शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक १५

Shloka 15 Analysis

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशाखा: ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मर: स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव: ।। १५ ।।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
असिद्धार्था: = असफल
नैव न + एव
= नहीं
एव = ही
क्वचिदपि क्वचित् + अपि
क्वचित् = कहीं
अपि = भी
सदेवासुरनरे सदेव + असुर + नरे
सदेव = देवताओं सहित
असुर = राक्षसों (पर)
नरे = मानवों (पर)
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशाखा:
निवर्तन्ते = लौटते हैं
नित्यम् = सदैव
जगति = जगत में
जयिन: = विजयी, जय करने वाले
यस्य = जिसके
विशाखा: = तीर
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स: = वह
पश्यन्नीश पश्यन्+ ईश
पश्यन् = समझता हुआ (आपको)
ईश = हे ईश
त्वामितरसुरसाधारणमभूत् त्वाम् + इतर + सुरसाधारणम् + अभूत्
त्वाम् = आपको
इतर = अन्य
सुरसाधारणम् = (कोई) साधारण देवता ( समझता हुआ)
अभूत् = हो गया
स्मर: स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव:
स्मर: = कामदेव
स्मर्तव्यात्मा = स्मरण मात्र के योग्य, (भस्म हो गया)
नहि न + हि
= नहीं होता
हि = निश्चित ही
वशिषु = जितेन्द्रियों का
पथ्य: = कल्याणकारी
परिभव: = अपमान

अन्वय

नित्यम् जयिन: यस्य विशाखा: क्वचित् अपि सदेवासुरनरे जगत् असिद्धार्था: न निवर्तन्ते, स: एव स्मर: (हे) ईश ! त्वाम् इतर सुरसाधारणम् पश्यन् स्मर्तव्यात्मा अभूत् हि वशिषु परिभव: पथ्य: न (भवति) ।

भावार्थ

सदा विजयी जिस कामदेव के बाण देव-असुर-मनुष्य आदिक से युक्त इस संसार में कभी असफल हो कर नहीं लौटते (अपना कार्य सिद्ध किये बिना नहीं लौटते), हे ईश ! वह आपको एक साधारण देव मात्र समझ कर स्वयं (अपने प्राणों से हाथ धो कर) स्मरण की वस्तु भर बन कर रह गया, अर्थात् स्मरण मात्र को शेष रह गया । तात्पर्य यह कि सदा विजयी कामदेव आपकी भालाग्नि में दग्ध हो कर रह गया । निश्चित ही है कि आत्मवशी (जितेन्द्रिय) जनों का अपमान करना कल्याणकारी नहीं होता ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के पन्द्रहवें श्लोक में गन्धर्वराज पुष्पदंत समाधि-संलग्न योगेश्वर शिव का स्तवन करते हैं । वे कहते हैं कि आत्मजयी जिते्द्रिय जन सदा सेवा-पूजा के पात्र होते हैं । उनका अपमान हितकारी नहीं होता है ।स्तुतिगायक गन्धर्वराज भगवान शिव की मदन-दहन लीला को रेखांकित करते हैं । उनका कहना है कि नित्य जय पाने कामदेव का प्रताप ऐसा है कि उनके द्वारा चलाये गये उनके पुष्पबाण कहीं से भी निष्फल हो कर नहीं लौटते, इसीलिये मदन के लिये जयिन: और उनके बाणों के लिये असिद्धार्था: विशेषणों का प्रयोग कवि ने किया है । प्रेम व सौन्दर्य के देवता कामदेव को पंचशर तथा कुसुमशर भी कहते हैं, क्योंकि उनके कुसुममय कोदण्ड के अलावा उनके बाण भी कुसुममय होते हैं, जिनकी संख्या पाँच है । उनमें से एक सुमन-शर को समाधिस्थ शंकर पर मदन ने लक्षित किया किन्तु वे विफल-मनोरथ हो गये । कामदेव ने अलक्ष्य को अपना लक्ष्य बनाने की दुष्चेष्टा की ।आत्मजयी, आत्मवशी भगवान धूर्जटि की महिमा न जानते हुए गर्वोद्धत कामदेव ने उनको अन्य देवों के सदृश साधारण देवता भर समझ लिया, जिन्हें वह अपने कुसुमशर से कहीं भी काम-विह्वल कर देता था । शास्त्रों में देवताओं को भोगयोनि कहा गया है । देवता यज्ञ-भोक्ता होते हैं तथा प्राक्जन्मकृत पुण्य-संचय के कारण स्वर्ग के सुदुर्लभ भोगों के भोक्ता भी । देवता शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के दिव् धातु से हुई है, जिसका अर्थ प्रकाश है । देवयोनि की देह प्रकाशदेह कही जाती है । देवगण सात्त्विक अहंकार से रचित होने के कारण पावन व वरदायी होते हैं ।

