शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक २८

Shloka 28 Analysis

भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ॥ २८ ॥

भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्रह: सहमहां-
भव: = भव ( शिवजी का एक नाम)
शर्व: = शर्व
रुद्र: = रुद्र
पशुपतिरथोग्रह: पशुपति: + अथ + उग्र:
पशुपति: = पशुपति
अथ = और
उग्र: = उग्र
सहमहान् = महादेव
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्
स्तथा स् + तथा
स् = (सन्धि-विच्छेद से आया हुआ है)
तथा = और
भीमेशानाविति भीम + ईशानौ + इति
भीम = भीम
ईशानौ = और ईशान
इति = इतने, इस प्रकार, इत्यादि
यदभिधानाष्टकमिदम् यत् + अभिधानाष्टकम् + इदम्
यत् = जो
अभिधानाष्टकम् = आठ नाम (आठ नामों का अष्टक)
इदम् = ये (हैं)
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
अमुष्मिन् = इनमें से
प्रत्येकम् = हर एक का, एक-एक का
प्रविचरति = प्रतिपादन करता है
देव = (हे) देव, स्वयंप्रकाश
श्रुतिरपि = अमुष्मिन् श्रुति: + अपि
श्रुति: = वेदशास्त्र
अपि = भी
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते
प्रियायास्मै प्रियाय + अस्मै
प्रियाय = परम प्रिय
अस्मै = उस
धाम्ने = सदा स्वयंप्रकाश, चैतन्य रूप
प्रविहितनमस्योऽस्मि प्रविहित + नमस्य: + अस्मि
प्रविहित = (आपको) पुन: पुन:
नमस्य: = प्रणाम निवेदित करता
अस्मि = हूं
भवते = आपको

अन्वय

(हे) देव ! भव, शर्व, रुद्र, पशुपतिनाथ, उग्र, भीम तथा ईशान इति इदम् यत् अभिधानाष्टकम् अमुष्मिन् प्रत्येकम् श्रुति: अपि प्रविचरति अथ अस्मै प्रियाय धाम्ने भवते प्रविहित नमस्य: अस्मि ।

भावार्थ

हे स्वयंप्रकाश (देव शब्द स्वयंप्रकाश का भी द्योतन करता है) प्रभो ! भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम तथा ईशान ये आपके जो आठ नाम हैं, इनमें से प्रत्येक नाम में वेद आदि शास्त्र भी विचरण करते हैं अर्थात् एक-एक नाम का वेद भी प्रतिपादन करते हैं (अन्य शास्त्र तो करते ही हैं ) । उन परम प्रेमास्पद नित्यप्रकाश रूप आपको मैं पुन: पुन: अपना प्रणाम निवेदन करता हूं ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के २८वें श्लोक में  शिवपद-प्रणामी पुष्पदन्त महाराज सर्वसाधारण के लिये शिवोपासना के सुगम साधन का प्रकाशन करते हैं । पिछले श्लोक में प्रणव पर आश्रित उपासना के विधान के विषय में बताया । प्रणव सूक्ष्म मन्त्र है तथा इसके प्रतिपाद्य नित्य चैतन्य शिव और भी अधिक सूक्ष्म हैं, अपितु सूक्ष्मतम हैं । प्रणव निगूढ़ार्थ है और नाद द्वारा उसकी अनुभूति सबके लिये साध्य और ग्राह्य हो, यह संभव नहीं है । इसके लिये मनुष्य का संयमी होना आवश्यक है । साथ ही यह भी सच है कि निराकार उपासना में  सहृदय भक्त का मन नहीं रमता । भगवान् चन्द्रमौलि के चरणकमल का भ्रमर भक्त अपने आराध्य के विग्रह के दर्शनलाभ से भावविभोर हुआ-सा उनकी पूजा-अर्चा करके भजनानन्द को प्राप्त होता है । अतएव स्तुतिगायक गन्धर्वराज ने नाम-जप व नाम-स्मरण के सरल और सहज साधन भोले के भक्तों के हित प्रकाशित किये, जैसे सर्वसाधारण प्रसिद्ध भव, शर्व आदि आठ नाम । सर्वसाधारण की सुगमता के लिये ये भगवत्स्वरूप बोधक नाम कुछ नये खोजे हुए नाम नहीं हैं । इनका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों के अलावा वेदों में भी प्राप्त होता है । भगवान् भूतभावन के जिन आठ पावन नामों का उल्लेख कवि करते हैं, उन्हें नामाष्टक कहा जाता है ।  नामाष्टक की महिमा अपार और अगाध है ।

