शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक ८
Shloka 8 Analysisनवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमःप्रबद्बबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ।।
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत् | → | नवीनमेघमंडली + निरुद्ध + |
+ दुर्धर + स्फुरत् | ||
नवीनमेघमंडली | = | नवीन मेघमाला |
निरुद्ध | = | घिरी हुई, ढंकी हुई, आच्छादित |
दुर्धर | = | दुस्सह, जो रोक न जा सके |
स्फुरत् | = | फैलता हुआ, चमकता हुआ |
कुहूनिशीथिनीतमःप्रबद्धबद्धकन्धरः | → | कुहू + निशीथिनी + तमः + |
प्रबद्ध + बद्ध + कन्धरः | ||
कुहू | = | अमावस्या |
निशीथिनी | = | रात्रि, अर्धरात्रि |
तमः | = | अन्धकार |
प्रबद्ध | = | कसा हुआ, गठीला |
बद्ध | = | दृढ़ |
कन्धरः | = | कण्ठ-प्रदेश |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतुकृत्तिसिन्धुरः | → | निलिम्पनिर्झरीधरः + तनोतु |
+ कृत्तिसिन्धुरः | ||
निलिम्पनिर्झरीधरः | = | सुरसरिताधर, गंगाधर |
तनोतु | = | रक्षा करें |
कृत्तिसिन्धुरः | = | गजचर्म धारण करने वाले, गजचर्म से सुशोभित |
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः | ||
कलानिधान | = | चन्द्रकला के आश्रय-स्थान |
बन्धुरः | = | मनोहर, सुन्दर |
श्रियं | = | लक्ष्मी को |
जगत् | = | संसार |
धुरंधरः | = | भार वहन करने वाला, जगदाधार |
अन्वय
नवीन मेघमण्डली निरुद्ध दुर्धर स्फुरत् कुहू – निशीथिनी तम: ( सदृश: यस्य ) प्रबद्ध – बद्ध कन्धर: ( स: ) निलिम्पनिर्झरीधर: कृत्तिसिन्धुर: कलानिधान बन्धुर: जगद्धुरन्धर: ( न: ) श्रियं तनोतु ।
भावार्थ
नवीन जलधर-समूह से घिरी हुई अमावस्या की रात्रि की-सी प्रगाढ़ कालिमा से आच्छादित जिनका कण्ठ-प्रदेश है, जो सुरसरिताधर अर्थात् गंगाधर हैं व गजचर्म धारण किये हुए हैं एवं चंद्रकला की शोभना से सुन्दर कान्ति वाले हैं साथ ही जो जगत की धुरी को धारण करते हैं (प्रकारान्तर से गंगाधर, गजचर्माम्बरधर, सुन्दर चंद्रधर एवं जगदाधार), वे भगवान मेरी श्री की रक्षा करें ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के आठवें श्लोक में रावण का कहना है कि नवीन मेघमाला (नवजलधर-समूह) से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के दुस्सह अंधकार-सी कालिमा जिनके गठीले (सुपुष्ट) गले पर अंकित है (अर्थात् उनके गले का रंग गहरा नीला है) और जिन्होंने सुरसरिता गंगा को धारण किया है, एवं जो गजचर्म से सज्जित, चन्द्रकला की शोभना से मनोहर कांति वाले हैं वे जगदाधार शिव मेरी लक्ष्मी का विस्तार करें ।
