शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक १२

Shloka 12 Analysis

अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात्कैलासेsपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।
अलभ्य पातालेsप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ।। १२ ।।

अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
अमुष्य = वह, उस (रावण) को
त्वत्सेवासमधिगतसारं त्वत् + सेवा +समधिगत + सारम्
त्वत् = आपकी
सेवा = आराधना (से), आश्रय लेना, परिचर्या, सम्मान
समधिगत = प्राप्त की हुई
सारम् = शक्ति, बल, सामर्थ्य
भुजवनम् = वन के समान अगम्य, अजेय बाहु, अपराजेय बाहुबल
बलात्कैलासेsपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत:
बलात्कैलासेsपि बलात् + कैलासे + अपि
बलात् = हठपूर्वक
कैलासे = कैलाश (पर्वत) पर
त्वदधिवसतौ त्वत् + अधिवसतौ
त्वत् = आपके
अधिवसतौ = निवासस्थान पर
विक्रमयत: = आज़माने वाला, शक्ति दिखाने वाला
अलभ्य पातालेsप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
अलभ्य = न पा कर
पातालेsप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि पाताले + अपि + अलस+ चलित + अंगुष्ठशिरसि
पाताले = पाताल लोक में
अपि = भी
अलस् = ज़रा-सा, तनिक
चलित = चला अथवा दबा देने से
अंगुष्ठशिरसि = अंगूठे के अग्रभाग से
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल:
प्रतिष्ठा = ठहराव, टिकने का स्थान
त्वयि = आपके
आसीद् = था (टिकने का स्थान लब्ध न हुआ था)
ध्रुवमुपचितो ध्रुवम् + उपचित:
ध्रुवम् = अवश्य ही, सचमुच ही
उपचित: = समृद्ध पाने वाला या पा कर
मुह्यति = भ्रमित हो जाता है, उपकार भुला देता है
खल: = अधम, दुष्ट

अन्वय

त्वत् सेवा समधिगत सारम् भुजवनम् त्वत् अधिवसतौ कैलासे अपि बलात् विक्रमयत: अमुष्य त्वयि अलस चलित अंगुष्ठशिरसि पाताले अपि प्रतिष्ठा अलभ्या आसीत् । ध्रुवम् उपचित: खल: मुह्यति ।

भावार्थ

आपकी सेवा-पूजा करने के फलस्वरूप प्राप्त किये अथवा अर्जित किये गये अजेय भुजाओं के बल-वीर्य से आपके निवासस्थान कैलाश पर भी अपने पराक्रम का हठपूर्वक प्रदर्शन करने वाले उस रावण को, आपके द्वारा (पैर के) अंगूठे के अग्रभाग से तनिक ही दबा भर देने से, पाताल लोक में भी टिक पाने के लिये स्थान लब्ध न हुआ । दुष्ट व्यक्ति ऊपर उठ जाने पर (समृद्धि पा लेने पर) भरमा जाता है अथवा कृतघ्न हो जाता है ।

व्याख्या

राक्षस-शार्दूल, लंकापति रावण भगवान शिव का परम आराधक था । अपनी नैष्ठिक शिव-भक्ति से उसने महादेव को प्रसन्न करके उनसे अक्षय, अपार और अजेय शक्ति-सामर्थ्य को अर्जित किया था, जिसके घमण्ड में वह सदा चूर रहता था व अन्य सभी को तृणवत् तुच्छ समझता था । इसीलिये भगवान शिव की स्तुति करते हुए गन्धर्वराज अपने आराध्य महादेव से कहते हैं कि त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनम् जिसका अर्थ है त्वत्सेवा अर्थात् आपकी सेवा से समधिगत यानि प्राप्त, तथा सारम् यानि बल-सामर्थ्य  तथा भुजवनम् से अभिप्रेत अर्थ है भुजबल या बाहुबल, दूसरे शब्दों में भुजा रूपी वन । भुजाओं के साथ वन शब्द का प्रयोग संस्कृत में प्राय: देखा जाता है, जो अत्यंत सशक्त बाहुबल का बोध कराता है । वन-प्रदेश हिंसक जन्तुओं से भरे हुए व दुर्गम होते हैं तथा वन अनेक तरह से भयोत्पादक व भ्रमोत्पादक होते हैं । यही सब बातें सामान्यतया बाहुबल पर भी घटित होती हैं । वन की तरह भुजबल भी आतंकित करता है । रक्षाधिपति रावण से वनवासी व जनपदवासी संत्रस्त रहते थे । अपने तप:प्राप्त विपुल व अपराजेय बल से उसने त्रिलोकी को संतप्त कर रखा था । इसके अलावा साधारण मनुष्य की दो भुजाएँ होती हैं, किन्तु दशानन बीस बलिष्ठ व पुष्ट भुजाओं से भूषित एक महाभट (महायोद्धा) था । और त्रिलोकी को त्रास देने वाली यह भुजाएं भयंकर वन की भाँति भीति  उत्पन्न करतीं थीं । अत: भुजवनं शब्द-प्रयोग यहाँ सार्थक है । सेवा शब्द सेव् धातु से निष्पन्न है, जो भक्ति, परिचर्या, प्रसादना, सेवा व दर्शन आदि अर्थों की अभिव्यंजना करता है । रावण के अहंकार की पराकाष्ठा यह थी कि जिनके अनुग्रह से अकूत संपदा तथा अतुल्य सामर्थ्य का वह स्वामी बना था, उन्हीं महादेव की महिमा को अपनी मदान्धता में वह अनदेखा कर देता है । अत: कहा कि त्वत्सेवा अर्थात् आपकी पूजा-परिचर्या से, आपकी प्रसन्नता के प्रसाद से समधिगत अर्थात् प्राप्त सारम् यानि बल-वीर्य (के वरदानों) से अमुष्य यानि वह, तात्पर्य यह कि अमुष्य रावण अर्थात् वह रावण प्रभूत पराक्रम से संपन्न हुआ ।