प्रस्तुत श्लोक में स्तुतिकार का कहना है कि स्मर यानि कामदेव ने अविकारी शिव में विकार उत्पन्न करने की दुष्चेष्टा की । फलस्वरूप कामदेव स्वयं ही स्मर्तव्यात्मा बन कर रह गये अर्थात् शिव की कोपाग्नि में दग्ध हो गये और इस तरह स्मरणमात्र को अवशिष्ट रह गये अर्थात् वे नाममात्र के रह गये । स्मर्तव्यम् का अर्थ है स्मरण करने के योग्य अथवा हेतु । दूसरे शब्दों में वे एक यादगार मात्र बन कर रह गये । शिववक्ष को लक्ष्य करके कामदेव ने जब पुष्पबाण का सन्धान किया, तो समाधिस्थ शिव ने तप में मदन द्वारा विक्षेप उत्पन्न करने से, कोपायमान हो कर ललाट पर स्थित अपना तीसरा नेत्र खोला । तृतीय नेत्र की प्रचण्ड अग्नि ने उग्र रूप से प्रज्वलित हो कर कामदेव को, जिन्हें अपने पुष्पबाणों पर अतीव गर्व था, तत्क्षण भस्मसात् कर दिया । भगवान शिव स्वयं अग्नि का रूप हैं । उनके अष्टमूर्ति रूप में उनका एक रूप अग्नि है । कहा गया है भूतार्कचंद्रयज्वानो मूर्तयोsष्टौ प्रकीर्तिता:

मदन-दहन की कथा संक्षेप में इस प्रकार है । शिवपुराण के अनुसार दाक्षायणी (दक्षपुत्री व शिव की पत्नी सती) के योगाग्नि में प्रवेश के पश्चात् व्याकुल व विषण्ण-चित्त शिव विरक्त हो कर हिमालय पर्वत पर औषधिप्रस्थ नामक नगर के समीप एक उत्तम शिखर पर तपस्या करने चले गये । पर्वतराज ने तपस्थली पर पहुँच कर उनकी अभ्यर्थना की और अपनी पुत्री पार्वती के लिये शिव की सेवा-अर्चना करने की अनुज्ञा चाही । गिरिराज की प्रार्थना का गौरव रखने के लिये शम्भु ने स्वीकृति दे दी । नगेशनन्दिनी पार्वती अपनी सखियों (जया व विजया) के साथ वहाँ रहती हुई महादेव के लिये कुशा, तिल, पुष्प, फल, जल आदि की व्यवस्था-सेवा करती रही । दूसरी ओर असुरराज तारकासुर अपनी उग्र तपस्या के फलस्वरूप ब्रह्माजी से अवधत्व का वर पा कर बली हो गया था तथा देवताओं को त्रास देने लगा था । प्राप्त वर के अनुसार उसका वध शिव के तेज से जन्मा पुत्र ही कर सकता था । सती के योगाग्नि-प्रवेश के उपरान्त शिव में उत्पन्न वैराग से तारकासुर नि:शंक व देवराज इन्द्र सशंक रहते थे । देवताओं को भय था कि शिव तपोलीन रहेंगे तथा पार्वती से परिणय करने को प्रवृत्त न होंगे तो उनका तारकासुरान्तक पुत्र कहाँ से आयेगा । और उनका यह भय निर्मूल भी न था । देवगुरु बृहस्पति से मंत्रणा करके उनका परामर्श पाकर इन्द्र ने अपने सदा जयशील व दुर्दम सुभट कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने हेतु प्रेरित किया, जिससे पार्वती में उनकी अभिरुचि और अभिलाषा जगे तथा प्रसन्नमना वे उमा से विवाह कर लें । केवल उसी स्थिति में उनका औरस पुत्र संभव हो सकता था, जो देवसेनापति बन कर तारकासुर का अन्त कर दे। पहलेपहल कामदेव कार्यसिद्धि के विषय में सशंकित हुए किन्तु देवेन्द्र ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके उन्हें जयी होने का विश्वास दिलाया । फिर क्या था, दर्प से फूले फिरते हुए ऋतुपति कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ भगवान शिव की तपोस्थली पर पहुँचे । पर्वतराज की त्रिभुवनसुन्दरी पुत्री के वहाँ आने पर शिव पर पुष्पबाण सन्धान करने का अनुकूल अवसर देख कर मदन ने अपने पाँच बाणों में से सम्मोहन नामक पुष्पशर शिव पर चला दिया, अलक्ष्य को उसने लक्ष्य बना लिया । महायोगीश्वर ने मनोविकार के फेन बुलबुले का आभास पाया । मन को डोलायमान करने के इस उद्दण्ड उद्योग को ध्यान-निलय निलिम्पनाथ भांप गये । वे जान गये कि उनके तप में विक्षेप उत्पन्न करने का कुटिल प्रयास किया गया है । तत्क्षण उनके समाधिरत नेत्र तनिक खुले और कामदेव को वहाँ पर पा कर कुपित शिव का ललाटस्थ तीसरा नेत्र खुला और उससे निकलती हुई प्रचण्ड अग्नि ने देखते-ही-देखते  कामदेव को भस्म करके रख दिया ।

