शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३०

Shloka 30 Analysis

बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम:
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नम: ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम:
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥ ३० ॥

बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम:
बहुलरजसे = रजोगुण की अधिकता वाले
विश्वोत्पत्तौ = जगत् की उत्पत्ति में
भवाय = भव रूप से जाने जाने वाले आपको
नमो नम: = बार-बार प्रणाम है
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नम:
प्रबलतमसे = तमोगुण की प्रबलता लिये हुए
तत्संहारे तत् + संहारे
तत् = उस (का), (सृष्टि का)
संहारे = संहार करने वाले
हराय = हर रूप से जाने जाने वाले आपको
नमो नम: = बार-बार प्रणाम है
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम:
जनसुखकृते = प्रजा के सुख के हेतु (जनहितकारी)
सत्त्वोद्रिक्तौ सत्त्व + उद्रिक्तौ्
सत्व = सतोगुण (की)
उद्रिक्त्तौ = प्रचुरता वाले (को)
मृडाय = मृड (विष्णु) रूप से जाने जाने वाले आपको
नमो नम: = बार-बार प्रणाम है
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम:
प्रमहसि = प्रकृष्ट ज्योति (को)
पदे = परमपद(को)
निस्त्रैगुण्ये = (नि:त्रैगुणये) त्रिगुणातीत (को)
शिवाय = परम मंगलमय (आपको)
नमो नम: = बार-बार प्रणाम है

अन्वय

विश्वोत्पत्तौ बहुलरजसे भवाय नमो नम: । तत्संहारे प्रबलतमसे हराय नमो नम: । जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम: । प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ।

भावार्थ

विश्व की उत्पत्ति के लिये रजोगुण की बहुलता से युक्त आप भव को बार-बार प्रणाम है । विश्व-संहार करने के हेतु प्रबल तमोगुण धारण करने वाले आप हर को बार-बार प्रणाम है तथा सत्वगुणविशिष्ट जगत्सुखकारी विश्वपालक आप भगवान् मृड को बार-बार प्रणाम है । त्रिगुणातीत, प्रकृष्ट ज्योति स्वरूप व परम मंगलकारी आप को बार-बार प्रणाम है ।

व्याख्या

प्रस्तुत श्लोक में सर्वप्रथम स्तुतिगायक अपने परमाराध्य (परम आराध्य) के सृष्टि, स्थिति व संहार करने वाले सर्वप्रसिद्ध व सर्वपूजित नाम व रूपों को अर्थात् ब्रह्मारूप, विष्णुरूप व रुद्ररूप—इन तीनों को बार-बार प्रणाम निवेदन करते हैं । तत्पश्चात् वे प्रकृष्ट ज्योति स्वरूप शिवजी के आगे शीश नवाते हैं जो तीनों गुणों से अतीत, परमपद व परममंगलमय है । संसार सर्ग करने वाले रजोगुणबहुल ब्रह्मा स्वरूप शिवजी को भव कह कर कवि उनके पादपद्मों में प्रणत होते हैं । पीछे अठ्ठाइसवें श्लोक में भी उन्होंने महादेव के भव नाम का गायन करके उन्हें नमस्कार निवेदन किया है ।

परमेश्वर शिव ही जगत् के सिरजनहार व पालनहार का तथा संहारकर्ता का रूप लेकर उनमें व्यक्त होते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश—इन त्रिदेवों के मूल में भगवान् सदाशिव ही स्थित हैं । उनका भव नाम कहा है जगदुत्पत्तिकारण होने से । सृष्टि-रचयिता ब्रह्मा त्रिदेवों में से एक हैं । प्रकृति सत्व, रज और तम—इन गुणों से त्रिगुणात्मिका है । मनुस्मृति (१२/४१) के अनुसार सत्वगुणी जन देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । देवता सतोगुणयक्त होने पर भी जिस कार्य विशेष में प्रवृत्त होते हैं, उस प्रवृत्ति से संलग्न गुण प्रभूत मात्रा में उनमें लक्षित होते हैं, फलत: लोक-व्यवहार में उन्हें उस गुण से युक्त मान लिया जाता है । जैसे सृष्टि रचयिता ब्रह्मदेव रजोगुणयुक्त कहे जाते हैं । रजोगुण में गति है, प्रवृत्ति है,  चांचल्य है । क्रियाशक्ति के मूल में यही गुण है । जिसने रचना करनी हो, उसमें क्रियाशीलता व चापल्य होना वांछित है, तभी तो रचना होगी । ऐसा नहीं है कि उनमें सत्वगुण की कमी है । वस्तुत: देवता तो सभी सत्वगुणी हैं ही । अन्यथा वे देव होते ही नहीं । यह बात दूसरी है कि अपनी अपनी क्रियाओं के अनुरूप वे सत्व के अतिरिक्त अन्य गुणों को भी समुचित आश्रय देते हैं । जैसे ब्रह्माजी देव होने से सत्वगुणधारी तो हैं ही, तथापि संसार-सर्ग करते हुए वे रजोगुण को यथेष्ट मात्रा में धारण कर लेते हैं । यदि वे केवल रजोगुणधारी होते तो वे देव न होकर मनुष्य होते । क्योंकि मनुष्य योनि रजोगुणी है । मनुस्मृति का इस विषय में कहना है—