प्रस्तुत श्लोक के प्रथम व द्वितीय पाद में भगवान् शंकर के आठ नाम देते हुए कवि ने नामों के इस अष्टक को अभिधानाष्टकम् कहा है । अभिधान का अर्थ है नाम, अतएव अभिधानाष्टकम् (अभिधान अष्टकम्)) से अभिप्रेत है आठ नामों का अष्टक अथवा नामाष्टक । ये पवित्र आठ नाम श्रुति, स्मृति व पुराण आदि ग्रन्थों में भी वर्णित हैं । शिवोपासना वैदिक है । पूरी पृथ्वी पर शिवोपासना के प्राचीन चिह्न पाये जाते हैं । शिव की समाराधना में संलग्न स्तोत्रगायक इन आठ पवित्र नामों का उच्चारण करते हैं । अपने आराध्य को साष्टांग प्रणाम करते हुए वे कहते हैं कि हे देव । इन आठ नामों में वेदों का भी विचरण है, अर्थात् वेद भी इन नामों की प्रकाश-किरणें विकीर्ण करते हैं । ये आठ नाम इस प्रकार हैं — भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान ।

देवाधिदेव के अभिधानाष्टकम् या नामाष्टक में पहला नाम है भव । यह शिवजी का एक सरल व प्रसिद्ध नाम है । भव संसार व सांसारिक जीवन को कहते हैं जैसे भवसागर, भवार्णव, भव-पाश आदि । भव से उत्पत्ति अथवा जन्म का अर्थ भी निष्पन्न होता है जैसे पूर्वभव, भव-बन्धन, भवजाल, भवभय (जन्म-मरण का चक्र) आदि । महान् वेदविद् स्वामी काशिकानन्द गिरिजी के कथनानुसार भव का अर्थ है जिससे जगत् उत्पन्न हो या जिससे संसार उत्पन्न होता है । संसारहेतु होने से शिव ही भव हैं । ॐ भवाय नम: मन्त्र है । जन्म-मरण के चक्र का समूल उच्छेदन करने वाले शिवजी के तत्संबंधी अन्य नाम हैं —भवान्तक, भवच्छिद, भवभयहारी, भवसागर के तारणहार, भव-पाशमोचन, भवभंजन इत्यादि । अपनी सृष्टि के प्राणियों के दु:खार्त्त होने पर वे जगत्पिता उनके भव-विष को दयार्द्र हो कर पी जाते हैं ।  इस प्रकार भव शब्द में शिवजी के सृष्टिकर्ता रूप का बोध निहित है । पीछे २६वें श्लोक में महादेव की सूर्यादि अष्टमूर्तियों को स्तुतिकार ने निर्दिष्ट किया है । अब इस श्लोक में भवादि (भव आदि) आठ नाम वर्णित हैं । ( वस्तुत: ये नाम अष्टमूर्तियों में से किसी न किसी रूप की मूर्ति के साथ जुड़े हैं ।) वेदवेत्ता जन शिवजी की जलमूर्ति को भव नाम से पुकारते हैं । प्राणियों के शरीर में जो द्रवरूप वस्तु है, वह उन परमात्मा भव का अंश है ।

दूसरा शब्द शर्व है । इसमें जगत् की स्थिति, संपालन व संरक्षण का अर्थ सन्निहित है । भगवान् विश्वनाथ द्वारा पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रहना ही सृष्टि की स्थिति है । सर्वसुखदायक अर्थ भी शर्व से ध्वनित होता है । सुचारु रूप से संचालित व संपालित सृष्टि का सुखदायी होना कोई आश्चर्य की बात तो नहीं । शर्व नाम शम्भु की पृथ्वीरूपी मूर्ति का है । शिवपुराण में देवता महादेव की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे सुगन्धवाले पृथ्वीस्वरूप ! आप शर्व को प्रणाम हैं । शरीर के कठोर पार्थिव भाग को विद्वानों ने शर्वतत्व बताया है ।  स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का कहना है कि शंकर का शर्व नाम अविद्या-विनाश करने से हुआ । वे अविद्या का नाश करके ब्रह्म की प्राप्ति कराते हैं । मानव जन्म पा कर भी मुक्ति का प्रयास न करने वाला मनुष्य आत्मघाती है । अत: वे गुरुतत्व भगवान्, वे ज्ञानमूर्ति अविद्या-नाश करके परमार्थ-पथ के पथिकों का रक्षण करते हैं । तुलसीदासजी ने बड़े सुंदर व सरल शब्दों में कहा है, “प्रभु सेवकहि न ब्याप अबिद्या” । शिव लोक-रक्षक व लोकहितकारी हो कर शर्व कहलाते हैं । पृथिवीमूर्तये शर्वाय नम: ऐसा मन्त्र है ।

