शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक ६
Shloka 6 Analysisललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिंगभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु नः ।।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिंगभा | → | ललाट + चत्वर + ज्वलत् + |
धनञ्जय + स्फुलिंग + भा | ||
ललाट | = | भाल |
चत्वर | = | प्रदेश, फलक, वेदी |
ललाटचत्वर | = | भाल प्रदेश |
ज्वलत् | = | प्रदीप्त, प्रज्ज्वलित |
धनञ्जय | = | अग्नि |
स्फुलिंग | = | अग्निकण, ज्वाला की लपटें |
भा | = | तेज, प्रकाश |
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् | → | निपीत + पञ्चसायकं + |
नमन + निलिम्पनायकम् | ||
निपीत | = | मार दिया, भस्म कर दिया |
पञ्चसायकं | = | पांच बाण वाले (कामदेव) को |
नमन | = | झुकाया |
निलिम्पनायकम् | = | देवनायक |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं | → | सुधा + मयूख + लेखया + |
विराजमान + शेखरं | ||
सुधा | = | अमृत |
मयूख | = | किरण |
लेखा | = | कला |
लेखया | = | कला से |
विराजमान | = | प्रदीप्त, देदीप्यमान |
शेखरं | = | शीश |
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः | ||
महाकपालि | = | महामुण्डमाली |
शिरो | = | शिरः = शीश |
जटालम् | = | जटायुक्त |
अस्तु | = | हो, रहे |
नः | = | हमारी (या हमारा) |
अन्वय
ललाट – चत्वर ज्वलद् धनंजय स्फुलिंग भा निपीतपंचसायकं नमन् निलिम्पनायकं (च ) सुधा – मयूखलेखया विराजमान शेखरं महाकपालि जटालं शिर: न: सम्पदे अस्तु ।
भावार्थ
भाल रूपी वेदी पर जलती हुई अग्नि की लपटों में जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया व देवराज इन्द्र का शीश झुका दिया, हे महामुण्डमाली ! आपका जटायुक्त शीश, जो चन्द्रमा की अमृतवर्षी किरणों से शोभायमान है, मेरी सम्पदा की रक्षा करे ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के ६ठे श्लोक में शिव की स्तुति करते हुए रावण पहले उनका रौद्र रूप व फिर उनका सौम्य रूप चित्रित करता है । उसका कहना है कि अपने भाल प्रदेश पर धधकती हुई अग्नि के तेज से प्रदीप्त ज्वाल-लपटों में कामदेव को जिन्होंने भस्म कर दिया और जिसके फलस्वरूप देवराज इंद्र का गर्व चूर चूर हो गया, ऐसे रौद्र रूप वाले भगवान महामुण्डमाली मेरी संपदा के रक्षक हों । इसके बाद अगली पंक्ति में भगवान चन्द्रमौलि के सुखद सौम्य रूप को असित करते हुए स्तुतिगान कहता है कि चँद्रमा की सुधामयूखलेखया अर्थात् अमृत-स्रावी किरणों से जिनका शीश देदीप्यमान है—विराजमानशेखरं, ऐसे द्युतिमान शीश वाले सौम्य सुंदर शिव मेरी संपत्ति के साधक हों ।
प्रस्तुत श्लोक में रावण ने भगवान शिव के संहारक रूप के चित्रण के साथ-साथ उनकी शीतल-शांत छवि का भी रूपांकन किया है । श्लोक का आरम्भ मदन-दहन की घटना की ओर इंगित करते हुए किया गया है । रावण का कहना है कि ललाटपट पर स्थित तृतीय नेत्र की प्रचंड अग्नि ने उग्र रूप से प्रज्वलित हो कर कामदेव को, जिसे अपने पांच पुष्पबाणों पर अतीव गर्व था, लील लिया । कामदेव को शिवजी की तपस्या में विघ्न डालने के लिये देवाधिदेव इन्द्र ने प्रेरित और प्रोत्साहित किया था । अतएव कामदेव के दग्ध होने के साथ ही निलिम्पनायक इंद्र का गर्व भी चूर चूर हो गया । इस तरह कामान्तक शिव ने इंद्र का गर्वोन्नत शीश झुका दिया ।
