शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक ११

Shloka 11 Analysis

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदन्गतुङ्गमङ्गल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचंडताण्डवः शिवः ।।

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमश्वसद् जयतु + अदभ्र + विभ्रम +
भ्रमद् + भुजङ्गम + श्वसद्
जयतु = जय हो
अदभ्र = पुष्कल
विभ्रम = प्रवेग से
भ्रमद् = चक्कर लगाते हुए
भुजङ्गमः = सर्प
श्वसद् = श्वास छोड़ते; हुए, फुफकार छोड़ने से
विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् विनिर्गमत् + क्रमस्फुरत् +
कराल + भाल + हव्यवाट्
विनिर्गमत् = बाहर निकलता हुआ
क्रमस्फुरत् = क्रम से बढ़ता हुआ, भड़कता हुआ
कराल = प्रचंड
भाल = माथा, ललाट
हव्यवाट् = अग्नि
भालहव्यवाट् = ललाटाग्नि
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वन्मृदंगतुंगमंगल धिम + धिम + धिम + ध्वनन् +
मृदंग + तुंग + मंगल
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन् = धिम धिम; की ध्वनि करता; हुआ
मृदंग = एक प्रकार का ढोल या मुरज
तुंग = ऊंचा, गंभीर
मंगल = शुभ, कल्याणकारी
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचंडताण्डवःशिवः ध्वनिक्रमः + प्रवर्तित +
प्रचंड + ताण्डवः + शिवः
ध्वनिक्रम: = लय-ताल; का क्रम
प्रवर्तित = सक्रिय होता; हुआ
प्रचंड = उग्र, ऊर्जा; से प्रपूरित
ताण्डवः = तांडव; नृत्य
शिवः = भगवान शिव

अन्वय

अदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजंगं श्वसद् विनिर्गमत् क्रम स्फुरत् कराल भाल – हव्यवाट् धिमिद् धिमिद् धिमिद् धिमिद् ध्वनन् मृदंग तुंगमंगल ध्वनि – क्रम: प्रवर्तित प्रचण्ड – ताण्डव: शिव: जयतु  ।

भावार्थ

प्रबल वेग से कुण्डलाकार घूमते हुए क्षुब्ध सर्प के बाहर निकलते हुए श्वास के सम क्रमवेग से जिनके ललाट की अग्नि विकराल हो कर प्रज्ज्वलित हो रही है और जो मृदंग के धिमिद्-धिमिद् करते ऊंचे मंगल रव के ध्वनिक्रम के अनुरूप प्रचण्ड ताण्डव कर रहे हैं, उन भगवान शिव की जय हो !

व्याख्या

shlok 12

प्रबल वेग से कुंडलाकार घूमते हुए भुजंग के श्वास अर्थात् उसकी फूत्कार से जिनके ललाट की अग्नि भी उतनी ही उग्रता से  धधकती हई  फ़ैल रही है, और धिमिद्-धिमिद् करते मृदंग के ऊंचे मंगल-रव में, ध्वनि, ताल के क्रम के अनुरूप जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है,  उन नृत्य -विभोर भगवान शिव की जय  हो ।

