धूप-छांह
अनमनी अनिमि मैं बुझी हुई सी
विकल हूँ न जाने क्यों स्वयं से ही
हवा जो तुम्हें छू कर बह गई है
एक बात सरसरा कर कह गई है
खुश तो तुम भी नहीं जहां भी हो
न यहां पर थे न अब वहां ही हो
जैसे बिना अर्थ का कोई शब्द हो
नदी को न सागर उसका लब्ध हो,
अस्तित्व मैला काई सा
बिन देह की परछाई सा
कमल खिलने के इंतज़ार में
सरोवर सूख गया तुषार में
सवार मौन के तूफ़ान पर
भावनाएं उद्वेल के उफान पर
तट की तप्त रेती खोद जाती हैं
क्षुब्ध हहराती बोल जाती हैं
अब जो कूहा कुछ छंट चली
तो संयत मन की तितली
मुझसे मैत्री गांठ रही है
रंग भी अपने बाँट रही है
सरोवर सूख गया तुषार में
सवार मौन के तूफ़ान पर
भावनाएं उद्वेल के उफान पर
तट की तप्त रेती खोद जाती हैं
क्षुब्ध हहराती बोल जाती हैं
अब जो कूहा कुछ छंट चली
तो संयत मन की तितली
मुझसे मैत्री गांठ रही है
रंग भी अपने बाँट रही है
लो मुख से मुस्कान फिसल पड़ी
जाड़े में गुलाबी धूप निकल पड़ी
नीरभ्र नभ है स्वच्छ भूरा
मैं भेद जान गई हूँ पूरा
तुम यदि हो रुष्ट मुझ से
कैसे रहूँ मैं तुष्ट खुद से,
तुम रुष्ट हो तो यही सही
रहूंगी रुष्ट स्वयं से मैं भी
कर लो चाहे जो पर यह मत भूलो
जहाज के पंछी हो इतना मत उड़ो !।
जाड़े में गुलाबी धूप निकल पड़ी
नीरभ्र नभ है स्वच्छ भूरा
मैं भेद जान गई हूँ पूरा
तुम यदि हो रुष्ट मुझ से
कैसे रहूँ मैं तुष्ट खुद से,
तुम रुष्ट हो तो यही सही
रहूंगी रुष्ट स्वयं से मैं भी
कर लो चाहे जो पर यह मत भूलो
जहाज के पंछी हो इतना मत उड़ो !।
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Nice poem. 🙂
I like this line very much – जाड़े में गुलाबी धूप निकल पड़ी!
Regards,
Chandrika Shubham
Thanks for liking it.