महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक ५

Shloka 5

अयि शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते
निजभुजदण्डनिपातितचण्डविपाटितमुण्ड भटाधिपते ।
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

अयि शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते
अयि = हे
शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते शतखण्ड + विखण्डित + रुण्ड + वितुण्डित + शुण्ड + गजाधिपते
शतखण्ड = सौ टुकड़े
विखण्डित = जो तोड़ दिया गया हो वह
रुण्ड = धड़
वितुण्डित = काटी गई
शुण्ड = हाथी की सूँड़
गजाधिपते = (हे) गजेश्वरी
निजभुजदण्डनिपातितचण्डविपाटितमुण्ड भटाधिपते
निजभुजदण्डनिपातितचण्डविपाटितमुण्ड निज + भुजदण्ड + निपातित + चण्ड + विपाटित + मुण्ड
निज = अपनी
भुज = भुजा में उठाये हुए
दण्ड = त्रिशूल-दण्ड
निपातित = (मार कर) नीचे फेंक दिया
चण्ड = एक असुर का नाम है
विपाटित = टुकड़े टुकड़े कर दिया गया
मुण्ड = एक असुर का नाम है
भटाधिपते = (हे) रणशूर योद्धाओं पर प्रभुत्व रखने वाली
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते रिपु + गज + गण्ड + विदारण + चण्ड + पराक्रम + शौण्ड + मृगाधिपते
रिपु = शत्रु (पक्ष)
गज = हाथी
गण्ड = हाथी के गाल व कनपटी समेत मुख पूरा भाग
विदारण = चीर डालना
चण्ड = (चीर डालने में) क्रूरता से निपुण
पराक्रम = शौर्य
शौण्ड = निपुण, कुशल
मृगाधिपते = (हे) सिंह की स्वामिनी
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनी महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

रुण्ड शतखण्ड विखण्डित शुण्ड वितुण्डित अयि गजाधिपते (हे) निज भुजदण्ड निपातित चण्ड विपाटित मुण्ड भटाधिपते (हे) रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शौण्ड मृगाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

संग्राम में कुशल योद्धा की भाँति लड़ने वाले उत्तम हाथियों की सूँड़ें काट कर उनके धड़ों को सौ-सौ टुकड़ों में खण्ड-खण्ड करके रख देने वाली हे गजराजगंजिनी, योद्धाओं में श्रेष्ठ चण्ड व मुण्ड को अपने त्रिशूल से बींध कर मार फेंकने वाली हे परमेश्वरी, शत्रुओं के हाथियों के कपोल आदि को चीर देने में हिंसक रूप से कुशल अपने सिंह पर सवारी करने वाली हे सिंहवाहिनी ! हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

111महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के चौथे श्लोक में स्तुतिकार देवी के रणचंडी रूप का स्तवन करते हुए कहता है कि वे शत्रुपक्ष के गजाधिपतियों अर्थात् श्रेष्ठ व बलशाली हाथियों की सूंड काट कर उनके धड़ों को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, इसलिए  ऐसी गजराजसंहारिणी देवी को इस श्लोक की पहली पंक्ति में गजाधिपतियों को सूँड़-रहित करके उनके कटे हुए धडों के सौ-सौ टुकड़े करने वाली कह कर पुकारा है । गजाधपति का अर्थ हाथियों का स्वामी भी होता है तथा ‘उत्तम हाथी’ भी होता है । यहां तात्पर्य श्रेष्ठ हाथियों से है, जिनकी सूँड़ में बहुत बल है और जो आक्रामक हैं ।

अपने हाथ में त्रिशलदण्ड लिए हुए देवी चंडी रूप धारण कर क्रोधपूर्वक शत्रु-योद्धाओं के रूण्डों से मुंड अलग कर देती हैं, अर्थात् उनके धड़ों से उनके मस्तक काट कर गिरा देती हैं  व खण्ड खण्ड करके उन्हें फेंक देती हैं ।  भटाधिपति का अर्थ है शूरवीर योद्धा, युद्धकुशल सेनानी । वे चण्ड असुर योद्धा निपातितखण्ड हो गया है अर्थात् अपने त्रिशूल-दण्ड से देवी ने उसे विदीर्ण करके भूमि पर गिरा दिया है । खंड यानि शरीर के खंड या टुकड़े और मुंड का अर्थ है मस्तक । दैत्यदुर्गतिकारिणी माता ने त्रिशूल से दुर्मद दैत्य मुण्ड को बींध कर उसे मार गिराया है ।रक्तरंजित विपाटितमुण्ड भू पर खण्ड खण्ड हो कर लोट रहा है ।

देवी सिंहवाहिनी हैं, सिंहसंचारिणी हैं, सिंह उनका वाहन है । शत्रुओं के विशाल हाथी पराक्रमी हैं तो देवी का सिंह भी भीम-भयंकर है । वह बलशाली सूँड़ वाले हाथियों के गण्ड-स्थल अर्थात् मुख, गाल और कान के पार्श्व भाग चीर डालने में बड़े हिंस्र रूप से पटु है । मृगाधिपति कहते हैं मृगराज अर्थात् सिंह को । देवी ऐसे गजघाती मृगाधिपति की स्वामिनी हैं । देवी से सम्बद्ध विभिन्न पुराणों में वर्णित महिषासुर की कथाओं में उनके सिंह का विकराल रूप परिलक्षित होता है । वह रण में भयंकर गर्जना करता हुआ असुरों के प्राणों को हरता है, हाथियों के ऊपर छलांग लगा कर चढ़ जाता है आदि । देवी-भागवत की कथा के अनुसार देवी के सिंह ने महिषासुर के वीर योद्धा असिलोमा का ह्रदय अपने तीक्ष्ण नखों से विदीर्ण कर दिया था तथा लोहे की भरी गदा उठा कर अपने ऊपर प्रहार करने के लिए आते हुए अंधक नामक एक अन्य आक्रामक  योद्धा को चीर कर उसका भक्षण कर लिया था । यहाँ इस श्लोक में बताया है कि देवी-वाहन घोर प्रचंड सिंह रिपुपक्ष के पराक्रमी हाथियों के मुंह-गाल नोच लेता है, उनकी सबल सूँड़ें उखाड़ फेंकता है । इस प्रकार वह रिपुगजगण्ड का विदारण करने में अर्थात् उन्हें चीर देने में चण्ड-चतुर है, अतः उसे विदारणचण्ड  कहा, रिपुदल के हाथी पराक्रमी हैं, एतदर्थ उन्हें पराक्रमशुण्ड कहा और इन्हीं विशेषताओं से युक्त सिंह पर सवार देवी को स्तुतिगायक ने रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते कह कर पुकारा है ।

अतः कवि स्तुति करता है कि अपने भुजदंड से शूरवीर योद्धाओं के सर धड़ से अलग कर देने वाली हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

पिछला श्लोक अनुक्रमणिका अगला श्लोक

Separator-fancy

6 comments

  1. संदीप कुमार says:

    श्लोक 4 की व्याख्या में शतखणड स्थान पर शतखण्ड लिख कर त्रुटि को दूर करें।

  2. Abhijit Pratap Singh says:

    बहुत सारे गायको ने निपातितखण्ड गाया है, जो कि गलत हैं। मैं भी इसी दुबिधा में था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *