महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
मूल पाठ
आदि शंकराचार्य रचित `महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्` का मूलपाठ
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूतिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि कल्मषमोषिणि घोषरते ।
दनुजनिरोषिणि दुर्मदशोषिणि दुर्मुनिरोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥२॥
अयि जगदम्ब कदम्बवनप्रियवासिनि तोषिणि हासरते
शिखरिशिरोमणितुंगहिमालयश्रृंगनिजालयमध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि महिषविदारिणि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥३॥
अयि निजहुंकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते
समरविशोषितरोषितशोणितबीजसमुद्भवबीजलते
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥४॥
अयि शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते
निजभुजदण्डनिपातितचण्डविपाटितमुण्डभटाधिपते
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥५॥
धनुरनुषंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कटके
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटश्रृंगहताबटुके ।
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् बहुरंगरटद् बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥६॥
अयि रणदुर्मदशत्रुवधाद्धुरदुर्धरनिर्भरशक्तिभृते
चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतदुरन्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥७॥
अयि शरणागतवैरिवधूजनवीरवराभयदायिकरे
त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोधिकृतामलशूलकरे ।
दुमिदुमितामरदुन्दुभिनादमुहुर्मुखरीकृतदिङ्निकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥८॥
सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते
कृतकुकुथाकुकुथोदिडदाडिकतालकुतूहल गानरते ।
धुधुकुटधूधुटधिन्धिमितध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥९॥
जय जय जाप्यजये जयशब्दपरस्तुतितत्परविश्वनुते
झणझणझिंझिमझिंकृतनूपुरशिंञ्जितमोहितभूतपते ।
नटितनटार्धनटीनटनायकनाटननाटितनाट्यरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१०॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनःसुमनःसुमनोरमकान्तियुते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते ।
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥११॥
विरचितवल्लिकपालिकपल्लिकझिल्लिकभिल्लिकवर्गवृते ।
श्रुतकृतफुल्लसमुल्लसितारुणतल्लजपल्लवसल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१२॥
अयि सुदतीजनलालसमानसमोहन मन्मथराजसुते
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगजराजगते ।
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१३॥
कमलदलामलकोमलकान्तिकलाकलितामलभाललते
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले ।
अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१४॥
करमुरलीरववर्जितकूजितलज्जितकोकिलमञ्जुमते
मिलितमिलिन्दमनोहरगुंजितरंजितशैलनिकुंजगते ।
निजगणभूतमहाशबरीगणरंगणसम्भृतकेलिरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१५॥
कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचण्डरुचे
जितकनकाचलमौलिमदोर्जितगर्जितकुंजरकुम्भकुचे ।
प्रणतसुराsसुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१६॥
विजितसहस्रकरैकसहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारकसंगरतारकसंगरतारकसूनुनुते ।
सुरथसमाधिसमानसमाधिसमानसमाधिसुजाप्यरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१७॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परं पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१८॥
कनकलसत्कलशीकजलैरनुषिंचति तेऽङ्गणरंगभुवं
भजति स किं न शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि सुवाणि पथं मम देहि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१९॥
तव विमलेन्दुकलं वदनेन्दुमलं कलयन्ननुकूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दुमुखीसुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमु न क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥२०॥
अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननीति यथाsसि मयाsसि तथाsनुमतासि रमे ।
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥२१॥
स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत् ।
प्रिया रम्या स निषेव्यते परिजनोsरिजनोsपि च ते भजेत् ॥२२॥
–समाप्त–
– | अनुक्रमणिका | संक्षिप्त कथा |
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Thank you so much. Namaste.
