महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक १६
Shloka 16कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचण्डरुचे
जितकनकाचलमौलिमदोर्जितगर्जितकुंजरकुम्भकुचे
प्रणतसुराsसुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचण्डरुचे | ||
कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचण्डरुचे | → | कटितट + पीत + दुकूल + विचित्र + मयूख + तिरस्कृत +चण्डरुचे |
कटितट | = | कमर |
पीत | = | पीला |
दुकूल | = | उत्तरीय की भाँति पहना जाने वाला रेशमी वस्त्र |
विचित्र | = | रंग से भरी, मनोहर, झलमिल |
मयूर | = | किरण, दीप्ति |
तिरस्कृत | = | छिपाती हुई, निष्प्रभ करती हुई |
चण्डरुचे | = | हे सूर्य की प्रभा को निष्प्रभ कर देने वाली |
जितकनकाचलमौलिमदोर्जितगर्जितकुंजरकुम्भकुचे | ||
जितकनकाचलमौलिमदोर्जितगर्जितकुंजरकुम्भकुचे | → | जित + कनक +अचल:+ मौलि :+ मदोर्जित: +गर्जित: +कुंजर:+ कुम्भ + कुचे |
जित | = | जिसने जीत लिया हो वह |
कनक | = | स्वर्ण |
अचल: = पर्वत (कनकाचल | = | सुमेरु पर्वत) |
मौलि: | = | शिखर, सानु |
मदोर्जित | = | मदोन्मत्त, मद में चूर |
गर्जित | = | चिंघाड़ता हुआ, |
कुंजर: | = | हाथी |
कुम्भ | = | हाथी का गण्डस्थल, ललाट |
कुचे | = | हे (उन्नत) वक्षस्थल-युक्त देवी |
प्रणतसुराsसुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे | ||
प्रणतसुराsसुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे | → | प्रणत+ सुर + असुर +मौलि + मणि + स्फुरद् + अंशुल + सन्नख + चन्द्ररुचे |
प्रणत | = | प्रणाम में झुके हुए |
सुर | = | देवतागण |
असुर | = | दैत्यगण |
मौलि | = | सिर |
मणि | = | रत्न, मूल्यवान जवाहर |
स्फुरद् | = | फूट निकलती हुईं |
अंशुल | = | किरणें |
सन्नख | = | सुन्दर नाखून |
चन्द्ररुचे | = | चन्द्रोज्ज्वल आभा वाली |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूख तिरस्कृत चण्डरुचे (हे) जित कनक अचल: मौलि: मदोर्जित गर्जित कुंजर कुम्भ कुचे (हे) प्रणत सुर असुर मौलि मणि स्फुरद् अंशुल सद् नखे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
जिनकी कटि पर धारण किये हुए पीले रेशमी वस्त्र से फूटती चित्र-विचित्र किरणों के आगे सूर्य की चमक भी फीकी पड़ जाती है, ऐसी हे देवी, और जैसे कोई गज (हाथी) सुमेरु पर्वत पर विजय पा कर उत्कट मद से भरा हुआ, गर्जना करता हुआ (घमंड से) अपना सिर ऊंचा उठाये हो, ऐसे हाथी के कुम्भ-से (गण्डस्थल-से) उन्नत उरोजों से युक्त हे देवी ! और देवी को प्रणाम निवेदित करते समय देवताओं और असुरों के मस्तकों पर ( मुकुटों पर) जड़ी हुई मणियों से फूट निकलती किरणों से, जिनके (पैरों के) सुन्दर नाखून चन्द्र की (उज्ज्वल) आभा-से दमकते हैं, ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनी के सोलहवें श्लोक में देवी द्वारा कटि-प्रदेश पर धारण किये हुए पीले कौशेय (रेशमी) वस्त्र से फूटती किरणों की द्युति का वर्णन किया गया है । कटितट का अर्थ है कटि-प्रदेश, कमर का वह भाग जहाँ पर कटिवस्त्र पहना जाता है । देवी की कटि कौशेय (रेशमी) वस्त्र से आवृत्त है, जो दुकूल कहलाता है । देवी का दुकूल रंगबिरंगी है और इस रेशमी पीत परिधान से चित्र-विचित्र किरणें निःसृत हो रही हैं (निकल रही हैं), जिन्हें विचित्र मयूख कह कर व्यक्त किया है । कवि का कहना है कि यह किरणें सूर्य की उत्कट चमक को भी निष्प्रभ कर देती हैं तिरस्कृतचण्डरुचे, इसका अर्थ यह कि सूर्य का तीव्र प्रकाश भी इन किरणों के आगे निष्प्रभ (फीका) पड़ जाता है, हतकान्ति हो जाता है । अतएव उन्हें सम्बोधित करते हुए कवि कहता है मयूखतिरस्कृतचण्डरुचे ! इस बात से यह भी प्रतीत होता है कि वास्तव में तो यह शोभाशालिनी देवी के श्रीअंगों की आभा का ही प्रभाव होना चाहिये, जिससे पीला परिधान इतना अधिक जाज्वल्यमान हो उठा कि तपनमण्डल (सूर्यमण्डल) की प्रचण्ड किरणों का तीव्र तेज इन विचित्र किरणों के सम्मुख अनादृत हो गया, दूसरे शब्दों में वह लुप्तकान्ति अथवा मन्दकान्ति वाला हो गया ।