मदन-दहन की उपर्युक्त शिवलीला को संकेतित करते हुए गन्धर्वराज पुष्पदन्त आगे कहते हैं कि कामदेव ने भगवान धूर्जटि के भगवत्-रूप को, उनके परमैश्वर्य को नहीं पहचाना तथा उन्हें निर्बाध विलास करने वाले अन्य देवताओं जैसा समझ लिया । कन्दर्प किसी भी देवता में मदन जगा सकते हैं, अत: महिमावन्त देवताओं को, कवि के कथनानुसार कामदेव साधारण समझते हैं । किन्तु अलख निरंजन अर्धेन्दुमौलि को ऐसा समझने का मूल्य उन्हें अपना जीवन गंवा कर चुकाना पड़ा । प्रलयंकर के निटालस्थ नेत्र (निटाल=ललाट) से निकली ज्वाला की प्रचण्ड लपटों ने तत्क्षण ही उन्हें भस्मीभूत कर दिया । अस्तित्व खो गया और बचा तो केवल एक नाम, एक स्मृतिमात्र शेष बच रही । यही कारण है कि वे स्मर्तव्यात्मा बन कर रह गये । उनकी यह गति इसलिये हुई कि उन्होंने आदियोगी शिव के शिवत्व की महिमा को नहीं समझा, उनके जितेन्द्रियत्व का सम्मान नहीं किया । वस्तुत: विगत-स्पृह, विजितेन्द्रिय जनों का, आप्तकाम मुनि-महात्माओं का अपमान कदापि कल्याणकारी नहीं होता । पथ्य कहते हैं स्वास्थ्यप्रद, उपयोगी औषधि या आहार को । इसका अन्य अर्थ योग्य, उचित और उपयुक्त भी होता है । अन्तिम पंक्ति में कहा गया है कि वशी यानि आत्मवशी महात्माओं का परिभव यानि अपमान करना पथ्य अर्थात् उचित नहीं होता, अपितु अकल्याणकारी सिद्ध होता है ।

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13 comments

  1. S k Nath says:

    कोटि कोटि प्रणाम। श्लोक १६ और उसके बाद के श्लोकों की व्याख्या मुझे कहां प्राप्त होगी ? कृपया सूचित करें,अति कृपा होगी ।

    • Kiran Bhatia says:

      सर्वप्रथम तो मुझे यह कहना है कि कृपया मुझे इतना मान न दें, मुझे असहज लगता है । शिवमहिम्न:स्तोत्रम् में १५ से आगे के श्लोकों का कार्य अभी चल रहा है । १०-१२ दिनों में अगले दो अर्थात् श्लोक १६ व १७ का प्रकाशन हो जायेगा ।
      आपने ई मेल में सब्स्क्रिप्शन के बारे में पूछा है, तो बता दूँ कि वह नि:शुल्क है । इस वेब साइट को केवल ईश्वर की कृपा अभीष्ट है । सुधी पाठक-वृन्द की प्रसन्नता हमारी अपनी प्रसन्नता की पोषक है । इति शुभम् ।