किरण जी सादर प्रणाम
क्या इस स्तोत्र की कोई विशेष पूजा विधि या नियम भी है जिसका पालन करना आवश्यक है।
कृपा कर बताने का कष्ट करें।
साधुवाद
सर्वप्रथम उत्तर देने में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूं ।
मान्यवर , मैं भगवती के भक्तों को प्रणाम करती हूं , उन्हें पूजा विषयक कुछ बताने का मेरा क्या सामर्थ्य है । केवल इतना ही जानती हूं कि बच्चे जब चाहें, माँ को पुकार सकते हैं व इसमें किसी विधि-विधान के लिए अवकाश कहां है । मैं स्वयं भी इस स्तोत्र का गायन गृहकार्य करते हुए करने लगती हूं, इसे अपने ही बनाये राग में गुनगुना लेती हूं । अतः इसके लिए किसी विशेष पूजा विधि का नियम मेरे विचार से नहीं है । महान भक्त लेखक श्री सुदर्शन सिंह ` चक्र ` की पुस्तक ` आपकी चर्या ` से दो पंक्तियां इस विषय में यहां लिख रहे हूं । उनके अनुसार ” महाशक्ति की सेविकावर्ग में जब डाकिनी-शाकिनी का भी नाम आता है तो उनके शौचाचार की आप को कल्पना कर सकते हैं ? “माँ तो माँ है । हाँ, यदि आप स्वयं कोई पूजा या अनुष्ठान रखवा रहे हैं , तब तो बात और है । आप कभी भी इस स्तोत्र का गायन या पाठ कर सकते हैं ।
इति शुभम् ।
श्लोक संख्या 2 के “महिषासुरमर्दिनी” के स्थान पर “महिषासुरमर्दिनि”
श्लोक संख्या 5 के “दानवदुत” के स्थान पर “दानवदूत”
श्लोक संख्या 6 के “वैरिवधुवर” के स्थान पर “वैरिवधूवर” तथा “दिङ्मकरे” के स्थान पर “तिग्मकरे”
श्लोक संख्या 8 के “धनुरनुषङ्ग” के स्थान पर “धनुरनुसंग ”
करने का सुझाव प्रस्तुत है
माननीय महोदय, आपके द्वारा बताई गई अशुद्धियां ठीक कर दी गईं हैं । इस ओर मेरा ध्यान खींचने के लिये आपका आभार । ‘तिग्मकरे’ शब्द अभी विचाराधीन है । ‘धनुरनुषंग’ सही है । यहां दो शब्द हैं, धनु:+ अनुषंग: = धनुरनुषंग:, अनुषंग: का अर्थ है साहचर्य, संयोग, मेल व संयुक्त होने का भाव । सन्धि के कारण ‘अनुषंग:’ से विसर्ग का लोप हुआ । अब धनुरनुषंग से जो अर्थ ध्वनित होता है वह है ‘जिसका हाथ धनु से संयुक्त है ‘अर्थात् जिसने धनुष को पकड़ा या थामा हुआ है । आशा है आपका संदेह निवारण हो गया होगा । इति शुभम् ।
श्लोक संख्या ३ में “अयि जगदम्ब कदम्बवनप्रियवासिनि” के स्थान पर “अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्बवनप्रियवासिनि” वांछनीय है।
आदरणीय संदीप कुमारजी, महिषासुरमर्दिनी का मूल पाठ भिन्न भिन्न स्थलों पर बहुत बहुत भिन्नता से पाया जाता है, अत: अब हमने गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक का आधार लिया है, क्योंकि इससे अधिक प्रामाणिक स्रोत और कोई नहीं है । इसलिये अब सम्पूर्ण पाठ ठीक वहीं से ज्यों का त्यों हमने लिया है । इससे मूल पाठ के प्रति शंका के लिये कोई स्थान नहीं रहता (यद्यपि अन्य पाठों से वह न्यूनाधिक भिन्न हो जाता है, जैसा कि श्लोक संख्या ३ में हुआ है) ।
आपका विचार अच्छा लगा । कृपया समय समय पर हमें अवगत कराते रहें व कहीं भी कोई सन्देह हो तो अवश्य उसे प्रकाश में लायें ।
इति शुभम् ।
गीता प्रेस गोरखपुर की किस पुस्तक में यह स्तोत्र में मिल जाएगा
मान्यवर, गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक ‘देवीस्तोत्ररत्नाकर’ (कोड न.१७७४) में यह स्तोत्र मिल जायेगा । यहाँ पर यह ‘श्रीसंकटास्तुति:’ के नाम से, पृष्ठ संख्या २३९ पर है । ध्यातव्य है कि संकटा देवी भी माँ दुर्गा का ही एक नाम है । संस्कृत भाषा में पहाड़ों की संकीर्ण घाटियाँ तथा सर्पिलाकार, दुर्गम, झालरदार मार्ग ‘संकट’ कहलाते हैं । माता के बाल्य-कैशोर्यकाल की लीलाएं पर्वतराज हिमालय की इन्हीं संकटों अर्थात् घाटियों में संपन्न हुई हैं, अतएव वे श्रीसंकटा भी कहलाती हैं ।
भाव चाहिए बस
आपने बहुत ही सही उत्तर दिया मेरी दृष्टि में
मान्यवर, आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
श्रीमति जी मूल पाठ के कुछ श्लोक व्याख्या के श्लोक से भिन्न पाए गए हैं जैसे श्लोक संख्या २० में “शिवनामधने” शब्द दोनों स्थानों में भिन्न है कृपया सम्पूर्ण स्त्रोत को मिला लें
