शिवसंकल्पसूक्त

मन्त्र ५

Mantra 5 Analysis

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।

अन्वय

यस्मिन् ऋचः यस्मिन् सामः यजूंषि रथानाभौ अराः इव प्रतिष्ठिता यस्मिन् प्रजानां सर्वं चित्तं ओतं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।

सरल भावार्थ

हे परमात्मा ! जिस मन में वैदिक ऋचाएं समाई हुई हैं, जिसमें साम और यजुर्वेद के मन्त्र ऐसे प्रतिष्ठित हैं, जैसे रथ के पहिये में `अरे` स्थित होते हैं (लगे होते हैं) तथा जिस मन में प्रजाजनों का सकल ज्ञान समाहित है, ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों से युक्त हो ।

व्याख्या

शिवसंकल्पसूक्त के पंचम मन्त्र में वैदिक ऋषि परमात्मा के सम्मुख  मन की शुद्धि की व मन को प्रबलता प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं । मन को श्रेष्ठ संकल्पों से युक्त करने की विनय करते हुए ऋषि यह कहते हैं कि संपूर्ण वेदराशि मन में ही छिपी हुई है । इस मन में तीनों वेदों का अपार-अमाप ज्ञान निहित है । लेकिन भय इस बात का है कि अशुभ विचार भी जाने-अनजाने इस मन में आ जाते हैं । ऋषि मन को दृढ़ व साहसपूर्ण बनाना चाहते हैं ताकि वे अपने परम कर्त्तव्य को कर सके, कठिन तप और साधना में तत्पर रह सकें । उनके द्वारा मनुष्य का हित संपादित हो । मन में उठने वाले अच्छे-बुरे संकल्प कर्मों को प्रभावित करते हैं । ऋषियों के अनुसार  मन में ऋग्वेद की ऋचाएं निहित हैं अर्थात् समाई हुई हैं, इसी में सामवेद तथा यजुर्वेद के मन्त्र प्रतिष्ठित हैं । वेदों का समस्त ज्ञान मन के भीतर ही समाविष्ट है और वह भी कुछ इस तरह जैसे रथ के पहिये में अरे लगे होते हैं ।

Gita-Krishna-1उपर्युक्त मन्त्र में ऋषिगण पहली बात यह कहते हैं कि मन ही में वेदों की ऋचाएं एवं मंत्र समाहित है । तात्पर्य यह कि मनुष्य को शुद्ध मन परमात्मा से प्राप्त हुआ है, क्योंकि विशुद्ध ज्ञान केवल विशुद्ध मन ही में स्थित हो सकता है, विकारयुक्त मन में नहीं । मन में विकारों के आ जाने पर तमस का आवरण उसे आच्छादित कर देता है, फलतः अज्ञान से ज्ञान व उसका आलोक ढँक जाता है । मन में विकार का कारण है मलिन विचार, क्योंकि व्यक्ति जैसा चिंतन करता है, वह वैसा ही आचरण भी करने लगता है । गीता में श्रीकृष्ण का कहना है कि विषयभोगों का रागपूर्वक चिंतन करने से इन विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है:

