महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक १७
Shloka 17विजितसहस्रकरैकसहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारकसंगरतारकसंगरतारकसूनुनुते ।
सुरथसमाधिसमानसमाधिसमानसमाधिसुजाप्यरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
विजितसहस्रकरैकसहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते | ||
विजितसहस्रकरैकसहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते | → | विजित + सहस्र + करैक + सहस्र करैक + सहस्रकरैकनुते |
विजित | = | जीत लिया गया |
सहस्र | = | हज़ार |
करैक | = | हाथों द्वारा |
सहस्र | = | हज़ार |
करैक | = | हाथों द्वारा |
सहस्रकरैकनुते | = | हज़ार हाथों द्वारा स्तुत ( जिसकी स्तुति की गई हो) |
कृतसुरतारकसंगरतारकसंगरतारकसूनुनुते | ||
कृतसुरतारकसंगरतारकसंगरतारकसूनुनुते | → | कृत + सुरतारक + संगर + तारक + संगरतारकसूनुनुते |
कृत | = | किया गया |
सुरतारक | = | देवों का रक्षक |
संग्राम | = | युद्ध |
तारक | = | बचाने वाला, सेनापति |
संगरतारकसूनुसुते | = | (देव) सेनापति पुत्र से स्तुत, नमस्कृत हे (देवी) |
सुरथसमाधिसमानसमाधिसमानसमाधिसुजाप्यरते | ||
सुरथसमाधिसमानसमाधिसमानसमाधिसुजाप्यरते | → | सुरथ + समाधि +समान + समाधि + समान +समाधि + सुजाप्यरते |
सुरथ | = | एक राजा का नाम है |
समाधि | = | एक वैश्य का नाम है |
समान | = | एक जैसी |
समाधि | = | साधना, तपस्या |
समान | = | इस प्रकार की |
समाधि | = | समाधियों में |
सुजाप्यरते | = | जपे जाने वाले मंत्रों में प्रीति रखने वाली हे (देवी) |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
विजित सहस्र करैक सहस्र करैक सहस्रकरैकनुते (हे) कृत सुरतारक संगर तारक संगरतारकसूनुनुते (हे) सुरथ समाधि समान समाधि समान समाधि सुजाप्यरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
अपने सहस्र हाथों से देवी ने जिन जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहस्र दानवों को पराजित किया उनके द्वारा और (देवताओं के) सहस्र हाथों द्वारा वन्दित हे देवी, तथा अपने पुत्र को सुरगणों का तारक (तार देने वाला यानि रक्षक) बनानेवाली एवं तारकासुर के साथ युद्ध में, (देवताओं के पक्ष में) युद्ध बचाने वाले पुत्र से नमस्कृत हे माता, इसके अलावा सुरथ नामक राजा और समाधि नामक वैश्य द्वारा समान रूप से की हुई तपस्या (साधना) से व इस प्रकार की समाधियों में जपे जाने वाले मंत्रों से प्रसन्न रहनेवाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनी के सत्रहवें श्लोक में सहस्र भुजाओं वाली देवी के दर्शन होते हैं । तीनों पंक्तियों में तीन पृथक पृथक प्रसंगों का उल्लेख है । पहली पंक्ति में देवी के सहस्र भुजा धारण कर दैत्यों के साथ युद्ध की बात कवि ने कही है। यहाँ `सहस्रकरैक` शब्द तीन बार आया है, जिसका अर्थ है सहस्र करों अर्थात हाथों से । विजितसहस्रैक का अर्थ हुआ कि जीते हुए सहस्र हाथों द्वारा अर्थात् जिन हजारों दैत्यों को पराजित किया, उनके हजार-हजार हाथों द्वारा जो वन्दित हैं, ऐसी हे देवी ! उसके बाद आने वाले सहस्रकरैक शब्द से तात्पर्य है अपने हजार हाथों से, अब इन दोनों का मिला कर अर्थ होगा कि अपने हजार हाथों से जिन हजारों दैत्यों को रणभूमि में जीता, हजारों को जीता तो उन पराजित दैत्यों के हाथ भी हज़ारों हुए, अतः उनसे नमस्कृत । दैत्यों से त्रस्त हजारों देवतागण करबद्ध हो कर भगवती से अपनी रक्षा की प्रार्थना करते हैं, अतः सहस्रकरैक कह कर उन्हें हजारों हाथों से वन्दित कहा गया। कुल मिला कर इस पंक्ति में स्तुति करते हुए कहा गया है कि अपने हजार करों से जीते हुए दैत्यों के हजार-हजार करों से और हजारों देवताओं के करों से या देवताओं के हजार हाथों से नमस्कृत हे देवी !
इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में संगरतारक शब्द दो बार आता है। संग्राम का अर्थ है युद्ध । तारक शब्द की आवृत्ति भी तीन बार दिखाई देती है । तारक का एक अर्थ है तारने वाला । कृतसुरतारक से अभिप्रेत अर्थ है पुत्र को सुरों का तारक बनाया । यह तो हुआ पहले तारक का अर्थ । संगरतारक में तारक का अर्थ है बचाने वाला, संगर को देवताओं के पक्ष में बचाने वाला यानि देवपक्ष को युद्ध में विजयी बनाने वाला । यह हुआ दूसरे तारक का अर्थ तथा एक और तारक से अभिप्राय तारक नामक असुर से है, जो तारकासुर के नाम से जाना जाता है । यह हुआ तीसरे तारक का अर्थ । तात्पर्य यह कि तारकासुर को मारने के लिये अपने पुत्र कार्तिकेय स्वामी को देवताओं का सेनापति बनाने वाली । तारकासुर ने ब्रह्माजी से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप स्वयं के अवध्य होने के कारण देवों के साथ युद्ध कर, स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था । वह वरदान के अनुसार केवल शिव-पार्वती के औरस (उनके वीर्य से उत्पन्न) पुत्र द्वारा ही वध्य था और भगवान शिव उस समय अपनी पत्नी सती के योगाग्नि में भस्म हो जाने से सती के वियोग में संसार से विरक्त हो कर हिमालय पर तपस्या करने चले गए थे । अतः उनके सत्व (वीर्य) से पुत्रोत्पत्ति की कोई संभावना न दिख रही थी । ऐसी स्थिति में तारकासुर स्वयं को अमर मान बैठा था, क्योंकि अन्य कोई तो उसे मारने में सक्षम था नहीं । तत्पश्चात् हिमालय के घर पर पार्वती रूप में सती के अवतरण पर, जब पर्वतराज-पुत्री पार्वती व शिवजी का विवाह होता है तब उनसे उत्पन्न उनके पुत्र कुमार कार्त्तिकेय देव-सेनापति बन कर तारकासुर से युद्ध कर के उस असुर का वध करते हैं । अतः यहाँ कृतसुरतारक का अर्थ है (अपने पुत्र को)) सुरों का रक्षक बनाना । इसके बाद आने वाले संगरतारक का अर्थ है युद्ध को बचाने वाला, तारक यानि बचाने वाला, दूसरे शब्दों में कह जाये तो युद्ध में जीत दिलवाने वाला व अन्य संगरतारक यानि तारक नामक असुर से संगर यानि युद्ध करने वाला । सूनुनुते का अर्थ है पुत्र से वन्दित । कुल मिल कर पूरी पंक्ति का अर्थ हुआ कि अपने पुत्र को तारकासुर के साथ संग्राम में देवताओं का रक्षक अथवा सेनापति बना कर, युद्ध को जितवाने वाले अपने परम पराक्रमी योद्धा-पुत्र से वन्दित हे देवी !
