शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक ७
Shloka 7 Analysisत्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।। ७ ।।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति | ||
त्रयी | = | तीनों वेद |
साङ्ख्यं | = | सांख्यशास्त्र |
योग: | = | योगशास्त्र |
पशुपतिमतं | = | शैवमत |
वैष्णवमिति | = | वैष्णवम् + इति |
वैष्णवम् | = | वैष्णव मत |
इति | = | इस प्रकार से |
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च | ||
प्रभिन्ने | = | भिन्न भिन्न , अनेकविध |
प्रस्थान | = | पद्धति, प्रणाली , गम्य मार्ग |
प्रस्थाने | = | गमन योग्य मार्ग में |
परमिदमदः | = | परम् + इदम्+ अद: |
परम् | = | सर्वोत्तम |
इदम् | = | यह |
अद: | = | यह |
पथ्यमिति | = | पथ्यम् + इति |
पथ्यम् | = | सेवन करने योग्य, अपनाने योग्य |
इति | = | इस तरह से |
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां | ||
रुचीनां | = | रुचियों की , श्रद्धा की |
वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां | = | वैचित्र्यात् + ऋजु + कुटिल + नाना + पथजुषां |
वैचित्र्यात् | = | विचित्रता से, विभिन्नता से |
ऋजु | = | सीधे |
कुटिल | = | टेढ़े |
नाना | = | अनेकविध |
पथजुषां | = | मार्ग पर चलने वाले |
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव | ||
नृणामेको | = | नृणाम् + एको (एक:) |
नृणाम् | = | मनुष्यों के |
एक: | = | एक ही |
गम्यस्त्वमसि | = | गम्य:+ त्वम् + असि |
गम्य: | = | गमन योग्य , चलने योग्य |
त्वम् | = | आप |
असि | = | हो |
पयसामर्णव | = | पयसाम् + अर्णव |
पयसाम् | = | नदियों के |
अर्णव | = | सागर |
इव | = | की तरह |
अन्वय
भावार्थ
हे सुरश्रेष्ठ ! तीनों वेदों , सांख्य – दर्शन , योग – दर्शन, शैवमत , वैष्णव मत आदि भिन्न भिन्न मतों को मानने वाले लोग या अपने अपने सम्प्रदायों द्वारा चीन्हे गये मार्गों पर चलने वाले लोग (विभिन्न मतावलम्बी) अपनी रुचियों केअलग-अलग होने के कारण कह देते हैं कि यह (हमारा) मार्ग श्रेष्ठ है, यह मार्ग सेवन योग्य है । (किन्तु) इन सभी के द्वारा प्राप्तव्य एक आप ही हैं , ठीक उसी तरह जैसे टेढे – सीधे रास्तों से हो कर गुजरने वाली नदियों का गम्य स्थल या गंतव्य एक समुद्र ही होता है ।
व्याख्या
शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के सातवें श्लोक में गन्धर्वराज पुष्पदन्त भगवान शिव से कहते हैं कि इस जगत में सत्य तक पहुंचने के लिये, ईश्वर की प्राप्ति के हेतु अपनी अपनी रुचि व श्रद्धा के अनुरूप अनेक मत एवं मान्यताएं प्रचलित हैं । वस्तुतः व्यक्ति अपनी अपनी मति और प्रकृति के अनुसार अपनी मान्यता का चयन करता है । उसकी मान्यताएं व उसके मत की पद्धतियां उसे अपने कुल एवं परम्पराओं से भी मिलती हैं जिनका वह अनुसरण व पोषण करता है । इस प्रकार बहुविध मत – मतान्तर लोक में प्रचलित होते हैं और उनमें आपस में अपनी श्रेष्ठता को ले कर संघर्ष तथा विवाद भी होते हैं । यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि सम्प्रदायों के गठन के कुछ समय उपरांत उनके अपने भी कई भाग – प्रभाग बन जाते हैं, कभी सुधार के कारण तो कभी नये व युवा लोगों द्वारा लाये गए बदलावों एवं खण्डन- मण्डन की प्रवृत्ति के कारण। यद्यपि इनका उत्स एक ही होता है, किन्तु साधना-पद्धतियों की विभिन्नताएं इन्हें नया रूप दे देती हैं । और यह बात सभी मतों पर लागू होती है ।