अभिषेकजी, भूल की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये धन्यवाद । सुधार कर दिया गया है । कहीं और भी देखें तो कृपया अवगत करायें । इति शुभम् ।
श्रीमति जी मूल स्त्रोत तथा व्याख्या के श्लोकों में कुछ अन्य भिन्नताएं इस प्रकार हैं
श्लोक संख्या १० में “झणझणझिंझि…..” भिन्न है
श्लोक संख्या ११ में “सुनयनविभ्रमर…….” भिन्न है
श्लोक संख्या १२ में “महितमहाहवम…..” भिन्न है
श्लोक संख्या १३ में “त्रिभुवनभूषण……” भिन्न है
श्लोक संख्या १५ में “मिलितपुलिंद……” भिन्न है
श्लोक संख्या १७ में “कृतसुरतारक……” भिन्न है
श्लोक संख्या १९ में “ते अंगण रंग….”भिन्न है
इतिशुभम्
हमारे मूलपाठ (जिसे गीता प्रेस, प्रकाशन की पुस्तक से लिया गया है) एवं व्याख्या के किसी भी श्लोक में अन्तर नहीं है । दोनों स्थलों में समानता सुस्पष्ट है । हाँ, कई भिन्न-भिन्न पुस्तकों में भिन्न-भिन्न पाठ मिलते हैं, किन्तु हमें अपनी स्रोत-पुस्तक से ही प्रयोजन है । इति शुभम् ।
श्रीमति जी क्षमा चाहता हूं किंतु मेरे भिन्न कहने का अर्थ यह है कि जो भी अंतर है वह कुछ शब्दो में है जैसे “झणझणझिंझिमिझिंकृत” और “झणझणझिंझिमझिंकृत” इन दोनों में “म” और “मि” का अंतर स्पष्ट है। इसी प्रकार मेरे द्वारा ऊपर बताई गई त्रुटियां का आपको तभी ज्ञान होगा जब आप ध्यानपूर्वक उस संपूर्ण पंक्ति को एक साथ मूल पाठ और व्याख्या में पढ़ेंगी। मैं आपके प्रयासों की प्रशंसा करता हूं किंतु कृपया ध्यान दें
इति शुभम्
धन्यवाद । सुधार कर दिया गया है ।
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आदरणीय त्रिवेदीजी, आपने कृपापूर्वक हमें आशीष दें कर प्रोत्साहित किया, एतदर्थ आपका आभार प्रकट करते हैं । कृपया उत्तर में विलम्ब हेतु क्षमा करें । इति शुभम् ।
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते।
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते।।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।७।।
Ye 7th Shlok hai instead of 4th
अयि रणदुर्मदशत्रुवधाद्धुरदुर्धरनिर्भरशक्तिभृते
चतुरविचारधुरीणमहाशयदूतकृतप्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतदुरन्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
Ye 5th Shlok hai instead of 7th
अयि शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते
निजभुजदण्डनिपातितचण्डविपाटितमुण्डभटाधिपते
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशौण्डमृगाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥५॥
Ye 4th Shlok hai Instead of 5th
Aapse Savinay Nivedan hai ki Interchange kar dijiye positions
आदरणीय त्रिवेदीजी, आपकी रुचि व भावना का स्वागत है । पहले अन्य पुस्तकों से प्रचलित पाठ ही लिया गया था । किन्तु भिन्न-भिन्न पुस्तकों में महिषासुरमर्दिनी के पाठ अलग अलग दिये हुए पाये गये व आप ही की भाँति सहृदय पाठकों ने इस भिन्नता की ओर हमारा ध्यान खींचा । अब हमें आवश्यकता जान पड़ी ऐसे स्रोत की, जो सर्वमान्य हो । गीताप्रेस, गोरखपुर के प्रकाशन सदा त्रुटिरहित तथा प्रामाणिक होते हैं, अतएव वहीं से प्रकाशित पुस्तक को आधार मान कर हमने पहले के लिखित पाठ में श्रमपूर्वक संशोधन किया व परिणाम आपके सामने है । धन्यवाद । इति शुभम् ।
अयि सुदतीजनलालसमानसमोहन मन्मथराजसुते
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगजराजगते ।
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१३॥
Here, अयि सुदतीजनलालसमानसमोहन मन्मथराजसुते comes in Third place and अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगजराजगते will be in first place and त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते at second
मान्यवर, हमारा मूलपाठ गीताप्रेस, गोरखपुर की पुस्तक से लिया गया है और यहाँ से प्रकाशित धार्मिक ग्रन्थों की प्रामाणिकता में सन्देह नहीं है, चाहे वे अन्यत्र दिये गये पाठों से अलग हों । धन्यवाद ।
किरण जी नमस्कार मैंने ये स्त्रोतर अलग अलग आर्टिकल मे पड़ा है सबमे यह अलग अलग क्रम मे लिखा है इसका कोई सही क्रम है या अलग अलग क्रम मे पड़ा जा सकता है? कृपया समाधान दें ???
