शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक ३
Shloka 3 Analysisमधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव
ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थे अस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।३।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव | ||
मधुस्फीता | = | माधुर्यपूर्ण |
वाचः | = | (वेद) वाणी का |
परमममृतं | → | परमम् + अमृतम् |
परमम् | = | प्रचुर |
अमृतम् | = | अमृत (से भरी) |
निर्मितवतस्तव | → | निर्मितवतः + तवः |
निर्मितवतः | = | निर्माता को, प्रकाशक को |
तवः | = | आपको |
ब्रह्मन् | = | हे ब्रह्म |
किं | = | क्या |
वागपि | → | वाक् + अपि |
वाक् | = | वाणी |
अपि | = | भी |
सुरगुरोर्विस्मयपदम् | → | सुरगुरो: + विस्मय + पदम् |
सुरगुरो | = | देवगुरु (बृहस्पति) की |
विस्मयपदम् | = | आश्चर्य का विषय , विस्मयाभिभूत |
मम | = | मेरी |
त्वेताम् | → | तु + एताम् |
तु | = | तो |
एताम् | = | इस (को) |
वाणीं | = | वाणी को |
गुणकथनपुण्येन | → | गुणकथन + गुणकथनपुण्येन |
गुणकथन | = | गुणों को कहना या गुणों का बखान करना |
पुण्येन | = | पूण्य से , स्तुत्य कार्य से |
पुनामीत्यर्थे | → | पूनामि + इति + अर्थे |
पूनामि | = | पावन कर लूं, पावन करता हूं |
इति | = | इस, ऐसा |
अर्थे | = | आशय से |
अस्मिन् | = | इस |
पुरमथन | = | हे पुरारी, त्रिपुरान्तक |
बुद्धिर्व्यवसिता | → | बुद्धि:+ व्यवसिता |
बुद्धि | = | बुद्धि, मति |
व्यवसिता | = | प्रवृत्त हुई है, लगी है |
अन्वय
भावार्थ
हे ब्रह्मन् ! सुमधुर अमृतोपम वेदवाणी आपसे विनिर्मित है, ऐसे ( महिमामय प्रभु ) आपको देवगुरु ( बृहस्पति ) की वाणी भी क्या विस्मयाभिभूत कर सकती है ? हे पुरारी ! आपके गुणानुवाद के पुण्य से मेरी यह वाणी पवित्र हो जाये, इस आशय से ( मेरी ) बुद्धि इसमें ( आपके गुणकथन के कार्य में ) प्रवृत्त हुई है ।
व्याख्या
शिवमहिम्नःस्तोत्रम् के तीसरे श्लोक में गंधर्वराज पुष्पदंत भगवान शिव की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे ब्रह्मन् ! सुधावर्षिणी सुमधुर-मनोहरा वेदवाणी की उत्पत्ति आपसे हुई है । वस्तुतः वाणी की मधुमयता और मृदुलता का चरम उत्कर्ष वेदों में मिलता है । वेद सनातन धर्म औरआर्ष-संस्कृति के प्राण हैं तथा अपौरुषेय माने जाते हैं । परमात्मा द्वारा प्रकट किये जाने तथा उन्हीं से अपने अन्तःकरण में ऋषियों द्वारा सुने जाने के कारण इन्हें श्रुति भी कहते हैं । परमात्मा ही वेदों की गहन-गंभीर एवं मधुमय गिरा के उत्स हैं तथा वेदों के प्रतिपाद्य भी वही हैं । वेदमंत्रों में पराचेतना के गूढ़ मर्म समाहित हैं । वेद वाणी के क्षीर सागर हैं । अन्तःस्फुरणा और दिव्य प्रेरणा से ज्ञान अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट होता है । समूची संस्कृति व वाङ्गमय का कारण यही वाणी है, यही दिव्य वाणी । वाणी की दिव्यता सिद्ध होती है जब वह सुमधुरभाषिणी होने के साथ-साथ कल्याणकारिणी व भवतारिणी भी हो ।अन्यथा वह मात्र बोली बन कर रह जाती है । वेदों के पारगामी ऋषि-मुनियों की वाणी प्रज्ञा-चक्षु खोलती है एवं मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती है । सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मुख से निःसृत वेद वस्तुतः उनके माध्यम से परब्रह्म परमात्मा द्वारा जगत के कल्याणार्थ व्यक्त हुए । प्रस्तुत श्लोक में परात्पर भगवान् शिव से स्तुतिकार कहते हैं कि हे ब्रह्मन् ! आपको, जो स्वयं वेदों के निर्माता हैं अमृतस्यन्दी वेदवाणी के उत्पत्तिकर्ता हैं , उन्हें देवगुरु बृहस्पति की ज्ञानगंभीर व मीठी वाणी भी भला कैसे