पुराणों में मदन-दहन की कथा विस्तार से वर्णित है । शिव स्वयं भी अग्नि का रूप हैं । उनके अष्टमूर्ति रूप में उनका एक रूप अग्नि है, “भूतार्कचंद्रयज्वानो मूर्तयोsष्टौ प्रकीर्तिताः “ कहा गया है । उनके कोपायमान होने पर उनके मस्तक-फलक पर स्थित तृतीय नेत्र की ज्वालशिखाएं सत्वर संहार करती हैं । काम-दहन की घटना में यही हुआ था, जिसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है । दाक्षायणी (दक्षपुत्री सती) के योगाग्नि में भस्म हो जाने के बाद व्याकुल व विरक्त हो कर महादेव हिमालय पर तपस्या करने चले गए । तपश्चर्या के लिए हिमालय से अधिक उपयुक्त स्थल और कौन सा हो सकता है ? स्थावरराज हिमालय को तो जैसे ईश्वर ने तपस्थली बनने के लिए ही रचा है । यहां हिमालय के बारे में कुछ लिखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूं, अत: कतिपय बातें इस कथा के साथ साथ बताना चाहूंगी ।
संस्कृत के महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भवम् में हिमालय की दिव्यता और भव्यता का बड़ा ही मनोहारी तथा प्रभावोत्पादक वर्णन प्रस्तुत किया है । कालिदास का युग भारतवर्ष का स्वर्णयुग था । उनके अनुसार पृथ्वी के अनेक अमूल्य कांतिवान रत्नों, वनौषधियों, उत्तम धातुओं, भोजपत्रों, यज्ञोपयोगी साधन-द्रव्यों का उत्पत्तिस्थान है यह पर्वत, साथ ही इसकी हिमाच्छादित चोटियां सिद्धों और तापसों का आश्रयस्थान हैं । यहाँ उपलब्ध मोतियों की प्रचुरता तो इसी तथ्य से प्रकट होती है कि यहाँ के स्थानीय किरात लोग हाथी मारने वाले सिंहों का अन्वेषण करने के लिए उनके नखछिद्रों से गिरे हुए मोतियों से उनका मार्ग पहचान लेते हैं, क्योकि उनके पद-चिह्न तो हिम के पिघलने से धुल जाते हैं । अतः नखों में चिपके मोतियों के झड़ते जाने से वे लोग सिंहों के मार्ग का अनुसरण कर लेते हैं । इस पर्वत की गुहाएँ (गुफाएं) इतनी गहन और दीर्घ हैं कि दिन के समय सूर्य के पूर्ण प्रकाश में भी अंधकार में डूबी रहती हैं, लेकिन रात्रि होते ही वनों की विशेष चमकती औषधियों से ऐसे जगमगा उठती हैं जैसे बिना तेल के दीपक जल उठे हों । आगे महाकवि का कहना है कि मोरों के पंखों को उल्ल्लसित करती हुई तथा गंगा के झरनों के जलकणों को वहन करती हुई वायु देवदारु के वनों को प्रकम्पित करती है और उन सरलद्रुमों की छाल उखड़ जाने से उनसे टपकते हुए दूध से हिमालय की चोटियां और वहां के अन्य पदार्थ सुसौरभमय हो जाते हैं । इस औषधमय और सुगंधमय वायु का सेवन करके तापस जन स्वस्थ एवं निज प्रकृति में स्थित रहते है । बांस के रन्ध्रों से टकरा कर बहते हुए समीर का श्रुतिमधुर स्वर इसमें सहायक होता है । पर्वतराज की ऊंचाई और पवित्रता इस एक उदाहरण से आंकी जा सकती है कि हिमालय के शिखरों पर अवस्थित स्वच्छ, सुनिर्मल सरोवरों में खिले हुए कमल सप्तर्षियों द्वारा तोड़े जाते हैं तथा बचे हुए कमलों के नीचे घूमता हुआ सूर्य अपनी उर्ध्वमुखी किरणों से इन्हें विकसित करता है । अर्थात हिमाद्रि के उत्तुंग श्रृंग अपनी ऊंचाई से सूर्य के मार्ग का उल्लंघन करते हैं । पृथ्वी को धारण करने की क्षमता के अलावा यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले समस्त साधन-भूत द्रव्यों की उत्पत्ति की क्षमता को देख कर प्रजापति ने स्वयं इस पर्वत को यज्ञ-भाग से युक्त किया व शैलाधिपत्यम् अर्थात् पर्वतों का स्वामित्व प्रदान किया । यही बात महाकवि के शब्दों में द्रष्टव्य है ।