कतिपय स्थलों में शिवजी के शर्व नाम को संहारकर्ता रूप से भी जोड़ा जाता रहा है । शैवागम में त्रिपुर का संहार करने के कारण उन्हें शर्व कहा गया है । एक तरह से त्रिपुरहन्ता के रूप में देवताओं का कार्य सिद्ध करके वे जगत् को भयमुक्त करके सुख पहुंचाते हैं ।

भगवान् शिव का तीसरा नाम आता है रुद्र । इस नाम से प्रलय अर्थ को सूचित किया गया है । पापियों व राक्षसादि दुरात्माओं को वे रोदन करवाते हैं अर्थात् रुलाते हैं । पापियों को रुलाने वाले और आर्त्तजनों की, भक्तजनों की अभिरक्षा में सदैव रत रहने वाला यह रूप ही रुद्र कहलाता है । शिवपुराण में शिवजी के संहार करने वाले रूप को रुद्र कहा गया है । रुद्र का अन्य अर्थ यह भी है जो सभी दु:खों से मुक्त कर दे—रुजं दु:खं द्रावयतीति रुद्र: । स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का कहना है कि जैसे सुषुप्ति में दु:ख नहीं होता वैसे प्रलय में भी दु:ख नहीं होता । उनका मानना है कि जैसे उद्विग्न व्यक्तियों को सुलाने से उनका दु:ख मिटता है, वैसे संसार भ्रमण से श्रान्त व्यक्तियों को सुला कर वे प्राणियों को दु:ख से मुक्त करते हैं, प्रलय में मारते नहीं हैं । स्वामीजी के शब्दों में —

भवभ्रमणत: श्रान्तान्  सुष्वापयति   मातृवत्  ।
प्राणिन: प्रलये रुद्रो  न तु हन्ति कृपानिधि: ॥

इस प्रकार उक्त तीनों नामों से क्रमश: सृष्टि, स्थिति व संहार के कार्य जुड़े हुए हैं । भव से सृष्टि, शर्व से स्थिति व रुद्र से संहार का आशय सूचित होता है । रुद्र शिवजी की सूर्यरूपी मूर्ति का नाम है । सभी प्राणियों के नेत्रों में रहने वाला सूर्यरूप तेज उनकी रुद्रमूर्ति है । श्रुति यह कह कर चलती है —भवाय च रुद्राय च नम: । रुद्र के नाम से यह मन्त्र है —ॐ रुद्राय नम: । श्रुति का प्रविचरण यही है । वेद द्वारा इसी प्रतिपादन को गन्धर्व कवि ने अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि कह कर व्यक्त किया है ।

नामाष्टक का चौथा नाम है पशुपति । जगत् के सब प्राणी पशु कहे गये हैं (यहां पशु से तात्पर्य चौपायों अर्थात् चतुष्पद पशुओं से नहीं हैं) प्राणी पशु इसलिये हैं क्योंकि वे पाशबद्ध हैं —पशु: पाशबद्ध: । शंकर इन सबके पति अथवा स्वामी हैं । सभी प्राणी पाशबद्ध होने से पशु हैं । विद्वान लेखक सुदर्शन सिंह चक के अनुसार “देहासक्ति, यश-आसक्ति, सम्बन्धासक्ति, द्रव्यासक्ति, भोगासक्ति, गुणासक्ति, ऐश्वर्यासक्ति और अहंतासक्ति — ये आठ पाश हैं । इस अष्टगुणित रस्सी से बंधा है प्राणी ।” आगे किंचित् विस्तार से पाश व पशु के विषय में उन्होंने अपने लेख पशुपति में समझाया है । सार यह है कि पशु को यह पता नहीं है कि उसका पालक प्रमाद नहीं करता । अपने पशु के चारे-दाने की चिन्ता पशुपाल को स्वयं है और उसकी सम्पूर्ण व्यवस्था उसने कर रखी है । भ्रान्त पशु किंतु भटकता है तथा दारुण दु:ख पाता है । इसलिये यह त्रिनयन पशुपति उन्हें सत्पथ पर लाने के लिये अपना दण्ड (डंडा) उठाने पर विवश हो जाता है तथा मल से लिप्त पशु की स्वच्छता का सम्पादन करता है । समस्त प्राणियों के रक्षक भगवान् पापमोचन व पाशमोचन के अग्निरूप को विद्वानों ने पशुपति नाम से पुकारा हैं तथा इसी मूर्ति में प्राणियों के शरीरों के तेजोरूप अग्निभाग को दर्शाया है ।

