शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३४

Shloka 34 Analysis

अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुमान् य: ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ ३४ ॥

अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत्
अहरहरनवद्यं अहरह: + अनवद्यम्
अहरह: = प्रतिदिन
अनवद्यम् = दोषरहित, पावन
धूर्जटे: = शंकर के
स्तोत्रमेतत् स्तोत्रम् + एतत्
स्तोत्रम् = संस्तुति को
एतत् = इस
पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुमान् य:
पठति = पढ़ता है
परमभक्तया = परम भक्ति से, भक्तिपूर्वक
शुद्धचित्त: = शुद्ध मन वाला हो कर
पुमान् = पुरुष
य: = जो कोई
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
= वह
भवति = होता है
शिवलोके = मृत्यु के अनन्तर शिवलोक में
रुद्रतुल्यस्तथात्र रुद्रतुल्य: + तथा + अत्र
रुद्रतुल्य: = रुद्र के सदृश स्वरूप वाला
तथा = और
अत्र = यहां (इस लोक में)
प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च
प्रचुरतरधनायु: प्रचुरतरधन +आयु:
प्रचुरतरधन = खूब अधिक धनवाला वाला
आयु: = (व) दीर्घ आयु वाला होकर
पुत्रवान् = पुत्र-पौत्रादि सन्तति वाला
कीर्तिमांश्च कीर्तिमान् + च
कीर्तिमान् = यशस्वी
= तथा

अन्वय

य: पुमान् शुद्धचित्त: परम भक्तया धूर्जटे: अनवद्यम् एतत् स्तोत्रम् अहरह: पठति स: शिवलोके रुद्रतल्य: तथा अत्र प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमान् च भवति ।

भावार्थ

जो पुरुष मन को शुद्ध करके व परम भक्ति से भगवान् शंकर के इस पावन स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ता है, वह (मृत्यु के उपरान्त) रुद्र के सदृश रूप वाला होकर शिवलोक (कैलाश) में निवास करता है तथा (अपना जीवन जीते हुए) इस लोक में अतिशय धनवान एवं आयुष्मान होता है तथा पुत्र सन्तति पाता है व यशलाभ करता है ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के प्रस्तुत श्लोक में इस स्तुति के भक्तिपूर्वक किये गये पाठ का माहात्म्य बताया गया है । मलिन अथवा अशुद्ध मन से किया गया पाठ फलदायक नहीं होता । अतएव कवि का आशय है कि भगवान् धूर्जटि के इस दोषविनिर्मुक्त पावन स्तोत्र के पाठ हेतु मन की शुद्धि आवश्यक है । निर्मल मन से व भक्तिपूर्वक महादेव के इस परम पावन स्तोत्र का पाठ करना आराधक का कर्त्तव्य है । स्तुतिगायक कहते हैं कि भगवान् धूर्जटि के इस स्तोत्र में कोई दोष नहीं है । जो कोई भी मनुष्य शुद्धान्त:करण व परम भक्ति से प्रतिदिन  इसे पढ़ता है वह इस लोक में प्रचुर धन से संपन्न होता है । धनाढ्य होने के अलावा  वह दीर्घायु हो कर पुत्र-सन्तति की प्राप्ति का सुख भोगता है । वस्तुत: लम्बी आयु के सुख में निरोगी काया का सुख अन्तर्निहित रहता है । तात्पर्य यह है कि लक्ष्मी व लम्बी आयु की प्राप्ति के साथ ही पुत्र-पौत्रादि युक्त हरे-भरे पूरे कुटुम्ब का सुख उसे लब्ध होता है । इसके अतिरिक्त लोक में वह सत्कीर्ति पा कर धन्य होता है।

स्तुतिकार ने शिवमहिम्न:स्तोत्र के सादर प्रतिदिन पाठ का मृत्यूपरान्त फल भी विवक्षित किया है । इसके पाठ का माहात्म्य अपार है । भक्ति की दुग्ध-धवल धार में धुल कर शुद्ध बना हुआ आराधक का चित्त उसे भक्ति में  इतना उत्कर्ष देता है कि स्तोत्रपाठक अपनी मृत्यु के उपरान्त भी पाठ का फल पाता है । और फल कितना उत्तम और अलभ्य !  मृत्यु के बाद उसकी गति कैलाश अर्थात् शिवलोक में होती है, जहां वह रुद्र के सदृश रूप पाता है अर्थात् रुद्र की समरूपता पाता है, स्वयं रुद्र जैसा हो जाता है । यह सायुज्य मुक्ति है । इसे प्राप्त करके साधक का आवागमन का चक्र (जन्म-मरण) का चक्र सदा के लिये समाप्त हो जाता है । इस प्रकार कवि के अनुसार इस स्तोत्र को पढ़ने वाला बहुत धनवाला और बहुत पुत्र-पौत्रादि वाला व दीर्घायु वाला होकर यश-प्राप्ति कर अन्त में शिव-लोक में जाकर शिव-स्वरूप हो जायेगा ।

इस प्रकार ३४वें श्लोक में शिवमहिम्न:स्तोत्र के पाठ का उत्कर्ष कथन दिया गया है ।

श्लोक ३३ अनुक्रमणिका श्लोक ३५

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