महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक ६
Shloka 6धनुरनुषंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कटके
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटश्रृंगहताबटुके ।
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् बहुरंगरटद् बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
धनुरनुषंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कटके | ||
धनुरनुषंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कटके | → | धनु: + अनुषंग + रण + क्षण + संग + परिस्फुरद् + अंग + नटत् + कटके |
धनु: | = | धनुष |
अनुषंग | = | साथ में होने का भाव, (धनुष) थामे हुए |
रण | = | रणभूमि (में) |
क्षण | = | उपयुक्त समय |
संग | = | युद्ध में भिड़ते हुए |
परिस्फुरद् | = | उत्तेजना से काँपते हुए |
अंग | = | शरीर के अवयव |
नटत् | = | नाचते हुए |
कटके | = | कंकण |
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटश्रृंगहताबटुके | ||
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटश्रृंगहताबटुके | → | कनक + पिशंग + पृषत्क + निषंग + रसद् + भट + श्रृंग + हता + बटुके |
कनक | = | सुनहरा |
पिशंग | = | भूरा |
पृषत्क | = | बाण |
निषंग | = | तरकश |
रसद् | = | कोलाहल करते हुए |
भट | = | योद्धा |
श्रृंग | = | बहुत ऊंची (आवाज में) |
हता | = | मार डालने वाली |
बटुके | = | मूढ़ (को मारने वाली हे देवी) |
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् बहुरंगरटद् बटुके | ||
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् | → | हत + चतुरंग+ बल + क्षिति + रंग + घटद् |
हत | = | मार दी गई |
चतुरंग | = | चतुरंगिणी सेना |
बल | = | शक्ति |
क्षिति | = | नष्ट करना |
रंग | = | रणक्षेत्र |
घटद् | = | उत्पन्न करते हुए |
बहुरंगरटद् | → | बहुरंग + रटत् |
बहुरंग | = | बहुत रंगों के शीश वाले यानि विशाल संख्या (में) |
रटत् | = | कोलाहल करते हुए |
बटुके | = | (अपने) गण अथवा अनुचर (बटुक भैरव) को उत्पन्न करने वाली हे देवी |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
(हे) रण परिस्फुरद् संग धनु अनुषंग क्षण नटत् कटके (हे) कनक पिशंग पृषत्क निषंग श्रृंग रसद् भट हता बटुके (हे) हत चतुरंग बल क्षिति रंग बहुरंग रटत् घटद् बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी ! रण में भीषण कोलाहल करते हुए मूढ़ शत्रु योद्धाओं को अपने सुनहरे-भूरे तीर-तरकश से मार गिराने वाली हे देवी ! रणक्षेत्र में शत्रु की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर उसका संहार करने वाली व कोलाहल मचाते हुए, अनेक रंगों के शिरों वाले बटुकों को उत्पन्न करने वाली ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम् के आठवें श्लोक में अम्बिका का संग्राम-सक्रिय रूप दिखाई देता है । त्रिदेवों तथा अन्य देवताओं के मुखों से निकले हुए महातेज ने देवी का रूप धारण किया व सभी देवों ने उन्हें अपने श्रेष्ठ अलंकार एवं अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर, देवी को त्रैलोक्य में महाशक्ति का रूप दिया । अठारह भुजाओं एवं आयुधों से सज्जित देवी के अनुपम रूप पर कामासक्त हो कर दुराचारी दैत्यों ने उन्हें रूप-यौवन-मत्त सुंदरी मात्र समझा । उनके प्रणय-सन्देश की निर्लज्जता के उत्तर में देवी द्वारा ललकारे जाने पर दुर्मद दैत्यों ने उनसे युद्ध किया और सिंहवाहिनी क्रुद्ध देवी ने रणभूमि में घोर विनाशलीला रचाई । उसीकी झलक इस श्लोक में मिलती है । उनकी अठारह भुजाओं में असुरों का संहार करने में सक्षम, विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं, साथ ही द्युतिमान आभूषण भी देवी ने धारण किये हुए हैं, जो उनकी कांति को बहुगुणित करते हैं । युद्ध करने के लिए उठे हुए उनके करों में कंगन भी खनखना उठते हैं । इस श्लोक की पहली पंक्ति में उनके कुछ इसी प्रकार के रूप से अभिभूत कवि उन्हें पुकारता है कि हे देवी ! युद्धभूमि में असुरों के साथ संग्राम करते हुए तुम्हारे धनुष लहराते हाथ की गति का अनुसरण तुम्हारे हाथ में पहने हुए कंकण भी करते हैं । वे भी तुम्हारी गति के वेग के अनुसार हिल हिल उठते हैं, अर्थात् हाथ तेजी से सक्रिय होते हैं तो कंकण भी कर में नाचने लगते हैं । इसलिये नटत्कटके कह कर पुकारा ।
दूसरी पंक्ति में कवि कहता है कि देवी के बाण स्वर्णिम हैं । कोलाहल करने वाले, भीषण रव करने वाले उन मूर्खों पर, अपने हतबुद्धि शत्रुओं पर जब वे उन बाणों को चलाती हैं तो वे स्वर्णिम बाण, शत्रुओं के रक्त के लाल रंग के मिल जाने से सुनहरे-भूरे हो जाते हैं तथा उनका तरकश भी । यह तब होता है जब उन बाणों का मिलाप शत्रु-देह से होता है । पृषत्कनिषंग यानि बाण तथा तरकश । अगले शब्द रसद्भटश्रृंग में रसद्, भट तथा श्रृंग तीन शब्द जुड़े हैं । संस्कृत में रस् धातु का एक अर्थ है कोलाहल करना, हूहू करना व कर्कश-कर्णकटु शब्द करना । भट कहते हैं रणशूर योद्धा को । श्रृंग यानि शिखर, यहां यह ऊँचाई का सूचक है । कुल मिला कर रसद्भटश्रृंग से अभिप्रेत अर्थ है योद्धाओं का बहुत ऊंची और कर्णभेदी ध्वनि में कोलाहल करना या दूसरे शब्दों में हाहाकार मचा देना । अगला है हताबटुके, इसमें हता यानि हत करने वाली अर्थात् मार डालने वाली । बटुक का प्रचलित अर्थ होता है वेदपाठ का अभ्यास करने वाला विद्यार्थी बालक, साथ ही इसका अन्य अर्थ कम बुद्धि वाला या नासमझ छोकरा भी है । यहां अभिप्रेत अर्थ है मूर्ख या फिर जिसे कहते हैं मोटी बुद्धि वाला । रसद्भटश्रृंग हताबटुके कह कर देवी को पुकारने से कवि का तात्पर्य है (रसद् का अर्थ ऊपर बताया है) कर्णभेदी ध्वनि में चीत्कार करते हुए जड़बुद्धि, मूर्ख दैत्य-योद्धाओं को मारने वाली हे देवि ! और पूरी पंक्ति से यह ध्वनि निकलती है कि हेम-रक्तिम बाण-निषंगधरिणी, घोर चीत्कार करते मूर्ख योद्धाओं का घात करने वाली, रिपुमारिणी हे देवेश्वरी !