सर्वप्रथम स्तोत्रकार ने कतिपय सम्प्रदायों के नाम दे कर अपनी बात आगे बढ़ाई है । वे नाम इस प्रकार हैं – त्रयी अर्थात् तीनों वेद, सांख्य-दर्शन, योग-दर्शन, पाशुपत मत तथा वैष्णव मत । उनके अनुसार उपर्युक्त अनेक टेढे-सीधे अथवा सरल-कठिन मार्गों का लोग आश्रय लेते हैं सत्य की खोज में । पहला उदाहरण वेद- प्रतिपादित दर्शन अथवा मत का दिया है । त्रयी कहने से उनका तात्पर्य वेदों से है । त्रयी शब्द वेद-त्रयी के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसमें तीन वेदों का समावेश होता है – ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद । यद्यपि वेदों में ॠक्, यजुः, साम और अथर्व नाम की चार संहिताएं हैं । इन्हीं को मूल वेद कहते हैं । इनके लोक-प्रचलित नाम हैं – ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । अथर्ववेद में शुभाशुभ दोनों मन्त्र-तन्त्रों का संग्रह है । इसमें शत्रु-नाश के लिए अनेक अमंगल प्रार्थनाएं और अपनी सुरक्षा के लिए तथा पाप-ताप, अनिष्ट- निवारण तथा दुर्भाग्य से बचाव के लिए असंख्य प्रार्थनाएं पाई जाती हैं । अथर्ववेद में भी धार्मिक संस्कारों में प्रयुक्त होने वाले अनेक सूक्त हैं, प्रार्थनाएं हैं, अनुष्ठान पद्धतियां हैं, जिनमें देवताओं का अभिनन्दन किया गया है । कुछ विद्वानों के अनुसार अथर्ववेद को वेदत्रयी में समाविष्ट न करने का कारण है कुछ विद्वानों का इसे आसुरी विद्या समझना । प . हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने इस विषय में महाभारत के शान्तिपर्व १३५ का सन्दर्भ देते हुए अपने एक निबंध भारतीय संस्कृति का स्वरूप में लिखा है कि –
इस प्रकार हमने देखा कि त्रयी से यहां तात्पर्य वेदों से है । इनके द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं को श्रौतमत कहा जाता है ।
स्तोत्रकार ने आगे जिस मार्ग का उदाहरण दिया है, वह है सांख्य-दर्शन । इसके प्रणेता कपिल मुनि हैं । इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है पुरुष या आत्मा को सांसारिक बन्धनों से मुक्त करना । इस दर्शन के अनुसार पुरुष या आत्मा सर्वथा निर्लिप्त एक निष्क्रिय दर्शक है । सांख्य दर्शन छः हिन्दु दर्शनों में से एक है । इसमें पच्चीस तत्व या सत्य सिद्धांतों का वर्णन किया गया है । सांख्यमुख्यः भगवान शिव का एक विशेषण है ।
इसके बाद योग शास्त्र की बात कही है । इसके प्रवर्तक पतंजलि मुनि माने जाते हैं । सांख्य – दर्शन की भांति योग – दर्शन भी भारतवर्ष का प्राचीन दर्शन है । परमात्मा (चेतन तत्व) के निर्गुण रूप के विषय में बहुत विस्तार से अपने विचार को प्रतिपादित किया गया है । योग व सांख्य में उसे जानने के साधन विशेष रूप से बताये गये हैं । योग – दर्शन की पुरातनता महाभारत के निम्नलिखित श्लोक से विदित होती है –
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यो पुरातः ।।
अर्थात् सांख्य के वक्ता परम ऋषि कपिल हैं और योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं । इनसे अधिक इनका पुरातन वक्ता और कोई नहीं है । पुरा काल में भिन्न भिन्न दर्शनों का वर्णन यद्यपि अलग-अलग नामों से किया जाता था, किन्तु उन्हें एक समझा जाता था । जैसा कि गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं –
एकमप्यास्थितः सम्युभयोर्विन्दते फलम् ।।
अर्थात् सांख्य और योग को अविवेकी जन ही पृथक् पृथक् मानते हैं न कि पण्डित जन । इन दोनों में से एक का भी ठीक से अनुष्ठान कर लेने पर दोनों का फल मिल जाता है । योग-निष्ठा में कर्म की प्रधानता है । यह मार्ग अष्टांग योग की घुमावदार सर्पिलाकार सड़क पर से होता हुआ चलता है । इसीलिये प्रस्तुत श्लोक में ऋजु-कुटिल नाना पथों का उल्लेख किया गया है ।
