शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३२

Shloka 32 Analysis

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ ३२ ॥

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
असितगिरिसमं = (यदि कोई) काला पर्वत
स्यात् = हो जाये
कज्जलम् = स्याही, मसि
सिन्धुपात्रे = समुद्र रूपी मसिपात्र (दवात) में
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी
सुरतरुवरशाखा सुरतरुवर + शाखा
सुरतरुवर = कल्पवृक्ष
शाखा = टहनी, डाली
लेखनी = कलम
पत्रमुर्वी पत्रम् + उर्वी
पत्रम् = कागज
उर्वी = पृथ्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
लिखति = लिखती रहे
यदि = अगर
गृहीत्वा = ले कर
सर्वकालम् = निरन्तर, अनन्त काल तक
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
तदपि तद् + अपि
तद् = तो
अपि = भी
तव = आपके
गुणानामीश गुणानाम् + ईश
गुणानाम् = गुणों का
ईश = (हे) प्रभो !
पारम् = पार
= नहीं
याति = पाया जा सकता

अन्वय

(हे) ईश ! सिन्धुपात्रे यदि असितगिरिसमम् कज्जलम् स्यात् सुरतरुवरशाखा लेखनी उर्वी (च) पत्रम् (स्यात्) शारदा (यदि) गृहीत्वा सर्वकालम् लिखति तदपि तव गुणानाम् पारम् न याति ।

भावार्थ

समुद्र रूपी मसिपात्र (दवात) में यदि नीलांजन पर्वत (काजल-से काले पहाड़) के समान मसि (स्याही) हो, कल्पवृक्ष की शाखा कलम व पूरी पृथ्वी कागज हो और उसे लेकर स्वयं सरस्वती भी यदि अनन्त काल तक लिखती रहें, तो भी हे परमेश्वर ! आपके गुणों का पार नहीं पाया जा सकता ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के ३२वें श्लोक में स्तुतिकार शिवजी की अद्भुत् महिमा का वर्णन करते हैं । इस अद्भुत वर्णन की कल्पना भी कम अद्भुत नहीं । जगत् में जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है, उसकी सहायता से कवि महिमा-बखान में प्रवृत्त होते हैं और तब भी महादेव का गुणगणानुवाद असंभव ही रहता है ।

महादेव की महिमा की कोई इयत्ता नहीं है । प्रस्तुत श्लोक में वर्णित सभी साधन असंभव हैं, जैसे असितगिरि यानि कज्जलश्याम पर्वत (नीलांजन पर्वत) । असित का अर्थ है जो सित अर्थात् श्वेत न हो यानि काला हो और गिरि पर्वत को कहते हैं । दूसरा साधन सिन्धुपात्र बताया है, जिसमें कवि कहते हैं कि यदि कज्जलम् अर्थात् मसि (स्याही) को रखा जाये अथवा घोला जाये । तत्पश्चात् कलम के रूप में सुरतरुवरशाखा की कल्पना करते हैं । हम सभी को यह भलीभाँति विज्ञ कि कल्पतरु या कल्पवृक्ष स्वर्गीय वृक्ष है । सुरतरुवर से कल्पतरु अभिप्रेत है, जिसकी शाखा से निर्मित कलम की कल्पना वे करते हैं शिव महिमा को लिखने के हेतु । समूची उर्वी यानि पृथ्वी को पत्रम् यानि काग़ज़ अथवा लेखन-पट के रूप में कल्पित करते हैं । लेखनकार्य के हेतु ये सभी साधन किसी भी तरह सम्भव नहीं हैं । तथापि कवि इनका उल्लेख करते हैं, इससे उनका आशय स्पष्ट है कि महादेव की महिमा नितान्त अकल्पनीय व अनिर्वचनीय है, वह मन और वाणी की पहुँच से परे है । अब स्तुतिकार के द्वारा किया गया वर्णन समझें तो वे कहते हैं कि शिवमहिमा का निरूपण करने के लिये यदि पर्वत जितनी मसि (स्याही) हो…और पर्वत भी कैसा ?  एतदर्थ काले पर्वत की वे कल्पना करते हैं । उनके अनुसार यदि काले पर्वत रूपी स्याही हो व समुद्र सारा का सारा मसिपात्र (दवात) हो तथा लिखने के साधनरूप कल्पवृक्ष की टहनी कलम हो तथा समूची धरा यदि लेखनपट अथवा काग़ज़ हो एवं स्वयं देवी सरस्वती लिखती रहें नित-निरन्तर, तो भी हे ईश ! हे सर्वनियन्ता ! आपके गुणों का पार नहीं पाया जा सकता । तात्पर्य यह है कि हे परमेश्वर ! आपके गुण अनन्त हैं । देवी सरस्वती तो स्वयं वागीशा (वाक्देवता) हैं, विद्यास्वरूपिणी हैं और आपकी महिमा का वर्णन यदि उन्हीं भगवती के वश की बात नहीं तो मैं मुझ अल्पबुद्धि की कल्पना का प्रवेश इस विषय में कैसे हो सकता है ?  हे भगवन् ! आप यदि भगवती वाणी के अविषय हैं, तो मैं किस गिनती में हूं । इस प्रकार स्तुतिगायक एक बार पुन: महादेव की महिमा को अनिर्वचनीय बतलाते हैं । इस स्तोत्र के द्वितीय श्लोक में भी वे शिवमहिमा के विषय में कह आये हैं कि अतीत: पन्थानं तव च महिमा ; और आगे कहा है कि वेद भी चकित होकर, निषेध मुख से (नेति नेति कह कर) इसका वर्णन करता है ।

स्तुतिकार गन्धर्वाधिपति अपनी प्रगाढ़ शिवभक्ति में आपादमस्तक निमग्न हैं । पीछे श्लोक १७ में कवि ने महादेव की दिव्यदेह की महिमा गाते हुए कहा है कि व्योमव्यापी आकाशगंगा (स्वर्गगंगा) शिव के शीश पर एक नन्ही बूंद-सी दिखायी देती है । और इससे पृथ्वी सप्तसमुद्र-वलयित होकर द्वीपाकार बना गयी है । इसीसे पता लगता है कि आपके दिव्य वपु ने कैसी विशाल महिमा को धारण किया है — त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपु: ॥१७॥

श्लोक ३१ अनुक्रमणिका श्लोक ३३

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