महामृत्युंजय मंत्र
दो शब्द
Mahamrityunjay Mantra – An Introduction
वेद सनातन धर्म और आर्ष संस्कृति के प्राण हैं । यह अपौरुषेय (जो पुरुषों द्वारा न रचे गए हों) माने जाते हैं । वेदों का प्रकटीकरण सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी के चारों मुखों से हुआ समझा जाता है । ईश्वर द्वारा प्रकट किये जाने अथवा उन्हीं से सुने जाने के कारण इन्हें `श्रुति` भी कहते हैं । इसीलिए अनेक ऋषि जिनका नाम वेदों के सूक्तों से संबद्ध है, `दृष्टारः`अर्थात् देखने वाले कहलाते हैं ।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद – चारों वेदों में से सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद है । यह १० मंडलों में विभाजित है और इसमें कुल १०२८ सूक्त हैं । इन सूक्तों में मन्त्र हैं, जिन्हें ऋचाएं कहते हैं । इन मन्त्रों में देवों की उपासना और स्तुतियाँ , प्रार्थनाएं आदि प्राप्त होती हैं । ऋग्वेद में प्रार्थनापरक मन्त्रों की बहुलता है ।
हमारे प्राचीन ग्रंथों की भाषा संस्कृत है, जो देववाणी भी कहलाती है । यह संसार की सभी भाषाओँ से सर्वाधिक प्राचीन और सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है । वेदों की भाषा `वैदिक संस्कृत` है, तथा इसे `छान्दसी` भी कहते हैं, क्योंकि वैदिक ऋचाएं छंदों में हैं जैसे अनुष्टुप, गायत्री जगती आदि ।
आर्ष-संस्कृति (ऋषियों की संस्कृति) का समस्त चिंतन `आत्मा` से सम्बद्ध है, जिसका अंतिम लक्ष्य अथवा गंतव्य `मोक्ष` है । `महामृत्युंजय मंत्र` भी इसी मोक्ष की कामना से सम्बद्ध है, जिसमें भगवान रूद्र अथवा शिव से वैदिक ऋषि मृत्यु-भय से रक्षा करने की तथा बार-बार के जन्म-मरण के पाश से मुक्त हो कर उनके अमृत-पदों को प्राप्त होने की अर्थात् मोक्ष की प्रार्थना करता है । श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार अपनी पुस्तक `श्रीशिवचिंतन` में लिखते हैं कि ” … भगवान शिव या रुद्र अनादिकालीन वैदिक देवता हैं, और इनकी लिंगपूजा भी सनातन है ।” जगत के भीतर और बाहर वे ही सूक्ष्म रूप से संव्याप्त हैं , जैसे पुष्प में उसकी सुगंध सूक्ष्म रूप से बसी होती है। साथ ही भगवान शिव आयु, ओज, बल, वीर्य, वर्चस्व तथा तेज के संरक्षक हैं । इसी कारण उन्हें `सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्` कह कर उनका स्तवन करत्ते हुए यह वाञ्छा प्रकट करता है कि वह एक स्वस्थ, स्वच्छ और सार्थक जीवन जी कर और अपनी पूरी आयु का भोग करने के उपरांत, एक पके हुए फल के अनायास वृक्ष से गिर पड़ने की तरह अपनी देह से, मृत्यु आने पर छूटे । इसके लिए वह ककड़ी के फल का उदहारण देते हए कहता है कि पूरा पका हुआ ककड़ी का फल जिस प्रकार अनायास अपनी बेल से अलग हो जाता है, उसी प्रकार हे त्रिनयन देव ! हम भी पूर्ण परिपक्व हो जाने पर ही अपनी देह का त्याग करें । साथ ही देह-त्याग के बाद हे सुगन्धि ! हे पुष्टिवर्धन ! हम तत्काल आपके अमृत-पदों की शरण प्राप्त करें । कुछ इसी प्रकार का भाव इस मन्त्र में निहित है, जिसका आगे शिवकृपा से यथामति विस्तार से व्याख्या करने का क्षुद्र प्रयास किया गया है ।
इति शुभम् ।
– | अनुक्रमणिका | व्याख्या |