नामाष्टक का अगला नाम उग्र है । यह नाम इस तथ्य का बोध कराता है कि महादेव सभी प्राणियों के नियन्ता हैं । नियन्ता को उग्र होना ही पड़ता है । सृष्टि का हित संपादित करने का कपाली को व्यसन है । अन्यथा क़िस में सामर्थ्य था कि समुद्रमन्थन के समय पहलेपहल निकलने वाला हालाहल विष का पान कर सके । वे ही देवताओं की रक्षा व दानवों का दलन करते हैं । देवता भी जब प्रमाद व शिवमाया से मोहित होकर कर्त्तव्यशून्य हो जाते हैं, तब शूलपाणि के उग्र प्रचण्ड रूप से वे भयभीत हो जाते हैं । जब उनके अपने भक्त भी अभिमान में भरकर मदान्ध व विपथगामी हो जाते हैं, तब भगवान् उग्र उन्हें सन्मार्ग पर लाते हैं । बाणासुर की कथा से हम सब विज्ञ हैं । श्रीलिंगमहापुराण के अनुसार पितरों के लिये हव्य-काव्य की व्यवस्था करने वाले यजमानरूप प्रभु को विद्वानों ने उग्र नाम से कहा है । विद्वान जीवों के शरीर में स्थित आत्मा को यजमान रूप में देखते हैं । अत: उग्र नाम को शास्त्रों के ज्ञाता शिवजी की यजमान व आत्मा रूपी मूर्ति से संयुक्त करते हैं ।

परमेश्वर का सर्वप्रसिद्ध नाम महादेव है । वे देवदेवेश्वर व सबसे महान् देव हैं । एतदर्थ वे महादेव की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं । श्लोक में अगला नाम सहमहान् आता है ।सहमहान् से तात्पर्य है महान् के सहित । यह नाम उनकी सोमात्मक (सोमरूपी) मूर्ति से संयुक्त है । वे महान् वीरात्मा प्रभु वीर वीरभद्र व अपने गणों की व सब वीरों की रक्षा करने वाले त्रिशूलपाणि हैं । देवाधिदेव महादेव प्राणियों को कर्म में प्रवृत्त करते हैं । इस नाम की महिमा का कोई ओर-छोर नहीं है ।

शिवपुराण में देवता भगवान् डमरुपाणि को नमस्कार निवेदित करते हुए कहते हैं कि आकाशस्वरूप शब्द वाले आप भीम को नमस्कार है । संसार में विधि-निषेधों का उल्लंघन करने वालों के लिये वे भीम अर्थात् भयंकर हैं । वे व्योमात्मा ही स्वयं नाद हैं । सभी स्थावर-जंगम प्राणियों की कामनाओं को फलित करने वाले भगवान् शंकर की आकाशरूपी मूर्ति को भीम कहा गया है । भीमाय आकाशमूर्तये नम: ऐसा मन्त्र है ।

सर्वपुरुषार्थ प्रदान करने वाले परमेष्ठी शिव ईशान कहलाते हैं । वे परमात्मस्वरूप परमेशान (परम ईशान) हैं । गोस्वामी तुलसीदास रुद्राष्टकम् में उनकी स्तुति का गायन करते है — नमामीशमीशान (नमामि ईशम् ईशान) निर्वाणरूपम् … अर्थात् निर्वाणरूप ईश यानि प्रभु ईशान को नमन करता हूं । समस्त लोकों में व्याप्त रहने वाले और सभी जीवों के पालक-पोषक शिवजी का यह ईशान नाम विद्वानों द्वारा उनकी वायुरूपी मूर्ति को दिया गया है । वेदवेत्ताओं के मत से जीवों के शरीरों में जो प्राण आदि वायुरूप है, उसे शिवजी की ईशानमूर्ति समझनी चाहिये ।