तीसरी पंक्ति के चित्रण के अनुसार इस घोर संग्राम में देवी असुरों की चतुरंगिणी सेना को नष्ट करके उसका संहार करती है, अतएव हतचतुरंग कहा । चतुरंग सेना में हाथी, घोड़ा, रथ व पैदल सैन्यदलों का समावेश होता है । माता दैत्यराज महिषासुर की चतुरंगिणी सेना के योद्धाओं का काम तमाम करती हैं । बलक्षितिरंग में तीन शब्द हैं, बल, क्षिति तथा रंग । बल यानि शक्ति, क्षिति यानि नष्ट करना । रंग शब्द ध्यातव्य (ध्यान देने योग्य) है । रंग नाटक को कहते हैं, जो रंगमंच पर खेले जाते हैं । नाटक के अलावा खेल व क्रीड़ा के लिये भी यह प्रयुक्त होता है । लेकिन रंग शब्द जब रण के साथ जुड़ता है या उसका संबंध युद्ध से होता है तब उसका अर्थ होता है रणक्षेत्र । शब्द घटद्बहुरंग में घटद् शब्द से तात्पर्य उत्पन्न करने से है, जिसे घटित करना भी कहते हैं । देवी माता रणांगण में अपने विकराल गणों व बटुक भैरव को उत्पन्न करती हैं । सबके शिरों का रंग भी विविध होने से उन्हें कवि ने बहुरंग कहा है । बहुरंग एक विशाल सेना का द्योतक है । रटद्बटुके में रट् धातु का अर्थ है उच्च स्वर में चीखना, चिल्लाना व कोलाहल करना । बटुक भैरव के साथ वे भीम-भयंकर गण उच्च स्वर में भयोत्पादक घोष अथवा रव करते हैं, अत: रटद्बटुके कह कर देवी को पुकारा गया है । इस प्रकार दुष्ट व भ्रष्ट मति वाले असुरों की चतुरंग सेना से घिरी हुई देवी वहां युद्धभूमि में उनके सैन्य को नष्ट-भ्रष्ट करने में व्यस्त रहीं । अतएव तीसरी पंक्ति में कवि कहता है कि रणक्षेत्र में एक विशाल संख्या में भीषण युद्ध में नियोजित शत्रु की चतुरंगिणी सेना को क्रूरता से नष्ट-भ्रष्ट करने में बटुक व गणों को घटित करने वाली हे देवि ! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
पिछला श्लोक | अनुक्रमणिका | अगला श्लोक |
इस श्लोक में प्रत्येक शब्द का अर्थ अगर आप लिख पाएँ तो कृपा होगी..
जैसे मुझे ‘अनुषंङ्ग’ का अर्थ ‘थामना’ या ‘जुड़ा होना’;
‘स्फुर’ का अर्थ ‘कंपन’;
‘पिशंग’ का अर्थ ‘लालिमा युक्त’;
‘पृषत्क’ का अर्थ ‘बाण’;
‘निषंग’ का अर्थ ‘तरकश’
तथा ‘घट’ का अर्थ ‘शरीर/ सिर’ तो पता है लेकिन…
‘रसद्भटश्रृंग’, ‘बलक्षितिरंग’ और ‘रटदबटुके’ के अर्थ में स्पष्टता नहीं है..
कृपया अपडेट करने की कृपा करें. धन्यवाद..
आदरणीय दीपकजी, आपके द्वारा पूछे गये सभी शब्दों का अर्थ जोड दिया गया है । साथ ही इसके प्रकाश में सरल व्याख्या भी दुबारा कर दी गई है । कृपया अवलोकन कर लें । इति शुभम्।
धन्यवाद..
जय माता दी।
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् को कृतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् लिखकर सुधार करे।
हमारी स्रोत पुस्तक में ‘हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद्’ लिखा है, अत: यह सही है ।
आपके द्वारा दिया गया अनुवाद हमारे लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ।आपका बहुत -बहुत धन्यवाद?
जय माता दी ?
आपके द्वारा किया गया अनुवाद हमारे लिए बहूत लाभकारी सिद्ध हुआ । आपका बहुत -बहुत धन्यवाद??
यह भगवती की अपार कृपा है हम सभी पर । धन्यवाद । इति शुभम् ।