प्रस्तुत श्लोक में रावण ने विषपायी भगवान नीलकंठ के निगूढ़ कालिमाच्छन्न कंधर अथवा कण्ठ-प्रदेश की समानता अमावस्या की अर्ध-रात्रि के अंधकार से की है । प्रत्येक चांद्रमास के कृष्ण-पक्ष का पन्द्रहवां दिन अमावस्या की तिथि होती है, इसे अमावस या अमावसा भी कहते हैं । इस दिन सूर्य तथा चंद्र एक ही राशि में साथ-साथ रहते हैं । गोभिल के अनुसार “सूर्यचन्द्रमसोः यः परः सन्निकर्षः साsमावस्या ।” अर्था्त् वह समय जब सूर्य और चंद्रमा दोनों संयुक्त रहते हैं, वह ( तिथि) अमावस्या होती है । व्यासजी का कहना है “अमायाम् तु सदा सोम ओषधीः प्रतिपद्यते” अर्थात् अमा में सोम सदा औषधियों को प्रदान करता है । अमावस्या दो प्रकार की होती है । एक जिसमें चन्द्र की एक कला दिखाई दे जाती है, उसे सिनीवाली अमावस्या कहते हैं तथा दूसरी जिसमें चन्द्र की एक भी कला नहीं दिखती है, उसे कुहू कहते हैं । इस श्लोक में रावण द्वारा कुहूनिशीथिनीतम: कहने से अभिप्राय प्रगाढ़ अंधकार से है, (ऐसे अंधकार को संस्कृत में सूचीभेद्य अन्धकार भी कहते हैं सूचिभेद्य कहने से आशय यह है कि यह इतना घनीभूत है कि इसे सूचिका अर्थात सुई से भेदा जा सकता है । ) इतना ही नहीं, नवीनमेघमण्डली भी छाई हुई है, जो अँधेरे की सघनता सूचित करती है । लिंग-पुराण में मेघों के विषय में कुछ रोचक तथ्य प्राप्त होते है । अति संक्षेप में वे इस प्रकार हैं । लिंग-पुराण का कथन है कि वायु द्वारा उत्तेजिताग्नि से पदार्थों के जल जाने पर जो-जो कुछ धुंए के रूप में निकलता है और फिर वायु द्वारा ऊपर ले जाया जाता है उसे अभ्र कहा गया है । अभ्र का अर्थ है जो नष्ट नहीं होता है । इस प्रकार धूम, अग्नि तथा वायु के संयोग को अभ्र अथवा मेघ कहते हैं जो जल की वर्षा करता है । मेहन् शब्द से मेघ व्युत्पन्न कहा गया है । मेघों के स्वामी सहस्रलोचन इंद्र हैं । यज्ञ के धुंए से उत्पन्न मेघ सब के लिए हितकर हैं और दावानल के धूम से उत्पन्न मेघ वनों के लिए हितावह होते हैं । काष्ठ, वाहन, वैरिन्च्य तथा पक्ष यह विभिन्न प्रकार के मेघ होते हैं । इसके अलावा उत्तंक नामक मेघ भी होते हैं जो अनेकानेक वर्षों के अन्तराल पर मरुभूमि पर बरसते हैं लेकिन स्वल्प समय के लिये व अत्यन्त सीमित स्थान पर, बस इतना भर कि एक व्यक्ति स्नान मात्र कर ले और अपनी तृषा भर मिटा पाये । कुछ अल्प वृष्टि करने वाले होते हैं और कुछ मेघ दीर्घकाल तक शीतल वायु वाले होते हैं । कुछ मेघ क्षीण होते हैं, फलतः विद्युत एवं ध्वनि से रहित होते हैं । इनका एक अन्य प्रकार है कल्पज, ये अति महान होते हैं और कल्प के अंत में विनाश के लिए रात्रि में बरसते हैं । पुष्कर आदि मेघ जब बरसते हैं तो सम्पूर्ण विश्व सागरमय हो जाता है और भगवान शेषशायी रात्रि में शयन करते हैं ।
रावण ने प्रस्तुत श्लोक में कुहू अमावस्या की अर्धनिशा में नवीनमेघमण्डली के छाने की बात कही है ।