दूसरी पंक्ति में कवि ने सर्वांगसुंदर देवी के सौन्दर्य का चित्र उकेरा है । देवी के उन्नत और पीन पयोधरों के पुष्ट गठन की अभिव्यक्ति के लिये जितकनकाचल वाले उस कुंजर का उपमान चुना है, जो (मानो) कनकाचल अर्थात् सुमेरु पर्वत को जय करके उसके मौलि यानि शिखर पर मदोर्जित हो कर अर्थात अपने उत्कट बल से मदोन्मत्त हो कर गर्जित यानि गर्जना करता हुआ अपना कुम्भ यानि ललाट उठाये हुए हो । कुम्भ शब्द के अनेक अर्थों में से एक है हाथी के मस्तक का ललाटस्थल । इस तरह देवी के विशाल वक्ष-प्रदेश को भव्य एवं स्वर्ण-रत्न-खचित सुमेरु पर्वत-सा जाज्वल्यमान व महिमावान बताया है । हाथी पर उसकी विजय के उन्माद का रंग बहुत प्रगाढ़ है, क्योकि उसने कोई साधारण पर्वत नहीं, अपितु कनक-गिरि अथवा कनकाचल को यानि सुमेरु पर्वत को जय किया है । पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार सुमेरु वह विशाल पर्वत है, जो सोने और रत्नों से भरा हुआ है, और समस्त ग्रहगण इसके चारों ओर घूमते हैं । सोने व रत्नों से भरपूर होने के कारण इसे कनक यानि स्वर्ण का अचल भी कहते हैं ।
देवी के पदांगुलिनखों के विषय में कवि कहता है कि यह सुन्दर नख (सन्नख) सदैव मुकुटमणियों से स्फुरित किरणों की ज्योतिर्मयी प्रभा से दीप्त रहने के कारण चंद्रमा की-सी उज्जवल आभा को धारण करते हैं । नखों पर जिन मुकुटमणियों का प्रकाश झिलमिल करता है, वे मुकुट किसके हैं, यह प्रश्न उठता है । इसका उत्तर इस पंक्ति के पहले ही शब्द प्रणतसुरासुरमौलिमणि से मिलता है । वास्तव में यह मुकुट सुरगणों तथा असुरों के हैं, जो देवी के चरण-कमलों में अपना प्रणाम निवेदन करने के लिए सदा शीश झुकाते हैं तथा उनके मस्तक-मुकुटों पर जड़ी हुई मणियों से फूटती हुईं किरणें देवी के सुन्दर सत्पदांगुली-नखों पर क्षिप्त हो कर उन्हें चान्द्रमसी चमक-सी देदीप्यमान करती हैं । अत: उन्हें मणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे कह कर संबोधित किया है, दूसरे शब्दों में, सुंदर नखों पर मणि-स्फुटित किरणों की झिलमिल के फलस्वरूप चन्द्रोज्ज्वल आभा से दमकती हे दीप्तिमती देवि ! आपकी जय हो !
इस श्लोक में स्तुतिकार इस प्रकार देवी की देह-लता की दिव्य-प्रभा का चित्र उकेरता है, तथा अन्त में कहता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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दंशुल का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है.. कृपया सहायता करें.
क्या यह अंशु से सम्बन्धित है?
कृपया इस सम्पूर्ण श्लोक की सःशब्द व्याख्या करें.
मान्यवर, सशब्द व्याख्या करने का कार्य प्रगति पर है । अविलम्ब प्रस्तुत होगा। इति शुभम् ।
सशब्द व्याख्या शीघ्र प्रस्तुत की जायेगी । इति नमस्कारान्ते।
स्फुरत् +अंशुल = स्फुर दंशुल । सन्धि से बना है यह शब्द । अर्थ है स्फुरित प्रभा । इति शुभम् ।
नमस्ते मान्ये !
शब्दशः व्याख्या में दोनों स्थान पर
१. सद् + नखे के स्थान पर सद् + नख + चन्द्र + रुचे तथा
२. अर्थात
सद् = सुन्दर (के अर्थ में प्रयुक्त उपसर्ग)
नख = हे (सुन्दर) नखों वाली
चन्द्र = चन्द्रमा
रुचे = रुचिकर
ऐसा होना चाहिए
अस्तु |
इस ओर ध्यान खींचने के लिये धन्यवाद । छूटा हुआ शब्द अर्थ सहित जोड़ दिया गया है । इति शुभम् ।