शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक १४
Shloka 14 Analysisअकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा-
विधेयस्याssसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: ।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोsपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: ।। १४ ।।
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा- | ||
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा | → | अकाण्डब्रह्माण्ड + क्षय + चकित + देवासुर + कृपा-विधेयस्य |
अकाण्डब्रह्माण्ड | = | असमय, अचानक ब्रह्माण्ड (के) |
क्षय | = | नष्ट (हो जाने के भय से) |
चकित | = | त्रस्त, भयभीत |
देवासुर | = | देवता व असुर |
कृपा-विधेयस्य | = | करुणा करने वाले |
कृपा-विधेयस्याssसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: | ||
कृपा-विधेयस्याssसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: | → | कृपा-विधेयस्य + आसीत्+ य: + त्रिनयन + विषम् + संहृतवत: |
कृपा-विधेयस्य | = | करुणा करने वाले (आपके) |
आसीत् | = | हो गया |
य: | = | जो |
त्रिनयन | = | (हे) त्रिनेत्र |
विषम् | = | कालकूट गरल |
संहृतवत: | = | पान करने वाले (आपके) |
स: कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो | ||
स: | = | वह ( नीलिमा) |
कल्माष: | = | कालिमा, नीलिमा |
कण्ठे | = | गले में, गले को |
तव | = | आपके |
न | = | (क्या) नहीं |
कुरुते | = | करती है ? |
न | = | नहीं ऐसा नहीं है (वह अवश्य शोभा से युक्त करती है गले को) |
श्रियम् | = | शोभा से युक्त, महिमा से मण्डित |
अहो | = | अहा ! |
विकारोsपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: | ||
विकारोsपि | = | विकार: + अपि |
विकार: | = | दूषण, विकृति |
अपि | = | भी |
श्लाघ्य: | = | स्तुत्य, प्रशंसा के योग्य (हो जाती है) |
भुवनभयभंगव्यसनिन: | = | भुवन + भय + भंग+ व्यसनिन: |
भुवन | = | जगत (के),त्रिलोकी के |
भय | = | संकट को, डर को |
भंग | = | नष्ट करना, (भंजन करने के) |
व्यसनिन: | = | स्वभाव वाले की |
अन्वय
भावार्थ
असमय ही ( समुद्र-मंथन करते हुए कालकूट विष के निकलने से) त्रस्त व भयभीत देवताओं व असुरों पर करुणा करके कालकूट विष का पान करने वाले आपके गले में हे त्रिनेत्र ! जो कालिमा अथवा नीलिमा आ गई है यह आपके गले की शोभा को क्या नहीं बढ़ाती ? क्यों नहीं, अवश्य ही बढ़ाती है । वह आपके गले को शोभा से संपन्न करती है । अहा ! कैसा आश्चर्य है ! संसार पर छाये संकट को तत्क्षण नष्ट करना ही जिनका स्वभाव है, स्वभावगत दुर्बलता है (और ऐसा करके ही जिन्हें चैन मिलता है), ऐसे सज्जनों के दूषण अथवा विकार भी प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, दूसरे शब्दों में कहा जाये तो उनमें पाई जाने वाली विकृति भी लोक में प्रशंसा ही पाती है ।
व्याख्या
शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के १४वें श्लोक में गन्धर्वराज पुष्पदंत ने भगवान नीलकण्ठ के करुणामय व परित्राणपरायण रूप को रेखांकित किया है जिसमें वे निखिल सृष्टि के कल्याण के हेतु कालकूट जैसे महातीक्ष्ण विष का पान करके त्रिलोकी की रक्षा करते हैं । वस्तुत: उन्हें व्यसन है जगत पर आये संकट को दूर करने का ।
श्लोक में समुद्र-मंथन के समय का दृष्टान्त दिया है । अमृत-प्राप्ति के हेतु देवताओं व असुरों ने आपस में सन्धि-समझौता करके मित्रता कर ली । और मिल कर वे अमृत-मंथन के लिये उद्योग करने में प्रवृत्त हुए । वासुकि नाग को नेती तथा मन्दराचल को मथानी बना कर अपने पूरे बाहुबल से, बड़े उत्साह व वेग के साथ वे मन्थन करने लगे । श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध के छठे अध्याय में वर्णित समुद्र-मन्थन की कथा का एक उद्धरण यहां प्रस्तुत है ।
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात तिमिद्विपग्राहतिमिंगलाकुलात् ।। १८ ।।