स्पष्ट है कि नभ के मेघाच्छन्न होने से तारक-द्युति भी अवरुद्ध हो जाती है । नक्षत्र एवं सप्तर्षि-मंडल, जो लोग प्रायः अमा की रात्रि को देख लेते हैं, वह सब काली घटा के छा जाने से अदृष्टिगोचर हो जाता है । फलतः घटाटोप, घनिष्ठ अन्धकार व्याप्त है, और उस अंधकार-सी सघन कालिमा से अभिव्याप्त है शिव का प्रबद्धबद्धकन्धर: अर्थात् बलिष्ठ कंठ-प्रदेश, जहाँ कालकूट हलाहल को रख कर वे नीलकण्ठ कहलाये । पुराणों में कथा आती है कि समुद्र-मंथन के समय समुद्र से पहले-पहल हालाहल नाम का अत्यंत उग्र विष निकला, जिसकी ज्वालाओं से तीनों लोक जलने लगे । देवता और असुर अपनी चेतना खोने लगे । सर्वत्र हाहाकार मच गया । किसी में भी ऐसा सामर्थ्य न था कि विष की ज्वाला शांत कर सके । उस असह्य विष से बचने का कोई उपाय भी तो न था । भयभीत हो कर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति भगवान सदाशिव की शरण में गए । प्रजा का यह संकट देखकर सर्वभूतसुहृद् शिव ने संसार पर महान अनुग्रह किया और हलाहल-पान करना स्वीकार कर लिया । उस समय शिव ने पार्वती से कहा कि,
क्षीरोदमथनोद्भूतात् काळकूटादुपस्थितम् ।
आसां प्राणपरीप्सुनाम् विधेयमभयं हि मे ।
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद् दीनपरिपालनम् ।
अर्थात् हे देवि, समुद्र-मंथन से निकले कालकूट विष के कारण प्रजा पर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है । इस समय मेरा कर्त्तव्य है कि प्राणरक्षा के इच्छुक इन लोगों को मैं निर्भय कर दूँ । जो सामर्थ्यवान है, साधनसंपन्न हैं, उन्हें अपने सामर्थ्य से दूसरों का दुःख अवश्य दूर करना चाहिए, इसीमें उनके जीवन और सामर्थ्य की सफलता है । यह कह कर उन्होंने हलाहल-पान किया और उस विष को अपने कंठ में रख लिया जिससे उनका कंठ-प्रदेश नील वर्ण का हो गया । इस प्रकार वे नीलकण्ठ कहलाये । विषपायी शंकर के लिए चौरपंचाशिका में लिखा है कि,
अर्थात् अभी तक हर ने कालकूट विष को बाहर नहीं निकाला है, अभी भी उसे कण्ठ में रखे हुए हैं । हिंदी के प्रथम राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की इस संबंध में बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं ।
अमर सुधा से जीते हैं
किन्तु हलाहल भव – सागर का
शिव शंकर ही पीते हैं ।
इस प्रकार विष को कण्ठ में रखने से भगवान शंकर का कंधर-प्रदेश कल्माष रंग से रंजित हुआ । हिंदी भाषा में `कंध` शब्द स्कंध के अर्थ का द्योतक है, किन्तु संस्कृत भाषा में इससे `ग्रीवा या `कण्ठ` अर्थ अभिप्रेत है । कं +धरः= कंधर, कं का अर्थ है सिर और धर: यानि धारण करने वाला । सिर पर धारण करने के आशय से कण्ठ को कन्धर कहा जाता है । गुणागार शिव में विरुद्ध रूप-धर्म वाले गुण भी संश्रय पाते हैं । उनमें द्वंद्व लक्षित नहीं होता । उनकी प्रकृष्ट ग्रीवा में गाढ़ तिमिर की बाढ़ में डूबी कुहू कलापिनी की कालिमा है तो शीश पर शीतल शशांक की शोभना श्वेतिमा । एक ओर विष का दाह अग्नि उत्पन्न कर रहा है तो दूसरी ओर देवापगा की शीतल, दुग्धधवल धार उनके कण्ठ का अभिषेक करती हुई लोक में लहरा रही है । वे स्फूर्तिमूर्ति सुधाशुं को संश्रय प्रदान करते हैं । प्रसिद्ध भृगुसंहिताचार्य श्री दिवाकर शास्त्री के अनुसार चँद्रमा अत्यंत आह्लादिनी, सन्तापहारिणी अमृत-रश्मियों का विकिरण करता है । एक ओर विष और दूसरी ओर अमृत । भगवान शिव की शरण में जा कर चँद्र अपने पीछे आते हुए राहु के भय से मुक्त हुआ । द्वितीय का चन्द्र जो उन्होंने शीश पर धरा है उसे राहु का भय नहीं है । द्वितीया के चन्द्र को ग्रहण नहीं लगता है । चाँद स्वच्छ, सुन्दर और नेत्रों को सुखद होता है । यहाँ यह बताने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि शास्त्रों में वर्णित आख्यानों के अनुसार प्रायः लोक-व्यवहार में भाद्रप्रद मास की शुक्ल-पक्ष की चौथ के चन्द्र के दर्शन का निषेध है । कहीं-कहीं पर तो भादों के दोनों पक्षों की चतुर्थियों का चन्द्र-दर्शन निषिद्ध है । कहते हैं कि भादों की चौथ का चन्द्र देखने से देखने वाले पर चोरी का मिथ्या आरोप लग जाता है। भगवान कृष्ण को चौथ का चन्द्र देख लेने से चोरी का मिथ्या आक्षेप लगा था। भागवत-पुराण में स्यमन्तक मणि का उपाख्यान आता है जिसमें सत्राजित ने कृष्ण पर उनकी स्यमन्तक मणि को चुराने का झूठा आरोप लगाया था। कहते हैं कि यदि गलती से चन्द्र-दर्शन हो जाये तो उसका परिहार यह है कि भगवन श्रीकृष्ण की उस कथा का ( भागवत १०। ५७ ) श्रवण कर ले , जिसमें उन पर झूठा आरोप लगा था। ज्योतिष-चंद्रिका में कहा गया है,
अर्थात सिंह-राशि में सूर्य के आने पर भादों के मास की चौथ को जो कोई भी चन्द्र-दर्शन करेगा उसे मिथ्या कलंक लगेगा । अन्य सभी तिथियां समुपयुक्त हैं । चँद्रमा कलानिधि हैं । इनकी सोलह कलाएं कही जाती हैं । दिवाकर शास्त्रीजी ने इन षोडश कलाओं के नाम भी अपनी पुस्तक में वर्णित किये हैं, जो इस प्रकार हैं–अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चन्द्रिका, कांति, ज्योत्स्ना, श्रिय, प्रीति, अंगदा, पूर्णा, पूर्णामृता । चँद्रमा इन कलाओं को धारण करने से कलाधर कहे जाते हैं तथा शिव इन्हीं कलाधर को धारण करने से कलानिधान के नाम से अभिहित किये जाते हैं । शिव के आश्रय में रहने का प्रभाव गोस्वामी तुलसीदास इस तरह वर्णित करते हैं,
यमाश्रितो ही वक्रोsपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।
उनका कहना है कि मैं श्रीशंकररूपी ज्ञानस्वरूप, नित्य श्रीगुरुजी की वंदना करता हूँ, जिनके आश्रित (शरण) होकर चन्द्र वक्र होकर भी पूजा जाता है । शिव चंद्रार्धधारी हैं । वक्र से शुक्ल-पक्ष की द्वितीय का चन्द्र अभिप्रेत है । इस टेढ़े चन्द्र को राहु नहीं ग्रसता है । ” बक्र चंद्रमहि ग्रसै न राहु “(रामचरितमानस) । शिवजी के ललाट पर स्थित होने से वह वंदनीय हो जाता है । चन्द्र की विशेषताएं बताते हुए `लिंगपुराण` का कहना है कि चन्द्र आह्लाद देते हैं तथा यह शुक्लत्व, अमृतत्व तथा शीतत्व को भी प्रकट करते हैं । उद्भट ने चन्द्र को परोपकारी भी कहा है,
अर्थात् महान् लोगों की महानता अपूर्व है, विपत्तिकाल में भी वे परोपकार करते हैं, जैसे राहु से ग्रस्त होने पर ग्रहण वाले दिन चन्द्र बहुत पुण्यों का देने वाला होता है ।
