शिवसंकल्पसूक्त
मन्त्र ४
Mantra 4 Analysisयेनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
अन्वय
येन अमृतेन इदं भूतं भुवनं भविष्यत् सर्वं परिगृहीतं येन सप्तहोता यज्ञः तायते तत् मे मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
सरल भावार्थ
जिस सनातन मन से भूत, भविष्य व वर्त्तमान- तीनों कालों का प्रत्यक्षीकरण होता है, जिसके द्वारा सप्त होतागण यज्ञ का विस्तार करते हैं, ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों से युक्त हो !
व्याख्या
शिवसंकल्पसूक्त के चतुर्थ मन्त्र के अनुसार मन में सभी कालों का ज्ञान निहित है । मन को वश में किये हुए मनस्वी, योगी जब अहम् भाव से मुक्त हो जाते हैं तो ज्ञान की समस्त थाती को निज अंतःकरण में पा लेते हैं । मन वस्तुतः अंतःकरण की ही एक वृत्ति है । अपनी वृत्तियों के कारण अंतःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चार नामों से कहा जाता है । अंतःकरण अपनी वृत्तियों के आधार पर चार तरह का हो जाता है । इन्हें अन्त:करण चतुष्टय कहते हैं । संकल्प-विकल्प मन में उठते हैं । मनस्यति अनेन इति मनः अर्थात् साधक मन और इन्द्रियों को वश में करके आतंरिक उत्थान में उन्हें लगा कर आध्यात्मिक उन्नति करता है, एवं विराट चेतना अर्थात् परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ता है । किन्तु यह सब मन की विशुद्ध अवस्था पर निर्भर करता है । मन के द्वारा ही समय को, तीनों कालों को जाना जाता है । इस मन के भीतर ही मनुष्य के जन्मजन्मांतर का ज्ञान निहित है । साधक अपनी साधना की उन्नत अवस्था में अपने अतीत एव भावी को जानने में समर्थ होता है । मन को वशवर्त्ती करने वाला योगी तीनों कालों में होने वाली घटनाओं को अनुभूत करने में सक्षम होता है । किन्तु इस ज्ञान से वे आसक्त न होकर इसके प्रति उदासीन रहते हैं । अपने मन में स्थित विश्व-कल्याण की भावना व चिंतन के कारण वे निरुद्देश्य और निरर्थक अपने ज्ञान का, अपनी ऊर्जा, अपने समय का अपव्यय नहीं करते है । अपितु विश्व-कल्याण के कार्यों को सम्पादित करते हुए उनका विस्तार करते हैं ।
प्रस्तुत मन्त्र में आगे कहा है कि इस मन से ही सप्तहोता यज्ञ का विस्तार करते हैं । यज्ञों का विस्तार, शुभ कर्मों का प्रसार, शुद्ध तथा पापरहित मन वाले व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता है । ऐसे सत्पुरुष न केवल शुभ संकल्प ही करते हैं, अपितु शीघ्रातिशीघ्र उन्हें पूर्ण करने के साधन भी करते हैं, जैसे शास्त्रों में वर्णित एक कथानुसार राजा निमि के मन में यज्ञ करवाने के संकल्प के उठने पर उनका ऋषि वशिष्ठ से ऋत्विज बनने का निवेदन करना । ऋषि वशिष्ठ उस समय देवराज इंद्र का यज्ञ करावा रहे थे, जिससे उन्होंने कहा कि वे उस यज्ञ के पूर्ण होने के पश्चात् ही आ सकते हैं, जिसमें वर्ष से अधिक समय लग सकता है । महाराज निमि उत्कंठित हो गए और जीवन की क्षणभंगुरता ने प्रश्न उठा दिया कि क्या पता, जब तक इंद्र का यज्ञ पूर्ण हो, हमारे प्रयाण का समय आ जाये । शुभस्यशीघ्रम् सोचते हुए महाराज निमि ने तब गौतम ऋषि से सब वृतांत निवेदन किया, जिसे ऋषि ने मान लिया । यज्ञ का शुभारम्भ किया गया तथा सप्त ज्वालाओं से यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित हो उठी । अग्निपुराण के अनुसार अग्निदेव सात जिह्वाओं से युक्त हैं – कराली, धूमिनि, श्वेता, लोहिता, नीललोहिता, सुवर्ण तथा पद्मरागा । यह सातों अग्नि की सात ज्वालाएँ हैं ।