आदरणीय सुभाष चन्दरजी, नमस्कार । हमारे सम्मुख भी यही समस्या आई थी । सुधी पाठकजन अन्यत्र पढ़े गये पाठों से हमारे पाठ में अल्पाधिक अन्तर पाते थे, कभी सन्धि-विषयक, कहीं शब्द-विषयक तो कभी क्रम-विषयक । भगवती की कृपा से हमने लक्ष्य किया कि धार्मिक ग्रन्थों के परम प्रामाणिक पाठ हमें गीता-प्रेस, गोरखपुर से लब्ध हो सकते हैं । अतएव उसको आधार बनाकर व पूर्वलिखित पाठ में तदनुसार आवश्यक सुधार कर हमने बड़े मनोयोग से इस लघु प्रयास को प्रस्तुत किया है । हम शंकराचार्यजी द्वारा रचित इस पाठ को सही मानते हैं । अन्य स्थलों पर रचयिता का नाम भी कुछ और हो सकता है । इति शुभम् ।
नमस्ते महोदय,
कही कही हम महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र के रचयिता का नाम नहीं लिखा हुआ पाते है। इसके सही मायने मे रचयिता कौन महात्मा है? कोई कहते है कि ये श्रीमत् आद्य शंकराचार्य है। कृपया इस शंका का समाधान करें।
आदरणीय महोदया, नमस्कार । कथित स्तोत्र के मूल रचयिता आदि शंकराचार्यजी हैं । तत्पश्चात् अन्य भक्त कवि द्वारा भी इससे प्रभावित होकर भावपूर्वक यह स्तुति लिखी गई, जिसमें कठिनप्राय सन्धियां कम लक्षित होती हैं किन्तु कहीं-कहीं कुछ श्लोक घटे हुए व उनके क्रम बदले हुए मिलते हैं । यद्यपि हम आधिकारिक रूप से तो नहीं कह सकते, किन्तु प्रामाणिक मूल पाठ की एक गंभीर खोज ने हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाया है । अतएव हमने इस मूल पाठ पर ध्यान केन्द्रित किया है । इति शुभम् ।
धन्यवाद और आभार.
अयि सुमनःसुमनःसुमनःसुमनःसुमनोरमकान्तियुते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते ।
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते
आदरणीय महोदया, नमस्कार । इनमे सुमन:, रजनी, भ्रमर , शब्द का 3-4 बार प्रयोग का भावार्थ स्पष्ट नहीं होता है | यैसे हि अन्य श्लोक में भी है
क्या आप लेखक की भावना अनुरूप व्याख्या कर सकते है .| ॐ
आदरणीय नन्दकुमारजी, नमस्कार । कृपया सन्धि-विच्छेद व शब्दार्थ सहित ११वें श्लोक की व्याख्या आप पढ़ें, उसमें सुमन, रजनी व भ्रमर तीनों शब्दों की आवृत्ति से हर बदलने वाला अर्थ बताया गया है । फिर भी यदि कोई पंक्ति समझ में न आयें तो उसका उल्लेख करके कृपया बतायें । आपको यथासाध्य सहायता दी जायेगी । इति शुभम् ।
जी नमस्कार,
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र मुख्य रूप से किस ग्रंथ में वर्णित है। और इसके मुख्य रचियता कौन है? यह गीता प्रेस की किताबों के अलावा कहां और मिल सकता है।
कृपया समाधान करे
नमस्कार । गीता प्रेस के अलावा किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं पढ़ा है । केवल विविध स्तोत्रों का मिला-जुला संग्रह जिन पुस्तकों में होता है, वहीं यह स्तोत्र कतिपय बदलावों के साथ पढ़ने में आया है । इण्टरनेट पर भी हमने देखा है । गीता-प्रेस पर आधारित हमारी जानकारी के अनुसार यह शंकराचार्यजी द्वारा रचित है, व वहाँ यही स्तोत्र ‘संकटापन्न स्तुति’ के नाम से लब्ध है । इति शुभम् ।
यह स्तोत्र किस छंद में है, कृपया जानकारी देने की कृपा करें।
छन्द की जानकारी मुझे नहीं है ।
मा. महोदय, बहोत सुंदर स्तोत्र है देवी का. एक विनंती है की संस्कृत शब्द बहोत बङे है. कृपया करके बङे शब्द के लघुरुप मे विस्तारीत करने की कृपा करें. जिससे श्रीस्तोत्र पढने में आसानी हो. धन्यवाद 🙏 🙏
कृपया आगे देखें । सन्धि-विच्छेद करके शब्दार्थ सहित पाठकों की सुविधा के लिये अन्वय दिया गया है । धन्यवाद ।