इस प्रकार प्राणिमात्र को परम नि:श्रेयस् प्रदान करने वाले इन आठ नामों को बताते हुए शिवनिष्ठ गन्धर्वराज कहते हैं कि हे देव, हे स्वयंप्रकाशित होने वाले प्रभो ! (देव शब्द दिव् धातु से बना है, जो प्रकाश का, दिव्यता का बोध कराता है ।) अमुष्मिन् अर्थात् उसमें यानि एक-एक नाम में श्रुति का भी प्रविचरण है । (अमुष्मिन् शब्द अदस् (वह) का पुल्लिंग, एकवचन और सप्तमी विभक्ति है ।) एक-एक नाम में श्रुति अर्थात् वेद के भी प्रविचरण से तात्पर्य यह है कि वेद इनमें से प्रत्येक नामों का उल्लेख और उद्घोष करते हैं । और उनसे से इन नामों का विशेष ज्ञान प्राप्त होता है । नाम-जप के हेतु कोई नियम विधान आदि भी नहीं हैं । चैतन्य महाप्रभु ने नाम को सर्वशक्तिमान कहते हुए उसे मोक्ष का द्वार बताया है, जिसे चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते बिस्तर पर या कहीं भी किसी भी अवस्था में लिया जा सकता है । इन नामों का मनन, चिन्तन, सुमिरन करने का स्वातंत्र्य इन्हें सुगम्य और ग्राह्य बना देता है । मनुष्य प्रकृति से स्वातंत्र्य-प्रिय प्राणी है । प्रणव का जप आदि संयमी व नियमनिष्ठ पुरुष ही कर सकते हैं । क्षण-क्षण में खण्ड-खण्ड जीवन जीने वाला इस युग का मनुष्य ऋजु रेखा (सरलरेखा) पर चल कर प्रसन्न होता है ।

श्लोक के चतुर्थ व अन्तिम पाद में स्तोत्रगायक पुष्पदन्त शास्त्रों में वर्णित विधान से अपने परमप्रिय प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम अर्पित करते हैं । उनकी वाणी कहती है—

प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते

अर्थात् आपके इस प्रिय लगने वाले स्वयंप्रकाश स्वरूप को मैं शास्त्र-विहित विधि से प्रणाम करता हूँ । अपने आराध्य के या उनके विग्रह के सम्मुख होने पर साष्टांग प्रणाम करना शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट है । अत: प्रविहित से तात्पर्य यहां साष्टांग ही लिया जायेगा । पुष्पदन्त के प्राणाधिक प्रिय हैं परमेश्वर शिव । वे अपने अन्तरतम की अथाह गहराइयों से, अपनी आत्मा से अपने आराध्य के प्रति प्रेम, सेवा व समर्पण का भाव रखते हैं । वस्तुत: इस जगत् में सबसे नाता आत्मा के लिये होता है । पत्नी, पुत्र, मित्र, बन्धु-बान्धव व अन्य सगे-संबंधियों से नाता आत्मा के लिये होता है । फिर परम पिता का तो क्या कहना ! वे तो समस्त कल्याणों के करने वाले व परम पद के देने वाले हैं । इहलोक व परलोक में परम हितकारी वही हैं, तो मनुष्य की आत्मा उन परमेष्ठि में क्यों न अपने परम प्रिय के दर्शन करे ? कवि इस परमानन्द के शान्ति-सागर में निमग्न हुआ-सा कह उठता है कि हे प्राणाधार प्रिय !  ज्ञानात्मक ज्योतिस्वरूप आपको मैं दण्डवत् प्रणाम निवेदन करता हूं ।

शैवागम बताते हैं कि ब्रह्मादि देव भी महादेव के नामाष्टक का जप करते हैं । ‘कल्याण’ पत्रिका के एक लेख में स्वामी श्री रामसुखदासजी के भजन विषयक ये वचन जानने को मिलते हैं कि “जो वस्तु जिसे प्यारी होती है, उसकी स्मृति उसमें स्वभावत: ही बनी रहती है ।यदि मुख्य वृत्ति से एकान्त में भजन होता रहे तो यह सर्वथा सम्भव है कि आगे चल कर चित्त एक क्षण लिये भी वहाँ से विचलित न हो । फिर तो पल भर के लिये भी भजन का विस्मरण नहीं हो सकता ।” आगे वे कहते हैं कि एक बार परमात्मा में लगा मन वहाँ से हटना नहीं चाहेगा । क्योंकि मन तो परम शान्ति व परम आनन्द की खोज में है और ईश्वर में लगते ही उसे वह चिर अभिवांछित शान्ति और आनन्द मिलने लगता है । महाप्रभु चैतन्य कहते थे कि नाम के रूप में भगवान् का अवतार हुआ है, ऐसा विश्वास दृढ़ हो जाने पर नामजप दिव्य साधना बन जाता है । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं भजन करने का उपदेश देते हुए कहते हैं —