  2. S k Nath says:

    सनमन धन्यवाद। प्रतीक्षारत हूं। मेरी एक शंका का समाधान करें । इस स्त्रोत की रचना द्वापरयुग में हुई है ? क्योंकि इसमें बाणासुर की घटना का उल्लेख है । क्षमा प्रार्थी हूं ।

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, मैं इस विषय में आधिकारिक रूप से कुछ कह पाने में असमर्थ हूं, अनुमानाश्रित उत्तर नहीं देना चाहूंगी । वस्तुत: धार्मिक ग्रन्थों का अनुशीलन करते समय तथा स्तोत्रों का वाचन-गायन करते समय मेरी मानसभूमि तर्काश्रयी न रह कर भावाश्रयी ही रही है । अत: इस इतिहासगंधी प्रश्न को कोई आकाश या अवकाश नहीं मिला । मानती हूँ कि सहृदय व विद्वान भक्त के व्यवस्थापेक्षी मानस के चारु उद्यान को अपने विकास व संवार-सज्जा के लिये ज्ञान व अनुसंधान की खाद और कुदाली अपेक्षित है । किन्तु कदाचित् श्रद्धैक भावगम्य भूमि वन-कान्तार की तरह है, जो अयत्नवर्धित व व्यवस्था-निरपेक्ष होती है ।
      श्लोकों में आपकी रुचि श्लाघनीय है और हमारे लिये उत्साहवर्धक भी । इति नमस्कारान्ते।

  3. S k Nath says:

    प्रणाम सहित धन्यवाद । मेरा मेरे इष्ट भोले शिव के प्रति अगाध स्नेह एवं श्रद्धा है । अतः यदि मेरी जिज्ञासा कुतर्क है तो आप एवं भगवान शिव से क्षमा याचक हूं। मैं द्वापरयुग में शिवलीला जानना चाहता हूं।

    • Kiran Bhatia says:

      नमस्कार । यह जानने की जिज्ञासा है तो कृपया विद्वान व भक्त लेखक श्री सुदर्शनसिंह ‘चक्र’ की पुस्तकें ‘द्वारिकाधीश’ तथा ‘नन्द-नन्दन’ पढ़ें । गर्गसंहिता भी उपयोगी सिद्ध होगी । किन्तु विस्तृत विवरण उक्त पुस्तकों में मिलेगा, जहां ज्ञान-वर्धन भी होगा और सात्त्विक सामग्री का रसास्वादन भी । इति शुभम् ।

  4. S k Nath says:

    नमन पूर्वक धन्यवाद। आज श्लोक १६ को पाकर अति प्रसन्न हूं पर तृप्त नहीं । आगे के क्रम की प्रतीक्षा कर रहा हूं

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, साभार नमस्कार । हम प्रयासरत हैं कि अगला श्लोक यथाशीघ्र प्रकाशित हो जायेगा । इति शुभम् ।

  5. S k Nath says:

    विदुषी डॉ. किरण जी, सादर प्रणाम । मेरी जिज्ञासा है कि विल्वाष्टक मंत्र में ” मूल तो ब्रम्ह रूपाय…..” यह विल्व वृक्ष के लिए है अथवा विल्व पत्र के लिए । मेरा और एक अनुरोध है कि आप रूद्राष्टक , शिव महिम्न एवं शिव तांडव स्तोत्र के विषय में सामूहिक प्रकाश डालें तो बहुत कृपा होगी । धन्यवाद जी। कष्ट के लिए क्षमा प्रार्थी भी हूं । ््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््

    • Kiran Bhatia says:

      इस विषय में मननोपरान्त ही कुछ कह पाऊँगी । प्रशंसाधिक्य का सेवन साधक के लिये अपथ्य है, इससे कृपया किनारा करें । आपके सुझाव का स्वागत है । इति नमस्कारान्ते ।

  6. S k Nath says:

    A very very happy new year to u all family members. I will wait for your opinion on the subject . Meanwhile thanks for early reply .

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