प्रियदर्शी
प्रियदर्शी पाखी आया है दूर से
कहीं अनाहूत पाहुने के रूप में
नयनसुख सविलास ले आया है
कार्तिक की अर्धस्फुटित धूप में
अनायास निर्विचार हुआ मन
पता भी न कुछ लवलेश हुआ
प्रेमघुली दृष्टि पड़ी पखेरू पर
मेरा हरित ह्रदय-प्रदेश हुआ
देखा मेरी ओर नभचर ने
भोलेपन से भय-सा खा कर
नयन-गोलक में बड़े वेग से
अपनी पिंगल पुतली घुमा कर
उसे पास से निरखते रहने को
मन हुआ लालसा से आंदोलित
इस भय से अंक न लिया उसे
सहम जाता रंगीला कदाचित्
उसकी सुंदरता को आंकता रहा
मेरे ह्रदय के नीले आकाश को वह
परों की हरीतिमा से ढांकता रहा
तभी मैंने दृगों से मृदु छू लिया उसे
होठों को जैसे छू लेती है मुस्कराहट
या फिर कलकल करती लोल लहरें
भिगो जाती हैं मंदाकिनी का तट
विश्वस्त बैठा रहा वहीँ पर विहंग
मृदुल ग्रीवा अपनी घुमाता रहा
उसे निरखते हुए शून्य में तकते
यूं विचार मेरे मन में आता रहा
क्यों नहीं वे रुकते पल भर को
जिन्हें निरखना हम चाहते हैं
व्यस्तता के उत्तरीय फहराते वे
किस (अ)भाव लोक में भागते हैं ?
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