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य। भजस्व माम् ।
गीता ९ । ३३

अर्थात् इस अस्थायी और दु:खरूप संसार में आकर  मेरा भजन करो । भगवान् के निरन्तर चिन्तन-स्मरण से मन में अबाध गति से प्रेम का उद्रेक होता है तथा सब कार्य तब भजन हो जाते हैं । हमारे धर्मग्रन्थ बताते  हैं कि नाम और नामी में कोई भेद नहीं है ।

प्रियायास्मै धाम्ने (प्रियाय अस्मै धाम्ने) कह कर शंकर के इसी प्रिय लगने वाले ज्योति स्वरूप अथवा धाम को कवि निर्देशित करते हैं । वे परम पुरुष ही स्वयंप्रकाश हैं और धाम उनका नित्यप्रकाश अथवा परम प्रकाश रूप है । यही ब्रह्मज्योति है । इस ज्योति का प्रकृति के तीनों गुणों से, माया से कोई संबंध नहीं है । श्वेताश्वतर उपनिषद् (६/१४) के अनुसार जगत् में जितने भी प्रकाशशील तत्व हैं, वे उन परम प्रकाशस्वरूप परमात्मा की प्रकाशशक्ति के किसी अंश को पाकर ही प्रकाशित होते हैं । उनके आगे तो सूर्य भी अपना प्रकाश नहीं फैला सकता और न ही चंद्र, तारागण और विद्युत भी अपना प्रकाश फैला सकते हैं । समस्त जगत् उन पुरुषोत्तम के प्रकाश से ही प्रकाशित है—तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । वहाँ जा कर फिर लौटना नहीं होता । वहां की शाश्वत स्थिति है अमरत्व या अमृतत्व । यही धाम का अर्थ है । सच तो यह है कि धाम का अर्थ शब्दों की सीमाओं से बाहर है । परमात्मा का यह परम चैतन्य, परम शुद्ध और शान्त व स्वत:प्रकाश स्वरूप सर्वथा अनिर्वचनीय व अननुमेय (जिसका अनुमान न लगाया जा सके) है एवं सब कुछ से परे उनका तुरीय रूप है ।

तुरीय स्वरूप के अलावा धाम शब्द भगवान् के आवास का अर्थ भी अभिव्यंजित करता है । भगवान् राम के भक्त उसे साकेतधाम कहते हैं तो श्रीकृष्णभक्त उसे गोलोकधाम कहते हैं । वैष्णव वैकुण्ठ में तथा शैव कैलाश में पवित्र धाम के दर्शन करते  हैं ।

भोलेबाबा के भक्त महादेव के इस नामाष्टक को अपने हृदय में धारण करते हैं । नामोच्चार करने से कल्याण के शत-शत द्वार खुलते हैं । ज्ञानात्मक स्वत:प्रकाश शिव अपने भक्तों के जन्मजन्मांतरों से संचित मलों का मार्जन करते हैं । नामोच्चार से शिवप्रीति को पल्लवित करता हुआ भाव-भरित भक्त कह उठता है— प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ।

श्लोक २७ अनुक्रमणिका श्लोक २९

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6 comments

  1. हर्षांग says:

    अति सुंदर! ?
    श्लोकमें पशुपतिरथोग्रहः लिखा है, पशुपतिरथोग्र: (अंतिम ‘ह’ अतिरिक्त है) होना चाहिए?

    • Kiran Bhatia says:

      हर्षांगजी, नमस्कार । आपकी बात सही है, पशुपतिरथोग्र: ही होना चाहिए । इस ओर हमारा ध्यान खींचने के लिये आपका धन्यवाद । त्रुटि ठीक कर दी है । इति शुभम् ।

  2. हर्षांग says:

    आभार। आप इतनी अच्छी तरह से महिम्न के स्तोत्र समझाती है, की पढते पढते हमें भी संस्कृत थोडा समझने लगा है। ?
    ૐ नमः शिवाय

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