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते
–गीता २/५९

इसलिए आध्यात्मिक जीवन में विचार और चिन्तन की शुचिता पर विशेष बल दिया जाता है । निर्मल-निर्विकार मन में ईश्वर प्रदत्त प्रेरणा अविलम्ब स्फुरित होती हैं, व्यक्ति को प्रश्नों के उत्तर, समस्याओं के समाधान, निराकरण स्वयमेव आश्चर्यजनक रूप से लब्ध होते हैं । वस्तुतः ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है और यह ज्ञान सार्वकालिक, सार्वभौमिक है, इसीलिए मन्त्र में कहा है कि मन में वैदिक ऋचाएं प्रतिष्ठित हैं, सामवेद व यजुर्वेद के मन्त्र समाहित हैं । वेदों में प्रदत्त ज्ञान कालजयी है । वह किसी देश-काल की सीमा में बंधा हुआ नहीं है, प्रत्युत् कालातीत और सीमातीत है जो प्रत्येक युग की कसौटी पर खरा उतरता है, प्रासंगिक है, मानव-सभ्यता की आधारशिला है । व्यक्ति विश्व के किसी भी भाग में हो, युग चाहे कोई भी, लेकिन वेद मन्त्रों के भीतर उसके प्रश्नों के निराकरण मिलते हैं । फिर प्रश्न या समस्याएं वैयक्तिक (व्यक्तिगत) हों, पारिवारिक हों या सामाजिक या चाहे वैश्विक स्तर की हों, भौतिक हों या आध्यात्मिक इन सभी के समाधान और उसके लिए उपयोगी साधन इन वेद-मन्त्रों में मिलते हैं । वेद ब्रह्मवाणी हैं । वेदों में वैदिक ऋषियों का अनुभूतिजन्य तत्व-दर्शन सन्निहित है । छल-कपट रहित, निष्पाप, संयत आत्मा वाले ऋषिगण दिव्य-दृष्टि रखते थे, जो उन्होंने दुःसह, कठोर तपश्चर्या के फलस्वरूप पाई थी । इस प्रकार शुद्ध मन वाले वे प्राणियों के हित-सम्पादन में रत रहते थे तथा स्वयं भी मुक्ति के अधिकारी बने । गीता (अध्याय ५) में भी लिखा है –

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मनः सर्वभूतहिते रताः ।। २५ ।।

अर्थात् नष्टपाप, छिन्नसंशय, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत तथा जीते हुए मन-इन्द्रियों वाले विवेकी साधक ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं ।

पांचवें मन्त्र में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार रथ के चक्र की नाभि में `अरे` लगे होते हैं, उसी प्रकार वेदों का ज्ञान मन में इस प्रकार प्रतिष्ठित है । रथ के चक में नाभि होती है, उसमें अरे लगे होते हैं । वैदिक ऋषियों को रथ-चक्र की नाभि में स्थित अरों का उपमान बहुत प्रिय था और अनेक स्थलों पर उनके द्वारा इसका प्रयोग देखने को मिलता है । प्रश्नोपनिषद से एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

अरा इव रथानाभौ प्राणी सर्वं प्रतिष्ठितम् । ऋचोयंजूषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च ।

अर्थात् जैसे रथ की नाभि में अरे लगे होते हैं, वैसे ही प्राण में ऋचाएं, यजु, सामगीत, यज्ञ, शक्ति और ज्ञान सभी निहित है । इस मन्त्र में मन के सामर्थ्य को दर्शाने हेतु इस उपमान को दिया गया है, जिससे अभिप्राय यह है कि रथ के पहिये में लगे रहने वाले अरे जैसे पहिये के मध्यस्थ नाभि में प्रविष्ट रहते हैं, वैसे ही ऋचाएं, यजुर्वेद के मन्त्र व सामगीत सब मन में प्रविष्ट रहते हैं । आगे कहा है कि प्रजाजनों का समस्त ज्ञान भी इस मन में प्रतिष्ठित रहता है । प्रकारांतर से मन सम्पूर्ण ज्ञान अपने भीतर समाहित किये हुए है । किन्तु उस ज्ञान के सकारात्मक उपयोग से ही विश्व-कल्याण संभव हो सकता है । संहारक शस्त्रों की खोज करने वाले, बमों और मानव बमों द्वारा विनाश की विभीषिका से विश्व को दहला देने वाले लोगों के पास भी जानकारियों की कमी नहीं है, कमी है तो शुभ भावों व कल्याण-कामना की ।ऐसे लोग अपने विनाशक संकल्पों से मानवता को केवल हानि ही पहुंचाते रहे हैं। अतः ऋषि प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे परमात्मा ! हमारा मन श्रेष्ठ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ।

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6 comments

  1. Niranjana says:

    One of the reader has suggested that this Shivasankalp should be included in Education system. It is 100% true. Nowadays the mind is to be purified . It is badly needed. In all the fields Perverted mind only involved in crime. So if this suggestion is accepted by education Dep. it will be most welcome.

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