श्रीहनुमानचालीसा

दो शब्द

Shri Hanuman Chalisa – An Introduction


श्रीरामजी के अनन्य सेवक व भक्त बजरंग बली हनुमान के पावन सुयश का वर्णन बहुत ही संक्षिप्त में गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीहनुमान चालीसा में करके कलियुग के त्रस्त मनुष्यों के लिये कल्याण का अद्भुत मार्ग प्रशस्त किया है । केवल चालीस चौपाइयों में उन्होंने अपने मन के पूरे भक्तिभाव से महावीर पवनपुत्र के अनन्त गुणों का गान किया है तथा उनसे दु:ख व विकारों को हर लेने की भक्तिमयी गुहार लगायी है ।

हनुमानजी भगवान शंकर का अवतार हैं । उन्हें एकादश (ग्यारहवाँ) रुद्र कहा जाता है । पौराणिक ग्रन्थों में हनुमानजी के दिव्य जन्म तथा कर्म की कथाएँ पढ़ने को मिलती है । शिवमहापुराण में दी गई कथा को अति संक्षेप में इस प्रकार कह सकते हैं कि एक बार भगवान् विष्णु के मोहिनी रूप को देख कर रोमांचित हुए भगवान शिव के वीर्य का स्खलन हो गया और उसका प्रयोग उन्होंने रामकार्य के लिये किया । हम केवल मनुष्य की भाषा में ही पौराणिक कथाओं को समझते हैं, उससे अधिक या आगे  समझनेका सामर्थ्य हम मनुष्यों में नहीं है । अत: दिव्य लोकों में घटने वाली घटनाओं का हम सीमित व संकुचित अर्थ ही केवल ग्रहण करते हैं । वास्तव में हमें यह सोचना चाहिए कि शिवजी व विष्णुजी मनुष्य नहीं हैं । वे देव हैं, दिव्य हैं । देवता का वीर्य अथवा शुक्र भौतिक नहीं होता, अपितु दिव्य होता है, जिसे ‘तेजस्’ भी कहा गया है । सप्तर्षियों ने शिवशुक्र को पत्रपुटक में (दोने में) रख लिया तथा उन्हीं में से एक महर्षि वशिष्ठ ने अंजनिदेवी को दीक्षा देने के हेतु से वह शम्भु-शुक्र उनके कान में प्रवाहित कर दिया, जैसे गुरु दीक्षा देते समय शिष्य के कान में गुरु-मन्त्र सुनाते हैं ।

एक बार महापराक्रमी पुत्र की कामना से तपस्या करती हुईं वानरराज केसरी की पत्नी अंजनीदेवी को पवनदेव ने अपने ही समान वेगवान व बलशाली पुत्र की माता बनने का वरदान दिया था । कान में प्रवाहित शिवशुक्र के साथ बहते हुए पवन के झोंके का अंजनी देवी से सम्पर्क हुआ । इस प्रकार भगवान रुद्र ही अपने एक अंश से अंजनी देवी के गर्भ में आ गये, अतएव उनसे उत्पन्न होने के कारण दिव्य वानर शरीर वाले हनुमानजी भी परम तेजस्वी व महाशक्तिमान हुए । वायुपुत्र होने से वायु वाला वेग व बल भी सिद्ध हुआ । वानर कोई मनुष्य जाति तो थी नहीं । विद्वान लेखक श्री सुदर्शनसिंह ‘चक्र’ अपनी पुस्तक ‘आंजनेय की आत्मकथा’ में लिखते हैं कि वानर भी उपदेव होते हैं (अर्थात् देवजाति के ही होते हैं) तथा उनके शिशुओं के लिये मानवीय शिशुओं की  तरह धीरे-धीरे बढ़ने की आवश्यकता नहीं । वे कामरूप होते हैं, शैशव से ही बलशाली भी होते हैं ।

हनुमानजी के जीवन की विविध घटनाएं तथा उनके विभिन्न पराक्रमों की कथाएं लोक में प्रसिद्ध हैं । भारतीय संस्कृति प्रत्येक वन, ग्राम, नगर, पर्वत व शिखर आदि में उनके अधिष्ठाता देवता की उपस्थिति में दृढ़ विश्वास रखती है । रुद्रावतार हनुमानजी प्राचीन काल से भारतवर्ष में महाबलशाली व सर्वकार्य सिद्ध करने वाले देव के रूप पूजे जाते हैं तथा स्थान-स्थान पर वनों, पर्वत शिखरों पर इनके मंदिर दृष्टिगोचर होते हैं । नैष्ठिक ब्रह्मचारी हनुमानजी  मल्लयुद्ध करने वाले अर्थात् पहलवानों के परम आराध्य देव हैं । भारत में असंख्य अखाड़ों में हनुमानजी के मन्दिर मिलते हैं । अखाड़ों के वे अधिष्ठाता देवता हैं । आज के इस स्वच्छन्दता से भरे भरे वातावरण में जीवन जीने वाले युवकों को उनके आचरण और आदर्शों की बहुत आवश्यकता है, ताकि ब्रह्मचर्य से प्राप्त होने वाले ओज और शक्ति को वे पहचानें और तेजस्वी होकर अपनी क्षमताओं को विवेक से सही दिशा दें । श्रीहनुमान चरित का नियमित पाठ देश के युवाओं में संयम व सदाचार भर कर उनका सही मार्गदर्शन करने में समर्थ है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।

वानरेश्वर हनुमान वास्तव में लोकदेवता हैं । और लोक में यह मान्यता दृढ़मूल है कि उनके चरणों में पहुंची हुई किसी भी भक्त की पुकार कभी अनसुनी नहीं होती । वायुनन्दन उड़ कर पहुँचते हैं भक्तों के पास तथा उनके संकटों को हर लेते हैं । इसीलिये तो वे संकटमोचन कहलाते हैं । हनुमान रुद्र के अवतार होने के कारण उन्हीं की तरह आशुतोष भी हैं अर्थात् शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं । श्रीहनुमान चालीसा अब तक रची गईं सब स्तुतियों में सबसे से छोटी स्तुति है । यह अवधी भाषा में लिखी गई है । उत्तर प्रदेश का अवध राज्य अथवा अयोध्या पुराने समय में ‘कोशल’ कहलाता था ।

यहां श्रीहनुमान चालीसा का भावार्थसंक्षिप्त व्याख्या लिखने का प्रयोजन इतना भर है कि मेरा अन्त:करण  श्रीमारुति-चरित को गा कर उनकी कृपा से शुद्ध होवे और उनके पावन पद-कमलों की भक्ति व प्रीति की सदा मिलती रहे । अपने अज्ञ प्रयास से कहीं भक्तापराध न कर बैठूँ, इसका मन के किसी कोने में यह भय भी है, किन्तु आस्था के मनोरम भवन की आधारशिला भी तो इन्हीं महात्माओं के कल्याणकारी वचनों से सुदृढ़ हुई है । श्रीरघुनाथजी व श्रीरामदूतजी के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास के श्रीचरणों में सादर नमन कर अपने बिखरे हुए भावों को अक्षरबद्ध करने के क्षुद्र प्रयास के हेतु उनकी आज्ञा व आशीष चाहती हूँ । मानव के कल्याण का मार्ग इन्हीं की मधुरी वाणी से प्रशस्त हुआ है।

जय श्री राम ।

अनुक्रमणिका मूलपाठ

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