अर्थात् उदधि के मन्थन से समुद्र में बड़ी खलबली मच गई । उस समय पहलेपहल हालाहल नामक अत्यन्त उग्र विष निकला । मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत हो कर ऊपर आ गये । तिमि-तिमिंगल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये । तथा उसके बाद जिस तरह सब प्रजा भय से त्रस्त हो कर महादेव के निकट गई, उसका चित्रण भागवत में इस प्रकार मिलता है कि वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशा में, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा । भयभीत हो कर सम्पूर्ण प्रजा व प्रजापति किसी के द्वारा भी रक्षा न मिलने पर शरणं सदाशिवम् गये,अर्थात् भगवान सदाशिव की शरण में वे सब गये । प्रजा का यह संकट देख कर शिव करुणा-कातर हो उठे व अपनी पत्नी सती से बोले कि समुद्र-मन्थन से निकले कालकूट विष के कारण दुःखित प्रजा की रक्षा हेतु मैं अभी इस कालकूट विष का भक्षण करता हूँ, जिससे इनका कल्याण हो । और तत्क्षण ही वे उस तीक्ष्ण विष का भक्षण कर गये । भागवत के वर्णन के अनुसार वह विष जल का मल था, पाप था । यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम् अर्थात् जिसने शिव के कण्ठ को नीला कर दिया, किन्तु कल्याणकारी शिव के लिये वह भूषणरूप हो गया । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की इस संबंध में बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं ।
अमर सुधा से जीते हैं
किन्तु हलाहल भव-सागर का
शिव शंकर ही पीते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक समुद्र-मन्थन की इसी घटना के आलोक में भगवान नीलकण्ठ की महिमा का गान करता है । पौराणिक ग्रन्थ कहते हैं कि महादेव ने उस महाविष को गले में ही स्थित कर दिया, जिससे उनका कण्ठ विष की उग्रता के कारण नीला पड़ गया ।
गन्धर्वराज पुष्पदन्त कहते हैं कि अमृत-मन्थन में सम्मिलित रूप से उद्यत देवों व असुरों ने ब्रह्माण्ड को असमय में नष्ट होता हुआ देखा । इस अकाल संहार के दृश्य के उपस्थित होने का कारण था, समुद्र से पहलेपहल महातीक्ष्ण विष का निकलना, जिसका वर्णन ऊपर किया है । असमय में सर्वनाश करने पर तुले हुए इस संकट के कारण संत्रस्त सुरों और असुरों पर करुणा से आर्द्र हो कर भगवान शंकर ने कालकूट विष का पान कर लिया व उसके फलस्वरूप उनके कण्ठ में कालिमा के रूप में जो विकार अथवा दूषण आ गया, उसने वस्तुत: सबका कल्याण सम्पादन करने वाले शिवशंकर के गले को अपूर्व शोभा से समन्वित कर दिया और उनके कण्ठ की यह कालिमा अखण्ड महिमा से मण्डित हो गई । इसीलिये श्रीकण्ठ शब्द महादेव का विशेषण है तथा लोक में वे कल्माष-कण्ठ, नीलकण्ठ, नीलग्रीव आदि पवित्र नामों से श्रद्धा से पुकारे व पूजे जाते हैं । अत: कवि का कहना है कि स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो, अर्थात् अहा ! वह कालिमा क्या आपके कण्ठ को श्रेष्ठ शोभा से संपन्न नहीं करती ! फिर कहते हैं कि न अर्थात् नहीं, ऐसी बात नहीं है, निस्सन्देह हे त्रिनयन ! यह कालिमा आपके कण्ठ को श्रियम् कुरुते यानि सर्वदा व सर्वथा आपके कण्ठ को श्री से समन्वित करती है । इस तरह कालकूट हलाहल को कण्ठ में रख कर वे नीलकण्ठ कहलाये ।
गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड, दूसरा सोरठा) में विषपायी शंकर के लिये कहते हैं,
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ।।
मानस-पीयूष ग्रन्थ के अनुसार इस सोरठे में विष की विषमता शिव-सामर्थ्य को दर्शाती है । विष ऐसा था कि देवता भी न सह सके । समुद्र-मन्थन के समय, देवताओं के जितने भी भेद हैं, उनमें से प्रत्येक के वृंद जैसे वसुवृंद, रुद्रवृंद, आदित्यवृंद आदि सभी वहां पर उपस्थित थे । सभी ने दारुणदु:खनिवारण पुरारी के पादारविन्द का प्रश्रय लिया तथा हालाहल की ज्वाला से कृपाल संकर ने उन्हें बचा लिया ।
तत्पश्चात् स्तुतिकार का कहना है कि जो भुवनभंगव्सनिन् हैं, अर्थात् जगत् के संकटनाश के व्रती हैं, और अपने आश्रित जनों को सबल बनाना ही जिनकी स्वभावगत दुर्बलता है, ऐसे सत्यसंकल्पी परोपकारी सज्जन के तो विकारोsपि श्लाघयो यानि ऐसे सज्जनों के तो विकार भी प्रशंसनीय होते हैं, दूसरे शब्दों में पूजनीय होते हैं । परम नैष्ठिक शिवभक्त रावण द्वारा रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् के आठवें श्लोक में शिवभक्त राक्षसाधिप रावण ने कालिमा से आच्छन्न शिव-कण्ठ की महिमा गाते हुए कहा है कुहूनिशीथिनीप्रबद्धबद्धकन्धर: अर्थात् कुहू अमावस्या के घटाटोप अन्धकार-सी सघन कालिमा से शिव का बलिष्ठ कंठ-प्रदेश अभिव्याप्त है । और फिर नौंवें श्लोक में नीलप्रभा से भासुर कण्ठ की दीप्ति के लिये कहा है प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंच कालिमाप्रभ अर्थात् पूर्ण रूप से खिले हुए नीलकमल की श्यामल प्रभा-शोभा से उनका सुपुष्ट कण्ठ संपन्न है ।
भगवान शंकर भुवनभयभंजन हैं । जो इनके श्रीचरण की शरण ग्रहण करता है, उसका भवविष भी वे भवान्तक पी जाते हैं और साधक पुन: पुन: जननी-जठर में आने के मरणान्तक कष्ट से मुक्ति पाता है । स्वयं विषपान करके औरों को अमृत का प्रसाद देना महादेव की मस्ती है, प्रमथनाथ की प्रमत्तता है । भगवान गरलगल के गले की श्यामलिमा उनकी धवल कीर्ति की परिचायक है ।
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