इस काव्य की तीसरी पंक्ति में राजा सुरथ और समाधि नामक कुलीन वैश्य की कथा की ऒर संकेत है । राजा सुरथ अपने शत्रु द्वारा पराजित हो कर तथा अपने मंत्रियो के विश्वासघात के कारण विरक्त हो गए थे । दूसरी ओर समाधि नामक उच्चकुल में उत्पन्न एक वैश्य अपने धन के लोभी स्त्री-पुत्रों द्वारा अपने ही घर से निकाल दिया गया था । शत्रुओं के भय से भयभीत राजा सुरथ और परिवार से विक्षुब्ध वैश्य समाधि वन में मिलते हैं व एक दूसरे के मित्र बन जाते हैं। इसके पश्चात् एक-दूसरे की आपबीती सुन कर सुमेधा ऋषि के आश्रम में जाते हैं, तो ऋषि उन दोनों को देवी का मंगलकारी नवाक्षरमंत्र प्रदान करते हैं। वेदोक्त विधि से भगवती चण्डिका (शिवा) की आराधना करने के लिए कहते हैं । फलतः दोनों पूजन आदि करते हैं, तथा कठोर तप भी । देवी का ध्यान लगाते हैं और अंततः देवी प्रसन्न हो कर दोनों को दर्शन दे कर कृतकृत्य करती हैं । यहाँ कहां गया है कि राजा सुरथ की तथा (वैश्य) समाधि की समाधि समान थी, समान रूप से दोनों ने ध्यान लगाया था । स्तुतिकार कहता है कि राजा सुरथ और वैश्य समाधि दोनों ऊंचे कुल के भद्र व्यक्ति थे । दोनों ने एक समान रूप से साधना की । आगे कवि कहते हैं समानसमाधिसुजाप्यरते अर्थात् इस प्रकार की साधना में जपे जाने वाले जाप्य मन्त्रों में प्रीति रखने वाली हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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“ब्रह्माजी से पाप्त वरदान के फलस्वरूप” के स्थान पर “ब्रह्माजी से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप” लिख कर त्रुटि को दूर करें।
धन्यवाद । गलती सुधार दी गई है । इति शुभम् ।
“एक वैश्य अपने ढहन के लोभी” पंक्ति में कृपया “ढहन” शब्द के अर्थ को लिखें। यदि यह शब्द त्रुटिवश लिखा गया है तो इसे सुधारने का प्रयास करें।
इस ओर ध्यान खींचने के लिए धन्यवाद । गलती सुधार दी गई है ।
जहाँ भी मैंने Audio सुना वहाँ ‘संगतारक’ की जगह ‘संगरतारक’ सुनाई दे रहा है.. कृपया सही शब्द की पहचान करके अर्थ स्पष्ट करें..
जी हाँ, संगरतारक ही सही है । संगतारक टाइपिंग की ग़लती से हो गया । इस ओर ध्यान खींचने के लिये धन्यवाद ।
सादर नमस्ते महोदये ?
कुछ Typos के प्रति आपका ध्यान देना चाहूँगा :
१. = से पहेले संग्राम के स्थान पर संगर होना चाहिए
२. = के बाद संग्राम, युद्ध
३. = से पहेले संगरतारकसूनुसुते के स्थान पर संगरतारकसूनुनुते होना चाहिए
आदरणीय महोदय, हमारा पाठ शुद्ध है । जिस पुस्तक से हमने लिया है, उसमें यही है । इति शुभम् ।
सूनुसुते है या सूनुनुते है? दोनों में से कोई भी है तो कृपया इसको सन्धि विच्छेद करके समझाएं। “सूनु” का क्या अर्थ है?
सूनु+नुता = सूनुनुता । सूनु का अर्थ है पुत्र और नुता का अर्थ है वन्दिता । इस तरह सूनुनुता का अर्थ हे पुत्र से वन्दित है जो, वह । संबोधन के कारण सूनुनुता का सूनुनुते रूप हो गया है ।