तत्पश्चात् श्लोक में पशुपतिमतम् नाम के अन्य मत की बात कही है । पशुपतिमतम् से तात्पर्य शैवमत से है । भगवान शिव को ही परमेश्वर मान कर उन्हें पूजने वालों को शैव कहा जाता है तथा उनके धर्म अथवा मत को शैवमत । शैवमत के प्रतिपादक शास्त्र शैवागम कहलाते हैं । हिन्दी साहित्य कोश में शैवमत के विषय में कहा गया है कि ” प्राचीन भारत में इस प्रकार रुद्र या शिव को परमेश्वर माना गया । शिव के ही अर्थ में शंकर और शम्भु शब्द हैं । यजुर्वेद का शतरुद्रीय अध्याय, तैत्तरीय आरण्यक और श्वेताश्वतरोपनिषद् में रुद्र या शिव को परमेश्वर माना गया है । पर पशुपति का स्वरूप इनमें निर्दिष्ट नहीं है । अथर्वशिरस् उपनिषद में सर्वप्रथम पाशुपत, पशु, पाश आदि पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख मिलता है । ” शैव उपासना भारत की प्राचीनतम उपासनाओं में से एक है ।
भिन्न भिन्न मार्गों के कतिपय नाम लेते हुए स्तोत्रकार वैष्णव मत की बात करते हैं । शैवों की भांति हिन्दु धर्म में एक और सम्प्रदाय मुख्य है और वह है वैष्णव सम्प्रदाय । भगवान विष्णु व उनके अवतारों को मानने व पूजने वालों को वैष्णव कहते हैं । यह एक पुरातन सम्प्रदाय है । इनका धर्म भागवत धर्म भी कहलाता है । इनका श्रीमद्भागवत पुराण अठ्ठारह पुराणों में से एक है । हिन्दी साहित्य कोश में भगवान विष्णु के संबंध में इस प्रकार लिखा गया है –
इसी पुस्तक के अनुसार ॠग्वेद में उन्हें विष्णुर्गोपा अदाभ्य: (1. 22..18 ) कहा गया है । महाभारत में वासुदेव के उपासकों के सात्वत धर्म को वैष्णव धर्म के नाम से प्रसिद्ध किया गया । यह ईश्वर की सगुणोपासना करते हैं तथा उन्हें अपना सर्वस्व मानते हैं ।
ऊपर अति संक्षेप में उन सम्प्रदायों का परिचय दिया है जिनका उल्लेख करते हुए स्तोत्रकार ने कहा है कि नाना मतावलम्बियों के दर्शन अथवा यह कहा जाए कि सत्य को पाने के मार्ग भिन्न भिन्न हैं । उनकी अनुश्रुतियां, उनके ग्रन्थ, उनका साहित्य व उसकी भाषा अलग अलग है । उनकी साधना के रूपों में, रुचियों में भिन्नता है और प्रत्येक व्यक्ति को यह लगता है कि उसी का साधन – उपकरण सबसे बढ कर है । उसका मार्ग ही श्रेष्ठ है और वही पथ्य अर्थात् सेवन – योग्य तथा सहज है और दूसरों के मार्ग हीन हैं व दूसरों की प्रणालियों में जटिलता एवं कुटिलता है । दसरे शब्दों में यह कि उसी का मार्ग सुगम्य है, गमन के योग्य है जिसे अपनाकर प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है । सब अपने अपने मत के विधि-व्यवहार व व्यवस्था को महिमा-समन्वित करते हैं । इस कारण विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संघर्ष व टकराव होता आया है । लड़ाई-झगड़े चलते रहते हैं ।
वस्तुतः अपनी श्रद्धानुसार परमेश्वर के अगणित रूपों में से किसी एक पर पूर्ण आस्था व भक्ति का होना असमीचीन नहीं, यदि वह विशुद्ध भाव से पूरित हो , अन्यथा अमुक मार्ग का यन्त्रचालित-सा होकर अंधानुसरण करना ईश्वर के केवल एक ही अंश की उपासना करने के तुल्य है । अन्य किसी की भिन्न मान्यता से मन के विद्वेष-विष से भर जाने का अर्थ है अपने आराध्य में पूर्णतः प्रीति न रख कर उनसे अंशतः अनुराग रखना तथा निर्दिष्ट विधानों को भावपूर्वक न करके उन्हें भ्रांतिपूर्वक करना । सभी उस महासत्य के विभिन्न पक्ष हैं । अतएव विभिन्न श्रद्धाओं के सरल-कठिन मार्गों पर चलने वाले लोगों के लिए यहां कहा गया है कि नदियां अपने प्रवाह में अनेक टेढे-मेढे, सरल-कुटिल मार्गों से होकर बहती हैं । किन्तु अंततोगत्वा सागर में ही जाकर मिलती हैं । उनका प्राप्य, उनका गन्तव्य सागर ही होता है । उसी प्रकार अपनी अपनी श्रद्धा के अनुरूप ऋजु-तिर्यक्, सीधे या घुमावदार पथों पर चलते हुए भी समर्पित साधक अन्ततः भगवान शिव को ही प्राप्त होते हैं, उसी तरह जैसे कि अपने उत्स से निकली नदी अनेक घुम्मरदार, कटावदार मार्गो से प्रवाहित होती हुई अंततोगत्वा सागर-गामिनी बन कर सागर में जाकर मिलती है ।अतः प्रणाली या पूजन-पद्धति चाहे कोई भी हो, सबके एक मात्र गन्तव्य, एक मात्र परम प्राप्तव्य भगवान सदाशिव ही हैं ।
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