नाागप्रस्तुत श्लोक में रावण ने ताण्डव-तल्लीन भगवान शिव के मनोमुग्धकारी महानर्तक रूप का वर्णन किया है,  जो उनके प्रचंड नर्तन से, उनकी उन्मत्त, लेकिन लय -ताल के क्रमानुरूप पगों की थिरकन से, मृदंग की ध्वनि-तरंगों के कम्पन से जीवंत होता हुआ न केवल नयनगोचर होता है अपितु श्रवणश्राव्य भी होता हुआ मन को उल्लसित करता  है । उनकी देह से लिपटा सर्प अत्यंत शीघ्र वेग से कुंडलाकार चक्कर लगाता हुआ फ़ुफ़कारता जाता है, और बाहर छोड़े  हुए उसके प्रत्येक श्वास के साथ-साथ उग्रतर होती हुई भालाग्नि भीषण रूप से भड़क उठती है । यहाँ यह बताने का लोभ संवरण नहीं कर पाती हूँ  कि लिंग पुराण में कुछ भुजंगों के नाम दे कर कहा गया है कि शिव-प्रणाम में रत ये सभी भुजंग श्रीशिव-शरीर के आभूषण-स्वरूप हैं । वे भुजंग हैं- अनंत, वासुकि, कुलिक, कर्कोटक, तक्षक, महापद्म, शंखपाल तथा महाबल । इधर सर्प की फूत्कार, उधर अनल का संचार । अधिकाधिक भयंकर होती हुए जल उठती है भालाग्नि, श्वास-प्रति-श्वास । यह चित्रण इतना सजीव है कि इसे पढ़ कर अपनी त्वचा पर सर्प  सरकता हुआ अनुभूत होता है । भयंकर भालाग्नि की उग्रता भी सर्प-श्वासों की उष्ण फूत्कार की छुअन से अछूती नहीं । यह सब मिलकर वातावरण की ऊर्जा को प्रभावित करते हैं । वर्णन में एक विद्युत स्पर्श है । त्वरा का, अविरामता का पुट है और यह सब संवेदना-ग्राह्य है । मृदंग की सशक्त धिम-धिम ध्वनि, थिरकते पगों की सक्रियता में ऊर्जा के अतिरिक्त स्रोत को प्रवाहित करने का कार्य करती है । ध्वनि-तरंगों में प्रचंड शक्ति सन्निहित होती है । उनमें कम्पन व क्रम की एक सुनिश्चित व्यवस्था होती है । वाद्ययंत्र को अमुक क्रम से बजाने पर ध्वनि-प्रवाह निःसृत होता है । ध्वनि-तरंगें संगीत के रूप में विभिन्न रागों में प्रयुक्त हो कर आनंद की सृष्टि करती हैं । इस श्लोक में मृदंग की ध्वनि के ताल-क्रम के ठीक अनुरूप प्रचंड ताण्डव करते हुए भगवान शिव के पग एवं सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग थिरक रहे हैं । झंझा के झकोरों में मानो सब कुछ उड़ा जा रहा है किन्तु एक निश्चित क्रम से, गति और लय से । सब कुछ सत्वर है, सस्वर है, स्वच्छ और स्पष्ट है । दिशाविहीन कुछ नहीं, रूपविहीन कुछ नहीं, सब कुछ सुर में है बेसुरा कुछ नहीं । जो कुछ भी दृष्टि के सम्मुख है, वह सब नेत्रसुहावन है, भूतभावन की भयंकर भृकुटि भी लुभावन  है । ताण्डव-चेतना में आकण्ठ डूबा हुआ और श्रद्धा से भरा हुआ रावण शिव की जयजयकार कर उठता है । सब कुछ शब्दायमान  होकर भी निःशब्द और कम्पायमान होकर भी निष्कम्प, स्तब्ध है जैसे । ताण्डव-रत भगवान शिव के अंग-संचालन, मुद्रा-लाघव, उनके पग, कटि, भुजा, ग्रीवा के तड़ित-वेग से होते हुए हिल्लोल-विलोल को विचार-तरंगों में देखता हुआ पाठक, कैलाश-कल्पना में महानर्तक के दर्शन कर लेता है इस श्लोक में । शिव-ताण्डव की प्रचंडातिशयता की एक सशक्त वानगी पुष्पदंत प्रणीत ‘शिवमहिम्नस्तोत्रम्’ के १६वें श्लोक में कुछ इस प्रकार चित्रित की हुई मिलती है कि नृत्य करते समय शिव के पदों के आघात से मही (धरती) को संशय होने लगता है कि कहीं मैं नीचे न धंस जाऊं, आकाश घूमती हुई जटाओं की चोट से इधर-उधर उछलते हुए ग्रहों वाला हो जाता है तथा उनकी खुली हुई जटाओं के झटकों से स्वर्ग भी डावांडोल होने लगता है । एक विद्वान व भक्त कवि ने ब्रजभाषा में इसका काव्यानुवाद इस प्रकार किया है,

ताण्डव-अकांड में धमक पाय पाँयन की
डगमग धाम है धरा कौ धसकत है
घूमत  परिघ सी भुजान के अघात लागें
गात ग्रह गन के गगन कसकत हैं
छूटे जटाजूटन के झोंकन ते बार बार
ताड़ित द्युलोक ओक हूँ ते खसकत है

शिवताण्डवस्तोत्रम्  का यह श्लोक पूरा का पूरा  विद्युत-संचार से आवेशित  है । आरम्भ में सर्प के श्वास की बात कही गई है । श्वास की ध्वनि ही तो जीवित रहने का प्रमाण है । यह प्राण ऊर्जा की उपस्थिति को दर्शाती है । ‘भुजंगमश्वसद्’ से प्राण तत्व संकेतित है तथा भालाग्नि तो तेजस् तत्व है ही । भुजंगमश्वसद् से करालभालहव्यवाट् के प्रतिस्फुरित होने की स्थिति है । मृदंग का मंगल रव यानि शब्द’ (जो ‘आकाश’ तत्व का गुण  है ) इस नृत्य को प्रवेग  प्रदान करता है । सृष्टि के यह सभी तत्व सृष्टिकर्ता द्वारा निर्मित naga-panchami-3नियमों के अंतर्गत हलचल अथवा क्रिया-कलाप करते हैं । ध्वनिक्रमोप्रवर्तित अर्थात् ध्वनिक्रम के आरोह-अवरोह के अनुसार महानर्तक शिव अमित ऊर्जा से अपने ताण्डव-नृत्यमें प्रवृत्त हैं । ‘शिवमहिम्न:स्तोत्रम्’  के अनुसार वे जगत की रक्षा के लिए नृत्य करते हैं जगद्रक्षायै त्वं नटसि  । यह सृजनकर्ता के सृजन का नृत्य है । वास्तविकता तो यह है कि समूची सृष्टि शिवविनिर्मित प्रकृति या शक्ति की इच्छानुरूप नर्त्तन कर रही है । भगवान शिव सिरजनहार हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में, शिव स्तुति में उन्हें “निराकारमोंकारमूलं” बताया है, अर्थात वे निराकार, ओंकार व (विश्व) का मूल हैं । श्री शंकराचार्य अपने ‘वेदसारशिवस्तवः’ में उन्हें “जगद्बीजमाद्यं” और “निराकारमोंकारवेद्यम्” पुकारते हुए आगे कहते हैं,

अजं शाश्वतं कारणं  कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्

अर्थात् जो जन्मरहित हैं, नित्य हैं, कारण के भी कारण हैं, कल्याणकारी हैं, एक हैं, प्रकाशदायी को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं । श्रीपृथिवीपतिसूरि अपने ‘श्रीपशुपत्याष्टकम्’ में शंकर को ‘विश्वाद्यं  विश्वबीजं’ कहते हुए इनके वाद्यकला व गायनकला के कौशल्य के विषय में कहते हैं कि वे मृदंग और डमरू बजाने में निपुण तथा मधुर पंचम स्वर में गाने में कुशल हैं,

मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं  मधुरपञ्चमनादविशारदम् ।

4530457_14501515_lzशिव के ताण्डव-नृत्य के विषय में डा. कृष्णजी गुप्ता अपने लेख ‘देवाधिदेव महादेव -नटराज शिव’ (कल्याण, अवतार कथांक ) में कहती हैं कि “शिव को अनुग्रह, प्रसाद एवं तिरोभाव करने वाला माना गया है । शिव के ये सम्पूर्ण कृत्य पंचकृत्य के परिचायक हैं । संसार के लय, विलय, संरक्षण, अनुग्रह, प्रसाद, तिरोभाव आदि कृत्यों से उनके पंचकृत्यों का उद्भव होता है ।” आगे इसी लेख में उन्होंने यह भी कहा है कि शिव को संगीत नृत्य, नाट्ययोग, व्याख्यान आदि विद्याओं में पारंगत कहा गया है । वे सभी नृत्यों में पारंगत माने गए हैं । डा.कृष्णजी गुप्ता के शब्दों में “भरत  मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नृत्य की १०८ मुद्राओं का वर्णन किया है । शैवागमों में शिव को १०१ मुद्राओं से भी अधिक मुद्राओं  में नृत्य करते हुए वर्णित किया गया है । चिदम्बरं के नटराज मंदिर के गोपुर के दोनों ओर १०८ मुद्राओं में शिव के नृत्य का अंकन है और प्रत्येक मुद्रा को शिल्पी ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार प्रस्तर पर उत्कीर्ण किया है । गोपुर में प्रयेक अंकन के नीचे नाट्यशास्त्र के श्लोक लिखे हुए हैं ।” लेखिका के कथनानुसार शिव संसार के क्रमबद्ध जीवन के प्रतिपादन के लिए नृत्य करते हैं । उनका नृत्य पंचाक्षर न म शि व य (पांच अक्षरों) का समुदाय है । उनके पग में न, नाभि में म, स्कंध में शि, मुख में एवं मस्तक में य है । उनके चार हाथों में से डमरु वाले हाथ से सृजन और अभय मुद्रा वाले हाथ से आशा व रक्षा का द्योतन होता है, अग्नि लिए हुए हाथ विध्वंस एवं पैर की ओर उठा हुआ हाथ आत्मा के आश्रयस्थल का प्रतीक है ।