सारं धरित्रिधरणक्षमं च
प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं
शैलाधिपत्यं स्वयमन्वतिष्ठत् (१७)
ऐसे महान् महिभृत नगाधिराज हिमालय पर भगवान कृत्तिवास ने पदार्पण किया । शिवपुराण के अनुसार औषधिप्रस्थ नामक नगर के समीप एक उत्तम शिखर पर निरामय और निराकुल, ज्योतिरूप भगवान शिव ध्यान-परायण हुए । पर्वतराज हिमवान् ने वहां पहुँच कर उनका अभ्यर्चन किया और अपनी पुत्री पार्वती के लिए शिव की सेवा-अर्चना करने की अनुज्ञा चाही । गिरिराज की प्रार्थना का गौरव रखने के लिए शम्भु ने स्वीकृति दे दी । नगेन्द्रनंदिनी पार्वती अपनी जया और विजया नामक सखियों के साथ वहां रहती हुई महादेव के लिए कुशा, तिल, पुष्प, फल, जल आदि की व्यवस्था व सेवा करती रहीं । दूसरी ओर तारकसुर अपने उग्र तप के फलस्वरूप ब्रह्माजी से अवधत्व का वर पा कर देवताओं को त्रास देने लगा था । प्राप्त वर के अनुसार उसका वध केवल शिव के औरस (तेज) से जन्मा पुत्र ही कर सकता था । शिव के वैराग से जहाँ वह निश्चिन्त व निःशंक था वहां देवराज इंद्र चिंतित और सशंक रहते थे । उन्होंने अपने पराक्रमी, दुर्दम सुभट (योद्धा) कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने हेतु प्रेरित किया, जिससे वे पार्वती से आकृष्ट हो कर उनसे विवाह कर लें । उनका पुत्र हो जाये, जो दुर्दान्त तारकासुर का वध कर दे । ऐसा होने पर ही देवराज इन्द्र अपना खोया हुआ स्वर्ग फिर से पा सकते हैं । दर्प से भरे हुए कामदेव रति, वसंत और अन्य सहायकों के साथ आश्रम-स्थल पर पहुंचे । पर्वतराज की सुंदरी पुत्री के वहां आने से तपोरत शिव पर बाण चलाने का अनुकूल अवसर देख मदन ने अपने पांच बाणों में से सम्मोहन नामक बाण का संधान किया । शम्भु को कामदेव की वहां उपस्थिति का आभास हुआ व भगवान प्रलयंकर कोपायमान हुए । उस क्रुद्ध अवस्था में ललाटस्थ उनका तीसरा नेत्र खुला और उससे निकलती हुई प्रचण्ड अग्नि ने तत्क्षण ही अपनी विकराल ज्वाला में कामदेव को भस्मीभूत कर दिया ।
रावण ने प्रस्तुत श्लोक में इसी उपर्युक्त घटना को संकेतित किया है । शम्भु के रौद्ररूप को दर्शाते हुए वह विनय करता है कि प्रभु महाकपाली उसकी संपत्ति के रक्षक हों । कालिका पुराण में मदन दहन का प्रसंग इस प्रकार चित्रित किया गया है:
दग्ध्वा कामं तदा वह्निर्ज्वालामालातिदीपितः । (१७३)
प्रस्तुत श्लोक की अगली पंक्ति में भगवान शिव के शिवम्, शुभं और सौम्य रूप का गुणानुवाद करते हुए रावण का कहना है कि शुभ्र शोभना शशिकला से उनका शीश शोभायमान है । सुधास्रावी चान्द्रमसी ज्योत्स्ना का अपूर्व तेज़ विराज रहा है उनके जटाजाल पर । पुराणों में कथा आती है कि सैहिंकेय राहु एक बार चँद्र के पीछे पड़ गये थे तो आर्त हो कर वे शंकर की शरण में गये, तब उन उदाराशय अनाथबंधु ने चँद्र को अंगीकार करके अपना शीश-भूषण बना लिया । शिव को सोमेश्वर भी कहते हैं । शिवलिंग के स्नान का जल निकलने की जाली सोमसूत्रम् कहलाती है । इस प्रकार चँद्र सनाथ हुए, सुधामय हुए । धरा को, इसकी वनस्पतियों को वे सुधांशु अपनी सुधा से सिंचित करते हैं, अतः उन्हें औषधिपति के नाम से भी अभिहित किया जाता है । समुद्र-मंथन के समय समुद्र से निकलने वाले चौदह रत्नों में से एक चन्द्रमा भी हैं। चँद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं से संबद्ध कथा पुराणों में आती है । पुराणों में वर्णित २७ नक्षत्र, अश्विनी, भरणी, रोहिणी आदि को प्रजापति दक्ष की पुत्रियाँ कहा जाता है, जिनका विवाह चँद्रमा के साथ हुआ था । उनमें से वे रोहिणी पर विशेष रूप से आसक्त थे, जिससे उनके श्वसुर दक्ष ने उन्हे क्षयरोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया । तत्पश्चात् चँद्र की अन्य पत्नियों के बीच बचाव करने पर वह शाप एक निश्चित कालावधि में बदल गया । इस पाक्षिक क्षयरोग के विषय में यह भी पढ़ने को मिलता है कि चँद्रमा की कलाओं को विविध देवताओं ने बारी बारी से पी लिया । चँद्र के पुत्र बुध आगे चलकर चन्द्रवंश के प्रवर्तक हुए, जिसमें श्रीकृष्ण का अवतार हुआ । अतः श्रुति के स्वरों में वेदज्ञ ब्राह्मण कहते हैं, ‘सोमोsस्माकं ब्राह्मणानाम राजा ।’ इस प्रकार इनके भाल-भूषण चँद्र की कलाएँ इनके रूप को शीतल एवं सौम्य कान्ति से प्रपूरित कर इनके भक्तों का मन लुभाती हैं । और नतशीश होकर रावण कह उठता है कि सुधामयूखलेखया से देदीप्यमान शीश वाले शंकर मेरी संपत्ति के साधक हों अर्थात् रक्षक हों ।
भगवान शिव स्वभावतः परमोदार, परमार्थ-परायण और अपरिग्रही हैं । वे श्मशानवासी, नरमुंडमाली हो कर भी इस अमंगलवेष वेश में वे लोककल्याणकारी हैं, भक्तों के सर्वार्थ साधक हैं ।
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कृपया अर्थ ऊपर में दें और व्याख्या नीचे में दें दोनों को साथ मे मिला देने से दिक्कत होती है।आपसे आग्रह है कि पहले की तरह पूर्ण अर्थ ऊपर में दें तत्पश्चात व्याख्या दें।धन्यवाद।
आपके सुझाव को नोट कर लिया गया है । यथासंभव व यथोचित प्रयास करेंगे पाठकों के लिये इसे सुबोध्य बनाने का । धन्यवाद, मनीष कुमारजी । इति शुभम् ।
किरण भाटिया जी ‘ मैं आपको कुछ त्रुटियों से अवगत करवाता हूँ ।। मेरी किताब शिव उपासना पं• शशिमोहन बहल में यह कुछ यों है स्फुलिंगभा के स्थान पर स्फुलिंगया आएगा ।। स्फुलिंगया = चिंगारियों से महा कपालि के स्थान पर मह: कपालि ।।मह:= प्रगाढ़तम प्रकाश के विशाल पुञ्ज से देदीप्यमान ( चमचमाता हुआ ) कपालि = मस्तक , शीश ललाटपट्ट , मौलि ।। सरिज् = सरिता , निर्झरी , नदी यहाँ निलिम्प निर्झरी , परम पावनी कान्त सलिला धौत अम्बु मण्डिता देवापगा गंगा जी जिनके शीश की घनी जटाओं में लिपट कर उनके असंख्य चन्द्रकिरणों से मण्डित परमोज्ज्वल शीश की आभूषण बनकर विलस रही है और अतिशायी वेग से हहराती हुई क्रीडा करती हुई अजस्र धारा के रूप में नि:सृत हो रही है ।। जटालम् = केश कलाप उलझी हुई घनी जटाएँ ।। अस्तु = देवें ।। सम्पदे = परम अक्षुण्ण , अकूत सम्पत्ति और सकल अलौकिक सिद्धियाँ ।। यह पद आएगा जो मैनें ऊपर बताया है ।। और यह पञ्चम श्लोक है मेरी उस किताब में ।। फिर भी आपको मेरी व्याख्या से किसी तरह की सन्तुष्टि नहीं है तो आपकी इच्छा ।। धन्यवाद
