शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक ४
Shloka 4 Analysisतवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ।। ४ ।।
तवैश्वर्यं | → | तव + ऐश्वर्यम् |
तव | = | आपका |
ऐश्वर्यम् | = | दिव्यता ( ईश्वरता से ऐश्वर्य शब्द बना है ) |
यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् | → | यत् + जगत् + उदय + रक्षा + प्रलयकृत् |
यत् | = | जो (ऐश्वर्य ) |
जगत् + संसार | ||
उदय | = | सृजन |
रक्षा | = | परिपालन |
प्रलयकृत् | = | संहारकर्ता |
त्रयीवस्तुव्यस्तं | → | त्रयीवस्तु + व्यस्तम् |
त्रयीवस्तु | = | तीनों वेद |
व्यस्तम् | = | व्याप्त, विभक्त |
तिसृषु | = | तीनों में |
गुणभिन्नासु | = | गुणभेद से (तीनों में ) |
तनुषु | = | रूपों में |
अभव्यानामस्मिन् | → | अभव्यनाम् + अस्मिन् |
अभव्यनाम् | = | अज्ञानियों ( मूढ़जनों ) को |
अस्मिन् | = | इसमें ( इस विषय में ) |
वरद | = | हे वर देने वाले |
रमणीयामरमणीं | → | रमणीयाम् + अरमणीम् |
रमणीयाम् | = | प्रिय लगने वाली , रुचिकर लगने वाली |
अरमणीम् | = | अभद्र |
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः | ||
विहन्तुं | = | खण्डन करने के लिए |
व्याक्रोशीं | = | कुतर्क का, विद्वेषपूर्ण युक्ति का |
विदधत इहैके | → | विदधते + इह + एके |
विदधते | = | आश्रय लेते हैं |
इह | = | यहां |
एके | = | कुछ |
जडधियः | = | जड़ बुद्धि वाले, मूर्ख लोग |
अन्वय
भावार्थ
हे वरप्रदाता प्रभो ! जगत की उत्पति, रक्षा और संहार करने वाला, वेदों द्वारा वर्णित, ( सत्व-रज-तम ) तीनों भिन्न-भिन्न गुणों के भेद से तीनों ( ब्रह्मा-विष्णु-महेश ) रूपों में व्याप्त ( विभक्त ) आपका जो यह दिव्य ऐश्वर्य है, उसका खण्डन करने के लिए ( कुत्सित हेतु से ) यहां कुछ मूर्ख लोग ( नास्तिक जन ) अधम लोगों को रुचिकर प्रतीत हों ऐसी ( प्रिय लगने वाली )अभद्र युक्तियों का सहारा लेते हैं ।
व्याख्या
शिवमहिम्नःस्तोत्रम् के पिछले श्लोक में गंधर्वराज पुष्पदन्त ने महादेव की महिमा को अनिर्वचनीय बताते हुए कहा कि मन-वाणी की परिधि में परिसीमित न हो पाने पर भी उसका गायन करने के लिए भक्त जन लालायित रहते हैं । प्रस्तुत श्लोक में वेदों के प्रतिपाद्य व (त्रि)गुणभेद से त्रिदेवों में व्याप्त अथवा विभक्त उनके दिव्य ऐश्वर्य पर वे प्रकाश डालते हैं अथवा कहा जाये कि ऐश्वर्य के स्वल्प भाग पर प्रकाश डालते हैं, क्योंकि जितना कहा गया वह कुछ भी नहीं उन वर्णनातीत के वर्णन के लिए ।
पुष्पदन्त स्तवन करते हुए सर्वप्रथम कहते हैं कि हे वरप्रदाता प्रभो ! सत्व-रज-तम इन तीनों गुणों के भेद से आप सर्वेश्वरेश्वर ही उन तीनों देवों- ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में विभक्त हैं, जो जगत की उत्पति, रक्षा व संहार करने वाले देवों के रूप में जाने जाते हैं ( यद्यपि इन तीनों गुणों में व्याप्त हो कर भी महादेव इन गुणों से अतीत हैं ) । आपका स्वरूपभूत् तेज उक्त तीनों रूपों से जगत में व्याप्त हो रहा है । शैवागम में महादेव की वंदना इस प्रकार की गई है –
यस्मात् प्रजज्ञिरे देवास्तं शंभुं प्रणमाम्यहम् ।।
अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देव, दानव व राक्षस जिनसे उत्पन्न हुए हैं तथा जिनसे सभी देवों की उत्पत्ति हुई है, ऐसे भगवान शम्भु को मैं प्रणाम करता हूं । वे ही सृष्टि का सृजन, परिपालन करते हैं व संहार के करने वाले भी वही हैं । वस्तुतः त्रिदेवों में परस्पर भेद नहीं है, जो भेद दिखता है वह केवल लीला मात्र है । शिवपुराण में भगवान शिव के परात्पर निर्गुण स्वरूप को सदाशिव तथा सगुण स्वरूप को महेश्वर कहा गया है । उनके विश्व का सृजन करने वाले रूप को ब्रह्मा, पालन करने वाले स्वरूप को विष्णु व संहार करने वाले स्वरूप को रूद्र कहा गया है । उनके रूद्ररूप की उपाधियां अनंत है, जिनकी गणना त्रिकाल में भी नहीं हो सकती । जनसाधारण में, शिव-साधकों में एकादश रूद्र के नामों व कथाओं का प्रचलन है तथा उनका परिचय भी सुलभ है । इनका उल्लेख ऋग्वेद में भी प्राप्त होता है ।
अपने संहारक रूप के कारण भगवान शिव दुःख रूप प्रतीत होते हैं व उन्हें तमोगुणी देव भी कह दिया जाता है । दुःख का गुण तमोगुण है। उनके तमोगुण के अधिष्ठाता होने का अर्थ यह नहीं है कि वे स्वयं इस गुण से आच्छादित हैं, अपितु तमोगुण का अधिष्ठाता होने के कारण वे इस पर और तमोगुणी जनों पर नियंत्रण रखते हैं व संसार को उनसे आक्रांत होने से बचाते हैं । अपने सृजन को सुरक्षित रखने के लिये वे ही तमोगुणाक्रान्त आततायियों का, देवद्रोहियों-यज्ञद्रोहियों का अंत भी करते हैं । इसीलिए उनके अनेक नाम कामान्तक, मखान्तक, त्रिपुरान्तक, गजान्तक, अन्धकान्तक आदि भी हैं । अपने प्रलयंकर रूप में महाकाल महादेव संसार का संहार करके उसका परमात्मा में एकोभाव करते हैं । तत्पश्चात ब्रह्माजी के रूप में नवसृजन के प्रभात का अरुणोदय होता है । अतएव उन्हें तमोगुणी कैसे कहा जा सकता है ?
क्रिया का रूप रजोगुण है । ब्रह्मदेव के रूप में महादेव तीनो लोकों को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार से वे रजोगुणी भी हैं । अनादि परमात्मा में समस्त सृष्टि का एकीभाव करके वे युगयुगों से श्रांत-क्लांत जीवों को सुख पहुंचाते हैं । सुख पहुंचाना, शीघ्र प्रसन्न होना सतोगुण का रूप है । वे ही सत्वगुणमय अपने विष्णु रूप में जगत का परिपालन-परिपोषण करते हैं । वस्तुतः त्रिदेवों में उन्हीं की शक्ति निहित है । इसी बात का प्रतिपादन पुष्पदन्त उन्हें यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् कह कर करते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक में त्रयीवस्तु शब्द से तात्पर्य तीन वेदों से है । पुष्पदन्त के अनुसार भगवान शिव अथवा रुद्र त्रयीवस्तु के प्रतिपाद्य हैं । अथर्ववेद के अलावा शेष तीनों वेदों को त्रयीवस्तु कहते हैं । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद त्रयीवस्तु कहलाते हैं – त्रयी वस्तु विद्या ऋचो यंजूषि सामानि । अथर्ववेद को मिला कर चारों वेदों में ऋग्वेद सबसे प्रथम और प्राचीन है । हिंदुओं के इस अत्यंत पवित्र ग्रन्थ में स्तुतिपरक मंत्र सन्निहित हैं । ये मंत्र ऋचा कहलाते हैं । वेदमंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है । इन सूक्तों के क्रमबद्ध संग्रह को ऋग्वेद संहिता भी कहते हैं । यजुर्वेद द्वितीय वेद है । यह यज्ञ-संबधी पाठ का गद्यात्मक संग्रह है । तृतीय वेद है सामवेद । इसमें छंदोबद्ध सूक्त हैं । ये सूक्त वस्तुत: मृदुल, मधुमय प्रशंसात्मक कोमल गान हैं । यही तीनों वेद मिल कर `त्रयीवस्तु कहलाते हैं । अथर्ववेद चतुर्थ वेद है । इसमें शत्रुनाश हेतु, अपनी सुरक्षा हेतु तथा पाप, विपत्ति, दुर्भाग्य आदि से रक्षण हेतु असंख्य प्रार्थनाएं उपलब्ध होती हैं । साथ ही अन्य तीनों वेदों के समान इसमें भी ऐसे सूक्त हैं जो धार्मिक-औपचारिक संस्कारों में प्रयुक्त होते हैं । पुष्पदन्त कहते हैं कि तीनों वेद आपके सूक्तों का मधुमय गान करते हैं ।