श्रीविष्णुपुराण के तृतीय अंश व दूसरे अध्याय में लिखा है कि प्रत्येक चतुर्युग के अंत में वेदों का लोप होता है, तथा उस समय सप्तर्षिगण स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं । वेदों का ज्ञान यज्ञ-संस्कृति का पोषक है । इस प्रकार वे सप्तऋषि यज्ञकर्मों का विस्तार करते हैं । ज्ञान अथवा ईश्वर का प्रवेश होता ही शुद्ध अंतःकरण में है । गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में राम यही बात कहते हैं:
यही कारण है कि वे जनकसुता जगजननी जानकी से निर्मल मति पावउं की विनती करते हैं । यज्ञ करने वाले होता या ऋत्विज वही होते हैं, जो पाप से रहित हों, विशुद्ध चित्तवाले हों । इस मन्त्र में कहा गया है कि जिस मन से सप्तहोता यज्ञों का विस्तार करते हैं, हमारे ऐसे उस मन में सदा कल्याणकारी संकल्पों का उदय हो । होता अर्थात् यज्ञ का पुरोहित । भारतीय संस्कृति में सभी संस्कारों के साथ हवन, होम, अग्निहोत्र अथवा यज्ञ की परम्परा जुडी हुई है । यह वैदिक कृत्य है, जिसमें यज्ञ की व्यवस्था करने वाला, व्ययभार उठाने वाला यजमान कहलाता है तथा यज्ञ कराने वाला पुरोहित या ऋत्विज् कहलाता है । शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ को देवों की आत्मा कहा गया है:
और साथ ही श्रेष्ठतम कर्म को भी यज्ञ की संज्ञा दी है:
यज्ञ के मुख्य चार ऋत्विज होते हैं — ब्रह्मा, अध्वर्यु, होता और उद्गाता । प्रचलित अर्थ में यज्ञ कराने वाले पुरोहित को भी होता कहा जाता है । इस मन्त्र के अनुसार होतागण यज्ञ का विस्तार करते हैं । विस्तार से तात्पर्य कार्य आगे बढ़ाने से है, प्रचार-प्रसार करने से है । होतागण यज्ञ का विस्तार करके, यज्ञ-संस्कृति को समृद्ध करते हैं समृद्धि आतंरिक और बाह्य दोनों प्रकार की होती है । दोनों प्रकार से समृद्ध होकर ही व्यक्ति समृद्धिवान बनता है । इसी को धन की देवी लक्ष्मी का श्री रूप में आना कहते हैं । लक्ष्मी यदि केवल संपत्ति रूप में आये, तो वह केवल क्षणिक सुखों की अतिशयता की देने वाली होती है, वही जब श्री रूप में आती है तो परमपद -प्राप्ति के द्वार भी खुलते हैं, व्यक्ति सद्गुणों से संवलित होकर सत्कर्म, यज्ञकर्म आदि में स्वयं को नियोजित करता है । परिवार से लेकर विश्व-परिवार तक सभी संघटन यज्ञ हैं । केवल अगिहोत्र करना ही यज्ञ नहीं है । परम चैतन्य व उसके अंश रूप मनुष्य की सेवा करना यज्ञ है, धर्म व समाज का उत्थान करना, मानवीय मूल्यों की रक्षा करना यज्ञ है । वेद ने इस सृष्टि को यज्ञमय कहा है ।
अर्थात् हमारा मन सभी संकल्पों का अयन (आश्रय) है । अतः ऋषि परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हमारा मन श्रेष्ठ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ।
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ATI SUNDAR .THANKS A LOT. OM
You are welcome Mr. Yatin Kumar Sharma. Namaskar.
very good….my name dr kiran patel…and regular fan of shiv mahimna ,my all family members
Thank you very much Dr. Kiranbhai Patel . ॥ ॐ नम: शिवाय ॥
I must say that your explanation is wonderfully . This is high quality effort.
Thank you. It is God’ grace. ।। ॐ नम: शिवाय ।।
Wonderfully lucid#. May God bless you!
Thank you Mr. Kumar.
हमें पृथ्वी पर स्थित सभी जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों के उत्थान एवं कल्याण के बारे में विचार करना चाहिए।
सही कहा आपने ।