आदरणीय अजीतसिंहजी, आपकी व्याख्या एवं समवबोध का हम सम्मान करते है, सचमुच ही श्लाघनीय है । प्रश्न यहां यदि हमारी इच्छा का है तो अपने विद्वान पाठक-वृन्द तक शुद्धतम व प्रामाणिक पाठ व उसकी व्याख्या पहुंचाना हमारा अभीष्ट है । धन्यवाद । इति शुभम् ।
किरण भाटिया जी , शिरो के स्थान पर सरिज् आएगा ।।
नमस्कार । हमारा पाठ हमारी स्रोत-पुस्तक से मेल रखता है । धन्यवाद ।
आदरणीय किरण भाटिया जी ,
व्याख्या में आपने महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु नः ।।
लिखा है , और अन्वय में महाकपालि जटालं शिर: न: सम्पदा अस्तु । लिखा है , कृपया स्पष्ट करे।
आदरणीय पंकजजी, सम्पदे सही है । अन्वय में गलती हो गई है, सुधार कर रहे हैं । धन्यवाद ।
आदरणीय किरण भाटिया जी नमस्कार ।
महाकपालि = महामुण्डमाली
शिरो = शिरः = शीश
जटालम् = जटायुक्त
अस्तु = हो, रहे
नः = हमारी (या हमारा)
प्रस्तुत श्लोक में
मेरी सम्पदा की रक्षा करें में रक्षा शब्द संस्कृत के किस शब्द का अर्थ है।
आदरणीय श्री विकास शर्माजी, नमस्कार । वस्तुत: काव्य, स्तोत्र आदि में कुछ स्थलों पर अधूरे-से दिखने वाले वाक्यों के अर्थ उनके सन्दर्भों द्वारा खुलते हैं । कवि अथवा स्तुतिकार के कथन का अभिप्राय उसके भावों द्वारा व्यक्त होता है, चाहे वह कथन अधूरा-सा ही क्यों न प्रतीत होता हो । भक्त कवि द्वारा अपने महिमामय आराध्य के पादपद्मों में रक्षा के लिये की गई समर्पण भरी पुकार स्तुति में ढल जाती है ।
आपने ६ठे श्लोक में ‘रक्षा’ शब्द के प्रयोग के विषय में प्रश्न किया है । यहां रावण यह विनय करता है “ महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न:” । इसका केवल शाब्दिक अनुवाद यह होगा कि जटा से युक्त शिर हमारी सम्पत्ति में … हो । किन्तु क्या हो ? स्तोत्र के भावानुसार इसका उत्तर है कि सम्पत्ति का साधक हो, उसका रक्षक हो । रावण के कहने का आशय यह है कि जटायुक्त शिरवाले मुण्डमाली उसकी सम्पत्ति का कल्याण-साधन करें । दूसरे शब्दों में उसके वैभव की रक्षा साधें । यहाँ महादेव के सम्मुख रक्षा की तीव्र पुकार है ।
इससे पहले आरम्भ के श्लोकों में रावण भगवान शिव से अपनी व अपने जनों की रक्षा की प्रार्थना करता है, जैसे प्रथम श्लोक में “तनोतु न: शिव: शिवम्” कहा गया है । ५वें श्लोक में स्तुतिकार विनय करते हुए कहता है “श्रियै चिराय जायताम् चकोरबन्धुशेखर:”। इसका शाब्दिक अनुवाद केवल यह होगा कि हे चन्द्रशेखर ! लक्ष्मी चिर काल तक बनी रहे । किन्तु किसकी लक्ष्मी बनी रहे, यह किसी शब्दविशेष से स्पष्ट नहीं किया गया, फिर भी कवि का यह अभिप्राय समझ में आता है कि वह अपनी लक्ष्मी, अपनी राज्य-लक्ष्मी की स्थिरता या रक्षा की बात कर रहा है । यही श्लोक ६ में ‘रक्षा’ शब्द विषयक आपके संशय का समाधान है कि सहायता-सूचक शब्दविशेष के न रहने पर भी रक्षा की याचना का भाव यहां अन्तर्निहित है ।
इस प्रकार ६ठे श्लोक में ऐसा शब्द प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत नहीं होता, जिसका अर्थ रक्षा करना हो । इति शुभम् ।
नमस्कार । उत्तम व्याख्या उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।