विस्मयाभिभूतअथवा वशीभूत कर सकती है अर्थात् नहीं कर सकती । देवगुरु बृहस्पति प्रकृष्ट ज्ञान व वाग्मिता के स्वामी हैं । उन्हें ब्रह्मणस्पति तथा बृहद् वाचस्पति भी कहा जाता है । उनके मधुस्फीता वाच: अर्थात् उनकी मधुस्रावी ज्ञानगिरा (ज्ञान से परिपूरित वाणी) का प्रभाव ही यदि आपको चमत्कृत या चकित नहीं कर सकता तो किसी और का क्या सामर्थ्य है ? क्योंकि अन्य सब तो उन महान् वाचस्पति के आगे नगण्य हैं । हे प्रभो ! आप तो भाव-गम्य हैं, श्रद्धैक-गम्य हैं । आपके सम्मुख वाणी-माधुर्य या वाणी-चातुर्य का भला क्या काम ? भक्तिभाव से भरे हुए आपके उपासक, आपके भक्त आपको किसी भी नाम से भजें, किसी भी रूप में पूजें, आप सर्वेश्वर सदैव उनसे प्रसन्न रहते हैं और उनका अभीष्ट उन्हें प्रदान करते हैं । सर्वेश्वर सर्ववागीश्वरेश्वर को वाणी-वैदग्ध्य अथवा ललित-मंजुल शब्दावली से क्या प्रयोजन है ? वे आशुतोष एक लोटा जल व बेलपत्र से प्रसन्न हो जाते हैं । भगवान भोलेनाथ तो शुद्ध भाव से उन्हें पूजने वाले भक्त के वश में हो जाते हैं । इसीलिए स्तुतिकार कहते हैं कि जिन्होंने सदाशयता-समृद्ध सुमधुर वेदवाणी की उत्पति की हो, उन्हें सुरगुरु की वाणी की माधुरी भी क्या आकृष्ट कर सकती है ? तात्पर्य यह कि जगत् का सम्पूर्ण वाणीमाधुर्य एक ओर तथा आराधक की भावपुष्ट भक्ति एक ओर । शास्त्रों में भगवत्-कथन है,
अर्थात्, मैं भक्त के अधीन हूं, अस्वतन्त्र की भांति ।
भक्त के भाव पर बल देते हुए आगे पुष्पदंत कहते हैं कि आपके गुणकथनपुण्येन अर्थात् आपके गुणगणकथन के पुण्य से अपनी वाणी को पवित्र करने के भाव से हे पुरारी, मेरी मति इस कार्य में प्रवृत्त हुई है । आपकी अपूर्व महिमा का गान करके मेरा अन्तःकरण इस बात से प्रसन्न है कि आपके गुणानुवाद से मेरी वाणी धन्य हो जाएगी, इस पुण्यकृत्य से पवित्र हो जायेगी । इस तरह हे प्रभो, मैं अपनी वाणी को पवित्र कर रहा हूं । स्वामी करपात्रीजी महाराज ने एक स्थान पर कहा है “… जो भगवत्-चरित्र-चिंतन में, भगवत्-गुणानुसंधान में, भगवान की मधुर, मनोहर, मंगलमयी मूर्ति के चिंतन में निरंतर संलग्न रहते हैं, उनको भगवदनुकम्पा से भगवत्-साक्षात्कार हो जाता है ।” भगवत्-कथन है,
अर्थात् जिस बुद्धियोग से मुझको प्राप्त किया जाता है, वह बुद्धियोग मैं अपने भक्तों को दे देता हूं । ऐसा स्वामीजी ने अपने एक प्रवचन में कहा, जो गोपी-गीत पुस्तक में संकलित है ।
वस्तुतः भगवान शिव का गुणकथन, उनके विविध चरितों का श्रवण-चिंतन शोक-मोह का निवर्तक है । उनके अनन्य भक्त रावण ने अपने शिवताण्डवस्तोत्रम् में कुछ ऐसी ही भाव-भंगिमा प्रकट की है और गाया है,
अर्थात् श्रीशंकर का चिंतन देहधारियों ( लोगों ) के मोह का अपनोदन करता है । महादेव की उपासना देह-गेह का भान भूलाती है तथा भीषण कल्मषों का नाश कर देती है । उनके नाना चरितों व रूपों में रमने वालों को इतर राग नीरस लगने लगते हैं । अतएव वाणी का विमल, विशुद्ध होना बताया । उनका भक्त भगवदुन्मुख हो कर संसार-दुःख-दावानल से मुक्त हो जाता है । भगवान शिव के साधक शिवरूप हो जाते हैं ।
इस प्रकार गंधर्वराज पुष्पदंत अनुभूति के व्यापकतर छोर को छूते हुए भगवान नीलकण्ठ से निवेदन करते हैं कि वे भगवान कल्याणगुणनिलय के गुणकथन के पुण्य-कृत्य से अपनी वाणी को पवित्र कर रहे हैं और इसी आशय से उनकी बुद्धि इस प्रशस्य कार्य में प्रवर्तमान हुई है । प्रकारांतर से उनके मन ने कहा कि वे भी इस तरह कुछ पुण्यार्जन कर ले और उनकी वाणी कृतार्थ हो जाये ।
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कृपया “आपके गुणानुवाद के पूण्य” को सुधार कर “आपके गुणानुवाद के पुण्य” लिखें और त्रुटि दूर करें। धन्यवाद।
धन्यवाद ।