aghoriशिव-ताण्डव  में सृजन और संहार दोनों क्रमागत होते हैं । यह सत्य विज्ञानानुमोदित है कि इस जगत में छोटी से छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी प्रत्येक वस्तु के अणु-परमाणु कम्पायमान हो रहे हैं, निष्कम्प कुछ नहीं , सब कुछ चलायमान है, अचल कुछ भी नहीं । जड़ दिखाई देने वाली वस्तु  का भी एक एक परमाणु घूम रहा है ,प्रकारांतर से  समूची सृष्टि नर्त्तनरत है । प॰ श्रीराम आचार्य के अनुसार अदृश्य जगत की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली पर जिधर भी हम दृष्टि डालते हैं , उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक सूक्ष्म संगीत से दिशाएं झंकृत हो रही हैं ,हर तरफ स्वर-लहरी गूँज रही है और इस स्वर-लहरी पर विमुग्ध हो कर विश्व की जड़-चेतन सत्ता का प्रत्येक परमाणु नृत्य कर रहा है । विद्वान लेखक श्री  गुरुदत्त ने अपनी पुस्तक सायंस और वेद में कहा है कि जगत, वह सब कुछ जो हमारे चारों ओर चलायमान है, उसे कहते हैं ।  यही निर्मित सृष्टि है , रचित सृष्टि है । ‘ऋग्वेद’ के उदाहरण से वे कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा से उसकी शक्ति जागृत हो उठती है ।  क्योंकि वह ‘ऋत’ (अनादि नियम) का पालन करता हुआ वर्तमान होता है ।

ऋतञ्च सत्यंचाभीद्धात तपसोsध्यजायत ।
— (ऋ. १०-१९०-१)

अर्थात् यह जगत, यह निर्मित सृष्टि ,यह रचना, ऋत और सत्य के निcosmic-danceयमानुसार स्थित होने से बनी है, ऋत के अनुसार ही जगत अंतरिक्ष में विस्तार पाता है एवं फिर रात्रि अर्थात प्रलय होती है । यह दिन और रात, रचना और प्रलय एक दूसरे के उपरांत होते हैं, एक सुनिश्चित नियम एवं क्रम से । जगत का अपने असंख्य परमाणुओं और उनकी सम्भाव्यताओं के साथ, अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ, ऋत व सत्य के नियम से रचित, संचरित व संहृत होना एक ब्रह्मांडीय नृत्य सदृश लेखा व देखा गया है । अत्यल्पबूझ या अनबूझ पहेली-सी इसी, अद्भुत-अबोघगम्य और अविरत चलती रहने वाली इस खगोलीय घटना को, जो अविज्ञेय-दुर्विज्ञेय रहस्यों के  तमिस्रावरण  से ढंकी, विज्ञान और अध्यात्म के, प्राचीन और अर्वाचीन मान्यताओं के मेघ-समूह  के मध्य में से तड़ित की कौंध-सी दिपती-छिपती है , अंगेजी  में, Cosmic Dance of Shiva के नाम से जाना जाता है । भगवान शिव विश्व के आदि कारण हैं व विश्व उनकी अभिव्यक्ति है । आध्यात्मिक साधन पुस्तक में लेखक स्वामी रामानंद कहते हैं कि विश्व शिव का रूप है, परन्तु वे इतने मात्र ही नहीं हैं,  वे विश्व का अतिक्रमण करते हैं और विश्व से अतीत हैं ।  प्रकृति उनकी शक्ति है पर वे उससे भी अतीत हैं । सत्य ही है कि प्रकृति या माया उनसे ही उद्भूत है, अतः वह विश्वेश्वर को व्याप्त नहीं कर सकती; और इसी कारण वे शिव ही इसका संहार करने में समर्थ हैं । ऋषि-मुनि कठोर तप द्वारा इसी माया से ही तो मुक्त होना चाहते हैं । संत कबीरदास के शब्दों में “माया महाठगिनी हम जानी ।” समूची रचना प्रकृति अथवा माया ही है तथा इसे संहृत कर लिए जाने पर सब कुछ का संहार हो जाता है । श्री गुरुदत्त की पुस्तक लायंस और वेद में बृहदारण्यक उपनिषद् से एक उदहारण दिया गया है,