स्तुतिकार के अनुसार भगवान शिव का दिव्यैश्वर्य इस प्रकार वेदों में तथा भिन्न-भिन्न गुणों के भेद से त्रिदेवों में परिव्याप्त है । किन्तु तब भी कुछ मूर्ख और नास्तिक लोग अथवा ईश्वर-द्रोही लोग कुटिलता से उनके भव्य ऐश्वर्य का खंडन करते हैं । ऐसे लोग, जिनमें वे मीमांसक भी सम्मिलित हैं, जो ईश्वर-विरोधी अथवा अनीश्वरवादी हैं, अज्ञानी जनों में अथवा साधारण जनों में मिथ्या बातें फैला कर दुष्प्रचार करते है । भ्रांत और भोले-भाले, मूढ़ जनों को उनकी कदाशयता से भरी बातें प्रिय लगती हैं (अनीश्वरवाद के सन्दर्भ में दार्शनिक चार्वाक का नाम याद आता है, जो नास्तिक थे और जिनका दर्शन वेद-विरोधी है । इस दर्शन के मानने वाले ईश्वर की सत्त्ता को न मानते हुए ईश्वरवाद को रुग्ण प्रणाली बताते हैं । प्रत्यक्षवादी आचार्य चार्वाक का दर्शन लोकायत्त कहलाया जिसका अर्थ है लोगों में प्रचलित । ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञात वस्तु को ही सत्य तथा प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माननेवाले इन तार्किकों की बातें जनमानस की एक धारा को – भ्रांत और भोले-भाले मतिमन्द जनों को सरल व प्रिय प्रतीत हुईं, अरमणीय बातें रमणीय लगीं । फलतः कुछ मूढ़ लोग प्रभावित रहे ) ।
शिवैश्वर्य को नकारने वाले कोरी तर्कवादी और ओछी बुद्धि के कुछ लोग शिव की नाट्यलीला को न समझ कर उन्हें अपमानित करने वाले दुर्वचन बोलते हैं । कुछ नरकृमि निकृष्ट जन उनकी पवित्र पारिवारिक लीलाओं में काम-कलुषता और उनके नाना रूपों तथा चरितों में विषयोन्मुखता का विचित्र-विद्रूप व्यापार देखते हैं । ऐसे अधमाधम लोग यह नहीं जानते कि शिव तो स्वयं कामान्तक हैं, उनमें भला काम का लेशमात्र भी कहाँ ? तमोगुण के वे अधिष्ठाता देव जो तमोगुण पर नियंत्रण रखते हैं, उनमें तामसी प्रकृति की कल्पना तक भी की जा सकती है क्या ? उनका अनुग्रह पाकर तो अनेक असुर और नाग आदि भी तपोधनी व भक्त बन गए । दिगंबर रहने पर भी वे वरद सर्वमंगल तथा नित्यविभूति हैं । उनकी आराधना तो साधक के काम-मोह-शोक का नाश करने वाली है, उन्हें अनासक्त बना देने वाली है । किन्तु कुछ कलुषहृदयी जन शिव-नाट्यलीला के मर्म को न समझते हुए अनेक तरह की अभद्र और अशोभनीय बातें करते हैं जो कि नष्ट-बुद्धि वाले लोगों को सरस व सत्य लगती हैं जो कि अनुचित है । यह प्रवृत्ति शिव-निंदकों के मानसिक बन्ध्यत्व ( बांझपन ) की परिचायक है ।
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Osho ???? महामुर्ख , भ्रष्ट मति वाला
किसी भी दार्शनिक या धर्मोपदेशक पर इस तरह टिप्पणी करना हम सर्वथा अनुचित और अभद्र समझते हैं । अतएव ऐसा करने से कृपया बचें । यहां हमारा अभीष्भट केवल यही है कि भगवान् शिव के स्तुतिगायकों के संस्कृत स्तोत्रों से पाठकों का परिचय प्रगाढ़ हो । इति शुभम् ।