव्यम् बताया गया है । उनका इस प्रकार इसे परम पवित्र बताया जाना इस स्तुति को लेकर शिवजी की प्रसन्नता को उद्घाटित करता है । क्योंकि ऊपर वर्णित कथा का अन्त भगवान् आशुतोष की प्रसन्नता से होता है । स्तोत्र के साथ जुड़ी हुई कथा के अनुसार भक्तों पर वरदान-वर्षा करने वाले प्रभु पुष्पदन्त से प्रसन्न होकर उन्हें वर देते हैं कि जो कोई भी शिवमहिमा के इस परम पवित्र स्तोत्र का पाठ शुद्धान्त:करण से नियमित रूप से करेगा, वह मेरा प्रिय होगा ।  यह है करुणावरुणालय भगवान् शिव की अपार महिमा व उनकी अनिर्वचनीय महिमा का गुणगणानुवाद करता है गन्धर्वाधिपति रचित शिवमहिम्न:स्तोत्रम् 

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