शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३८

Shloka 38 Analysis

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्य: प्रांजलिर्नान्यचेता: ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान:
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ ३८ ॥

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
सुरवरमुनिपूज्यं = बड़े बड़े देवों व मुनियों द्वारा पूजनीय
स्वर्गमोक्षैकहेतुं = स्वर्ग व मोक्ष देने वाला एकमात्र साधन
पठति यदि मनुष्य: प्रांजलिर्नान्यचेता:
पठति = पढ़ता है
यदि = अगर
मनुष्य: = (कोई भी) मानव
प्रांजलिर्नान्यचेता: प्रांजलि: + न + अन्यचेता:
प्रांजलि: = हाथ जोड़ कर
न अन्यचेता: = (अपने) चित्त को और कहीं न लगाता हुआ
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान:
व्रजति = चला जाता है
शिवसमीपम् = शिव के पास
किन्नरै: = किन्नरों द्वारा
स्तूयमान: = प्रशंसा पाता हुआ
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्
सस्तवनमिदममोघं तवनम् + इदम् + अमोघम्
स्तवनम् = स्तोत्र को
इदम् = इस
अमोघम् = कभी निष्फल न होने वाले
पुष्पदन्तप्रणीतम् = पुष्पदन्त द्वारा रचे हुए

अन्वय

पुष्पदन्तप्रणीतम् अमोघम् सुरवरमुनिपूज्यम् स्वर्गमोक्षैकहेतुम् इदम् स्तवनम् यदि मनुष्य: प्रांजलि: न अन्यचेता: पठति, किन्नरै: स्तूयमान: शिवसमीपं व्रजति ।

भावार्थ

पुष्पदन्त द्वारा बनाये हुए व निष्फल न होने वाले एवं बड़े बड़े देवताओं और मुखियों द्वारा पूजनीय, स्वर्ग तथा मोक्ष एक मात्र उपाय इस स्तोत्र को यदि मनुष्य हाथ जोड़ कर तथा भटकते हुए चित्त वाला न होकर अर्थात् एकाग्रचित्त हो कर पढ़ता है तो वह किन्नरों द्वारा प्रशंसा प्राप्त करता हुआ शिवजी के पास चला जाता है ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के ३८वें श्लोक में कवि का इस स्तोत्र को लेकर फलश्रुतिविषयक कथन है । उनके अनुसार यह स्तोत्र पुष्पदन्तप्रणीतम् अर्थात् पुष्पदन्त-रचित है, प्रकारान्तर से स्वयं उनके द्वारा रचित है ।यह स्तोत्र इन्द्रादि बड़े बड़े देवों व मुनियों द्वारा पूजनीय हैं तथा पढ़ने वाले मनुष्य के लिये स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) प्रदान करने वाला एक मात्र साधन है । इसे पढ़ने वाला अवश्यमेव अपना मनोवांछित फल पाता है । भोगाकांक्षी को भोगैश्वर्य मिलता है । मुक्ति की चाह रखने वाला मुमुक्षु इस स्तोत्र का सादर पाठ करता है तो यह वरद महिम्न स्तोत्र उसके लिये मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है । स्तोत्र से तात्पर्य स्तोत्र के देवता से है । देवाधिदेव भगवान् शिव की प्रसन्नता व उनकी कृपा को प्राप्त करने के हेतु यह स्तोत्र उनके गण अथवा सेवक द्वारा रचा गया है । इस प्रकार इसकी पवित्रता का प्रतिपादन करते हुए कवि इसे अमोघम् बताते हैं । अमोघ उसे कहते हैं जो कभी व्यर्थ न जाये, जैसे रामबाण अमोघ होते हैं । कामदेव के पुष्पबाण, क्योंकि कभी निष्फल नहीं जाते, अत: अमोघ होते व कहलाते हैं । कवि के कथनानुसार पुष्पदन्तप्रणीतम् अर्थात् पुष्पदन्तरचित ऐसे इस श्लोक को प्रांजलि: अर्थात् हाथ जोड़ कर तथा न अन्यचेता:  हो कर अर्थात् एकाग्रचित्त होकर () यदि कोई मनुष्य पढ़ता है तो वह किन्नरों द्वारा स्तुति प्राप्त करता हुआ—किन्नरै: स्तूयमान: , शिवजी के समीप पहुंचता है । न अन्यचेता: जब कवि कहते हैं, तो इससे अभिप्राय यह है कि  चित्त अन्यत्र कहीं भटक न रहा हो, भक्त इसे पूरी निष्ठा से तथा अपना ध्यान इसमें पिरो कर इसे पढ़े ।  इस प्रकार यह स्तोत्र पाठपरायण मनुष्य की मनोवांछा, चाहे वह लौकिक हो या आध्यात्मिक,  निस्सन्देह पूरी करता है । अवढरदानी भगवान शिव के निकट अपने भक्त के लिये अदेय कुछ भी नहीं है । यही तो उनका देवाधिदेवत्व है ।

श्लोक ३७ अनुक्रमणिका श्लोक ३९

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