रावण रौद्रतेज पा कर हठात् रुद्र के आगे ही अपनी रणकण्डु (रण की चाह में खुजलाने वाली) भुजाओं के उद्धत प्रदर्शन की धृष्टता करने लगा । कवि के शब्दों में बलात्कैलासेsपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: । स्तुतिकार कहना चाहते हैं कि रावण ने निर्लज्जता के साथ मर्यादा को अतिक्रान्त करके हे भोलेनाथ आपके निवासनिलय कैलाश को भी अपनी वज्रभुजाओं से उठा लेने की हठपूर्वक चेष्टा की । प्रसंग यह था कि धनाधिपति कुबेर को हरा कर उससे उसका पुष्पक विमान, जो मन की गति से उड़ता था, छीन कर विजयोन्माद में मतवाला रावण जब आकाशमार्ग से जा रहा था, तब हिमालय पर विमान की गति अवरुद्ध हो गई । भगवान शिव के निकेतन कैलाश पर्वत पर शिव के गणाध्यक्ष नन्दीश्वर के रोकने पर भी अपने अहंकार से भरा रावण नन्दी से लड़ गया व उसे परास्त कर शिव के सम्मुख स्वयं को दुर्धर्ष एवं महाप्रतापी समझता हुआ सीधा जा पहुँचा । शिव के नैष्ठिक उपासक रक्षेन्द्र रावण ने शिव के निकेतन कैलाश को अपनी वज्र-भुजाओं से उठा लेने की निर्लज्ज चेष्टा की । उसकी दुर्विनीत चेष्टा पर मन्द हास बिखेरते हुए महादेव ने अपने पैर के अंगूठे के अग्रभाग से तनिक उस स्थल को दबा दिया । और तब अमित विक्रम के स्वामी उस रावण के हाथ पर्वत के नीचे दब गये व वह नीचे ही नीचे धँसता चला गया तथा कहीं पर भी ठहर पाने में अक्षम हो गया । यहाँ तक कि पाताल में भी रुक पाना उसके वश में न रहा । अलभ्यपातालेsप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि कह कर पुष्पदन्त इसी प्रसंग का उल्लेख कर रहे हैं । अंगुष्ठशिर   अंगूठे के आगे के भाग को कहते हैं तथा अलस का अर्थ हे तनिक-सा और चलिताम् चला देने अथवा दबा देने का भाव व्यक्त करता है । (इसके आगे के आख्यान के अनुसार रावण शिव की स्तुति गा कर आशुतोष भोलेनाथ को प्रसन्न कर उनके कृपा-प्रसाद को पाकर इस संकट से मुक्त होता है ।और उसकी यही स्तुति शिवताण्डवस्तोत्रम् के नाम से विश्रुत है । वस्तुत: दशानन के बलिष्ठ हाथ कैलाश के नीचे दब जाने पर वह छटपटाता हुआ रुदन के स्वर में आर्तनाद कर उठा और ऐसी ही परम दीन अवस्था में उसने तनोतु न: शिव: शिवम् कहते हुए देवाधिदेव महादेव का स्तुतिगान किया । प्रकाण्ड पण्डित तो वह था ही, वाणीश्री भी उसके वश में थी । फलत: करुणावरुणालय प्रभु दया से अभिभूत हो कर बह चले व उससे बोले कि आर्त स्वर में आज जो तुमने भीषण राव (रव) किया है, उस क्रन्दन अथवा राव के कारण तुम रावण के नाम से जग में जाने जाओगे ।  दशग्रीव तब से रावण कहलाने लगा ।)

अन्त में कवि कहता है कि प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: उत्कर्ष पा कर अधम व्यक्ति अवश्य ही विवेक खो बैठता है । मुह्यति यानि भ्रमित हो जाता है, दूसरे शब्दों में दुष्ट व्यक्ति यदि उच्च सम्मान की सुपात्रता न रखता हो तो अति उच्च पद पा कर अपने स्वभावगत ओछेपन के कारण वह विवेक खो कर उन्मत्त हो जाता है, क्योंकि उस व्यक्ति में अपने पद-गौरव व पद से प्राप्त सम्मान एवं उसकी गरिमा को संभालने का शील नहीं होता है । फलत: उसका पतन अवश्यंभावी है, जैसे कि दुराचारी दशानन का हुआ । केवल कृपासिन्धु कपर्दी की अहैतुकी करुणा से उस अहंकारी रावण का अपराध क्षम्य हो पाया था । भगवान शंकर (शम् + कर अर्थात् कल्याण के करने वाले) को किसी भी जीव का अनिष्ट अभीष्ट नहीं है ।

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6 comments

  1. संजय says:

    मुझे पढ कर अच्छा लगा क्योंकि संस्कृति के साथ हिंद में पढ़ कर अच्छा लगा

  2. PKKrushnoorkar says:

    उषस किे
    अमुष्य
    विस्तृत विवरणं अपेक्षितं
    मम ज्ञानवृध्यर्थे

    • Kiran Bhatia says:

      विस्तारभय से व्याख्या को श्लोक के प्रसंगानुरूप सीमित रखा गया है । आपकी जिज्ञासा श्लाघनीय है । शिवकृपा रही तो अवश्य ही यह कार्य भी यथासामर्थ्य कर दिया जायेगा । इति शुभम् ।

  3. हर्षांग says:

    सरल व सुंदर विवरण से आपने इस कठिन स्तोत्रको समझाया है। वरना शब्दार्थ पढने पर भी समझ पाना संभव नहीं था। जैसे, हाथको कोइ वनका रूपक क्यूं देगा?

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