देवत्वं सात्त्विक यान्ति मनुष्यत्वं च राजसा: । (१२/४१)

अर्थात् सत्वगुणी देवयाोनि को और रजोगुणी मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं ।  इस प्रकार जगदुत्पत्तिकारण ब्रह्मास्वरूप होने से कवि शिवजी को भव संबोधित करते हैं व उन्हें बहुलरजसे बता कर बार-बार प्रणाम निवेदन करते हैं । रजस् की बहुलता बताने से आशय यह है कि संसार-सर्ग के कार्य में क्रियामूलक रजोगुण भी अपेक्षित है, अतएव उसका आश्रय वे ग्रहण करते हैं । प्रकारान्तर से सृष्टि-रचना में प्रवृत्त होते हुए ब्रह्माजी का सत्वगुण व तमोगुण अपेक्षाकृत न्यून मात्रा में तथा रजोगुण बहुल मात्रा में सक्रिय रहता है । इस प्रकार ब्रह्मदेव के रूप में महादेव ही व्यक्त होकर संसार-सर्ग की क्रिया संपादित करते हैं । अत: शिवनिष्ठ स्तुतिकार भव रूप से ख्यात शिवजी को रजोबहुल भव कह कर चित्रित करते हैं व बार-बार नमस्कार निवेदन करते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र को समस्त देवों को उत्पन्न करने वाला व उनको बढ़ाने वाला बताया गया है—देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षि: ।(४/१२)

श्लोक के द्वितीय पाद (दूसरी पंक्ति) में कवि कहते हैं कि संसार का संहार करने हेतु प्रबल तमोगुण धारण करने वाले हर रूप  आपको बार-बार प्रणाम है । तमोगुण दारुण दु:खदायक, अधर्माचरण और अज्ञानता से युक्त है । भगवान् शिव को तमोगुणी अथवा प्रबलतमसे कहने का तात्पर्य इतना भर है कि प्रलय हेतु वे प्रबल तमोगुण को धारण कर लेते हैं जो सतोगुण व रजोगुण से दबता नहीं है । सत्य तो यह है कि शिव से बढ़ कर सतोगुणी कोई नहीं है । वे सर्वान्तरयामी सदा संसार का सुमंगल करते हैं । लोक में शिव को प्रलयंकर अथवा संहारक एवं तमोगुणी कहने का अर्थ यह नहीं है कि उनकी प्रकृति तमोगुणमयी है या वे तामसी आचरण वाले हैं । अपितु भगवान् शिव तो स्वयं तमोगुण के नियामक हैं और वे लोकेश्वर, लोकशंकर तमोगुण का नियंत्रण करते हैं । स्तोत्रगायक कहते हैं कि प्रबलतमसे तत्संहारे अर्थात् विश्व-संहार हेतु विशेषरूप से तम की प्रबलता को अपनाने वाले तमोगुणधारी  हर रूप आपको बार-बार प्रणाम है । प्रलय में सबका संहार करने के से शिवजी का नाम हर हुआ । प्रलयंकर का प्रतिकार करने की शक्ति किसी के पास नहीं । हर से अभिप्रेत है हर लेना । वे स्वजनवत्सल प्रभु अपने भक्तों के दु:ख व उनकी आसन्न आपदा को हर लेते है तथा पाप-ताप का हरण करके अन्त में वे उनकी अविद्या को भी हर लेते हैं, अत: हर हैं ।