इस श्लोक के अंत में रावण शिव को जगद्धुरन्धर कहता है, क्योंकि वे विश्व के आधार हैं । जगदाधार शिव को स्थाणु के नाम से भी अभिहित किया जाता है । लिंग-पुराण के अनुसार जो इस विश्व को व्याप्त करके स्थित है वह स्थाणु कहा जाता है । “व्याप्य तिष्ठत्यतो विश्वं स्थाणुरित्याभिधीयते ।” पंच महाभूत-तन्मात्रा-इन्द्रियां-अहंकार-जीव-प्रकृति आदि का कार्य सभी कुछ शिव-आज्ञा का विस्तार है, सब उन्हीं से व्याप्त हैं, अतः वे स्थाणु हैं, जगत के स्थितिसाधन हैं ।
आठवें श्लोक में रावण का कहना है कि ऐसे सुखद चन्द्र की कलाओं से और भी मनोमुग्धकारी लगने वाले, गजचर्म से शोभित और भुवन-वंद्या, पुण्यतोया देवापगा को धारण करने वाले व समस्त जगत का भार वहन करने वाले वे मुग्धेन्दुशेखर मेरी लक्ष्मी की रक्षा करें । मेरी लक्ष्मी अक्षुण्ण रहे, अक्षीण रहे, कभी क्षीण न हो, कभी क्षय को प्राप्त न हो । रावण को यह विज्ञ है कि शिव कलानिधान हैं तो कलातीत भी है, प्रलयंकर हैं तो शंकर, शुभंकर भी हैं, दग्ध करते हैं तो शरण में भी ले लेते हैं । राक्षसेन्द्र रावण ने अकूत सम्पदा अर्जित की थी । यहाँ यह ध्यातव्य है कि वह शिवजी का शिष्य भी था । उसने कई गुह्य विद्याएँ महादेव से सीखी थीं । स्कंदपुराण के अनुसार “ज्ञानं विज्ञानसहितं लब्धतेन सदाशिवात्” अर्थात् उसने सदाशिव से विज्ञान सहित ज्ञान प्राप्त किया था । वह प्रचण्ड पराक्रम व तपोबल से अर्जित अपनी श्री को अखंड रखने की अभ्यर्थना प्रस्तुत श्लोक में जगदाधार महादेव से करता है, जो उन्हीं को प्रसन्न करके उसने प्राप्त की थी ।
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कृपया सबसे ऊपर श्लोक में ‘कलनिधानबंधुर:’ की जगह पर ‘कलानिधानबंधुर:’ इति वर्तनी सुधार करें।
साथ ही उत्तम व्याख्या उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।
धन्यवाद, त्रुटि बता कर आपने बहुत अच्छा किया । सुधार कर दिया है ।
प्रबंध की जगह प्रबद्ध आएगा
इस ओर ध्यान खींचने के लिये धन्यवाद ।
नमस्कार उत्तम व्याख्या उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद। प्रबंध की जगह प्रबद्ध आएगा। बद्ध शब्द किसके लिए प्रयोग हुआ है।
मान्यवर, सुधार कर दिया गया है । धन्यवाद । बद्ध शब्द कण्ठ-प्रदेश की दृढ़ता की अभिव्यंजना करता है, जैसा कि व्याख्या में बताया गया है । इति शुभम् ।
इस पद्य के अर्थ को पूर्ववत कीजिये, बहुत सारा शब्द रिपीट है मैडम।
आदरणीय मनीष कुमारजी, आपने पहले भी यह सराहनीय सुझाव भेजा था । सम्प्रति शिवमहिम्न:स्तोत्रम् पर कार्य चल रहा है, जिसके चलते इस पर कार्य करना शेष रह गया है (जो हमारे ध्यान में है) । तब तक के लिये पाठक-वृन्द को यह बताना चाहेंगे कि इन श्लोकों में (अन्वय के बाद के) पहले परिच्छेद में समूचे श्लोक का सरल-संक्षिप्त भावार्थ प्रस्तुत किया गया है, तत्पश्चात् व्याख्या की गई है । अत: इसे पुनरावर्तन न मानें । हाँ, आपकी असुविधारूपी आपत्ति के निवारणार्थ हम कृतनिश्चय हैं । शेष शम्भु-कृपा । इति शुभम् ।