कन्हाई
तुम चिर चपल
मैं चिर विकल
मूढ़ निज दर्प से
खंडित सन्दर्भ से
मैं चिर विकल
मूढ़ निज दर्प से
खंडित सन्दर्भ से
विकट भवाटवी भयावह भ्रमण
जरा आधि-व्याधि क्षरण-मरण
अंत समय चेतना का हरण
किस विध तुम्हें करूं स्मरण
प्रमाद अधिक समय है अल्प
निद्रित मनुज के सुख-संकल्प
अहोनिश केवल साधन-उपार्जन
भोग ही बन कर रह गया जीवन
अदृष्ट लेख के अक्षर समेटे
विगत के कलि-कल्मष लपेटे
स्वयं ही से हूँ मैं स्वयं वियुक्त
मन चाहे होने को एषणा-मुक्त
जीर्ण हो गया नीड़ का कण-कण
विदीर्ण हो कब मन का तमावरण
वह निर्विकार हो कर मंगला गाये
वंशी बजाता तव रूप अंतर प्रगटाये
विदीर्ण हो कब मन का तमावरण
वह निर्विकार हो कर मंगला गाये
वंशी बजाता तव रूप अंतर प्रगटाये
नमिता चाहूँ मैं कृपा-दृष्टि की कोर
प्रसन्न वदन से देख लो इस ओर
बैठे तमाल तरु पर लिए वंशी हाथ
रसमाती तान में राधा-रूप है साथ
कस्तूरी-सौरभ बिखेरता है पवन-प्रवाह
पीताम्बर को फहरा जाता मंद गंधवाह
देखूं तव ऒर दृष्टि सजल सतृष्ण
नमन करूं करबद्ध तुम्हें हे कृष्ण !
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