त्रिदेवों में भगवान् विष्णु संसार के संरक्षक व संपालक हैं तथा सत्वगुणधारी देव हैं । संसार के पालक प्रियदर्शन प्रभु सुखरूप होने से मृड भी कहलाते हैं । सत्वगुण अथवा सतोगुण सर्वरूपेण सुखदायी है और संसार-सागर में आनन्द की उद्दाम लहर है । अज्ञान, अविद्या का अन्त करने वाला यह गुण मोक्ष-लक्ष्मी का दायक है । अन्य दोनों देवों की भाँति विश्वपालक विष्णु (मृड) रूप में भी महादेव ही व्यक्त होते हैं । यह उनका सत्वनिष्ठ, सत्वमूर्ति रूप है । सात्त्विक प्राणी का तो लक्षण ही यही है कि उसे किसी को प्रेम या अन्य कुछ देकर या किसी का भला करके सुख-संतोष मिलता है । तीनों देवों के नाम व रूपों में व्यक्त होने वाले महादेव को भरपूर सत्वगुणधारी व जीवहितकारी बता कर गन्धर्वाधिपति उन्हें मृड नाम से पुकार कर  बार-बार प्रणाम करते हैं व कहते हैं जनसुखकृते सत्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम: अर्थात् संसार की सुखकर स्थिति हेतु सतोगुण से प्रचुर-प्रपूरित आप मृड को बार-बार प्रणाम है । महादेव मृड होने से सुखकर अथवा सुखरूप हैं । यहां प्रश्न उठता है कि यह सुख है क्या ? इस विषय में विद्वान लेखक सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ का विचार है कि अपने अनुकूल अनुभव का नाम सुख और प्रतिकूल अनुभव का नाम दु:ख है—अनुकूल वेदनीयं सुखम् । सुख हम सबके भीतर है, सदा है और असीम है, किन्तु सुप्त पड़ा है । विषयों को माध्यम बना कर इसे जगाया जाता है । आनन्दराशिरूप भगवान् वैरागी को निरुपाधिक सुख देते हैं और रागी भक्त की झोली वे विषयरूपी सुखों से भर देते हैं । यज्ञों के करने वाले यजमान शुभ यज्ञों के पूर्ण होने पर पूर्णाहुति से यज्ञेश भगवान् को तृप्त करके उत्तम सुखों को पाते हैं । कवि इसीलिये भगवान् भूतभावन को सुखरूप व सात्त्विक—सत्वोद्रिक्त कहते हैं और मृड कह कर नमन-निवेदन करते हैं । उन कर्पूरगौर का शुभ्र वर्ण उनकी सात्विकता का परिचय देता है । सत्वस्वरूप धर्ममय वृषभ उनका वाहन है । और वे सत्ववाहन तो स्मरण मात्र से जीव को शुद्ध कर देते हैं । ऐसी है उनकी सात्विकता । गन्धर्व-कवि कहते हैं कि भव इस नाम से अपने द्वारा उत्पन्न किये गये जगत् को आप मृड (विष्णु) रूप में स्थिर भी रखते हैं तथा प्रबल तमोगुण को धारण करके इसका संहरण (संहार) हर नाम से ख्यात होने वाले आप ही करते हैं ।

श्लोक के अन्तिम पाद में कवि त्रिगुणातीत परमेश्वर को प्रणाम करते हैं व कहते हैं कि निस्त्रैगुण्ये अर्थात् तीनों गुणों से परे, प्रकृष्ट और दुस्सह तेज स्वरूप वाले आप परम मंगलमय को, परमपद को पुन: पुन: मेरा प्रणाम है, बार-बार प्रणाम है । आप ही अद्वितीय आत्मतत्व और आत्मज्योति हैं । आत्मज्योति का अर्थ है अपने स्वरूपभूतज्ञान की प्रभा से प्रकाशित । प्रमहसि में प्रमहस् का अर्थ है प्रकृष्ट ज्योति । और इस ज्योति का प्रकृति के तीनों गुणों से, माया से कोई संबंध नहीं है । श्वेताश्वतर उपनिषद् के अनुसार जगत् में जो कोई भी प्रकाशशील तत्व हैं, वे उन परम प्रकाशस्वरूप परमात्मा की प्रकाशशक्ति के किसी अंश को पाकर ही प्रकाशित होते हैं । उनके आगे तो सूर्य भी अपना प्रकाश नहीं फैला सकता और न ही चंद्र, तारागण और विद्युत ही अपना प्रकाश फैला सकते हैं । समस्त जगत् उन पुरुषोत्तम के प्रकाश से ही प्रकाशित है ।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारके
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि: ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
सत्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद् ६/१४)

इस प्रकार अपने प्रिय आराध्य के ब्रह्मादिक रूपों व उनके त्रिगुणातीत रूप को शीश नवाते हुए शिव की समाराधना में संलग्न स्तुतिकार अंत में उन्हें प्रकृष्ट तेजोमय, स्वयंप्रकाश व सुमंगलमय बताते हुए उनकी वरिष्ठता व वरेण्यता को रेखांकित करते हैं । वे भक्ति-तरल-भाव से बार बार परात्पर प्रभु को प्रणाम करते हैं । हमारी आस्था और सनातन संस्कार कहते हैं कि प्रणाम-प्रवण व्यक्ति भक्ति में प्रगति पाता है । महादेव के हर नाम से हमारे सनातन संस्कार इस तरह अनुप्राणित हैं कि श्रद्धालु जन सरिता में स्नान करते समय सानन्द हर हर महादेव का स्वरोच्चार करके डुबकी लगाते हैं । और तो और, घर के स्नानागार में भी लोटा-लोटा जल शीश पर डालते हुए हर हर महादेव व हर हर गंगे के स्वर से उनके नाम का उच्चारण किया जाता है । और इस प्रकार दैनिक कृत्य करते समय भी हम तन के साथ-साथ मन के मैल पर भी झाग लगा कर उसे छुड़ाते हैं । यह भी देखने में आता है कि मंदिरों, नदीतटों व अन्य पावन स्थलों पर भगवान् धूर्जटि का जयकारा करने के उल्लास में उनके भक्त मुक्त कण्ठ से हर हर महादेव का उच्च स्वर में जीवन्त उद्घोष करते हैं ।

श्लोक २८ अनुक्रमणिका श्लोक ३१

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