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
— (बृ ,उ , ५-१-१)

mudraलेखक गुरुदत्त के कथनानुसार इसका अर्थ है, “यह (व्योम) पूर्ण (सर्वत्र) है । इसमें से यह (निर्माण किया) भी पूर्ण (सर्वत्र) है । पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी पूर्ण ही बच जाता है ।” हमारे वेद, पुराण आदि तथा अन्य आर्ष-ग्रन्थ सृष्टि-रचना के विशिष्ट ज्ञान का विवेचन अपनी-अपनी रहस्य्मयी शैली में करत्ते हैं । नटराज रूप में नाट्यकला के प्रवर्तक भगवान शिव की ताण्डव-चेतना के गर्भ में भी गम्भीराशय निहित हैं । जैसे उनके १४ माहेश्वर सूत्रों में संस्कृत का समूचा व्याकरण समाया हुआ है, वैसे ही ताण्डव-नृत्य में  भी रचना के गूढातिशयगूढ़ रहस्य  समाहित हैं । इस नृत्य की मुद्राएं ,भावभंगिमाएं, अंग-संचालन आदि वस्तुतः ब्रह्माण्ड की सूक्ष्मताओं का  नृत्यनुवाद करते हैं । ‘नाट्य शास्त्र’ को ‘पंचम वेद’ कहा गया है । कहना न होगा कि ताण्डव-नृत्य भी प्रकारांतर से अपने आप में  शिव की रचना का, सृष्टि से प्रलय पर्यंत एक पूरा ज्ञान-कोश है ।

प्रस्तुत श्लोक में शिव का पूरी गरिमा के साथ किया गया नर्तन लोकोत्तर आनंद की सृष्टि करता है । मृदंग के मंगल रव के मध्य ताण्डव-नृत्य में विभोर अपने आराध्य के उन्मत्त और उत्कट रूप के दर्शन से धन्य हुए रावण का  भावोद्रेक देखते ही बनता है, जब पूरी श्रद्धा से वह पुकार उठता है, भगवान शिव की जय हो ।

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4 comments

  1. दीपक says:

    कृपया ‘पुष्कल’/ ‘अदभ्र’ का अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें..

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय दीपकजी, दभ्र का अर्थ है, स्वल्प (सु+अल्प) अर्थात् थोड़ा, ज़रा-सा तथा इसके विलोम शब्द अदभ्र का अर्थ है, अनल्प (अन्+अल्प) अर्थात् जो अल्प मात्रा में न होकर प्रचुर मात्रा में हो या प्रबल वेग से हो । अदभ्र शब्द अधिकता का नहीं अपितु अत्यधिकता का बोध कराता है ।
      पुष्कल शब्द भी प्रचुरता का वाचक है, जैसे राजा जनक ने पावन अवसर पर पुष्कल सामग्री (बहुत-सी सामग्री) भेंट में दी ।
      इति नमस्कारान्ते ।

      • सागर श्रीवास्तव says:

        किरन जी सादर नमन, आप रुद्राष्टक का अनुवाद भी करिये

        • Kiran Bhatia says:

          आदरणीय सागर श्रीवास्तवजी, नमस्कार । आपके अनुरोध का स्वागत है । धन्यवाद ।

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