महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक १८
Shloka 18पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे | ||
पदकमलं | = | चरण-कमलों की |
करुणानिलये | = | हे करुणाधाम, दयामयी |
वरिवस्यति | = | पूजा, उपासना करता है |
योऽनुदिनं | → | य: + अनुदिनम् |
य: | = | जो |
अनुदिनम् | = | प्रतिदिन |
सुशिवे | = | हे सुकल्याणी |
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स: कथं न भवेत् । | ||
अयि | = | हे |
कमले | = | हे रमा |
कमलानिलये | → | कमला + निलये |
कमला | = | कमल (कुंज) |
निलये | = | हे वास करने वाली (कमलकुंज में) |
कमलानिलयः | → | कमला + निलयः |
कमला | = | लक्ष्मी |
निलय | = | निकेतन, आवास |
स: | = | वह |
कथम् | = | कैसे |
न | = | नहीं |
भवेत् | = | होगा |
तव पदमेव परम्पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे | ||
तव पदमेव परम्पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे | → | तव पदम् + एव + परम्पदम् +अस्तु + इति + शीलयत: + मम + किम् + न + शिवे |
तव | = | तुम्हारे |
पदम् | = | चरण |
एव | = | ही |
परम्पदम् | = | परम पद अर्थात् मोक्ष |
अस्तु | = | हों ( मेरे लिये) |
इति | = | ऐसी |
शीलयत: | = | भावना रखने वाले |
मम | = | मुझे |
किम् | = | क्या- क्या |
न | = | नहीं (प्राप्त होगा) |
शिवे | = | हे कल्याणी |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
करुणानिलये य: अनुदिनम् पदकमलम् वरिवस्यति सुशिवे स: कथम् कमलानिलय: न भवेत् अयि कमले तव पदम् एव परम पदम् अस्तु इति शीलयत: शिवे मम किम् न । जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
हे सुमंगला, तुम्हारे करुणा के धाम सदृश (के जैसे) चरण-कमल की पूजा जो प्रतिदिन करता है, हे कमलवासिनी, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने ? अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है । तुम्हारे पद ही (केवल) परमपद हैं, ऐसी धारणा के साथ उनका ध्यान करते हुए हे शिवे ! मैं परम पद कैसे न पाउँगा ? हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनी के अठारहवें श्लोक में स्तुतिकार कमलनिवासिनी देवी के पाद-पद्मों की महिमा का गान करता है । उसके अनुसार पद्मवननिवासविलासिनी माँ के चरण-कमल करुणा के निकेतन हैं, दया के धाम हैं । वरिवस्या का अर्थ है पूजा, अर्चना, भक्ति व सम्मान और वरिवस्यति शब्द क्रियावाचक है, जिसका अर्थ है (जो) पूजन-अर्चन करता है । अनुदिनम् अर्थात् प्रतिदिन । इस प्रकार दयामयी देवी से कवि कहता है कि हे सुशिवे अर्थात् हे सुमंगले ! तुम्हारे करुणा-सदन सरीखे यह जो पद-कमल हैं, उनकी प्रतिदिन पूजा-अर्चना जो कोई भी करता है, हे कमलकुंजनिवासिनी, क्यों न वह स्वयं कमलानिवास अर्थात् श्रीनिवास या श्रीमंत बन जायेगा ? अर्थात् वह श्रीनिवास अथवा कमलानिवास बन जायेगा । कमलानिलय: अर्थात् कमला जहां वास करती है, जिसके पास बसती है । ऐसा व्यक्ति कितना धन-सम्पदावान हो सकता है, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है । अतएव स्तुतिकार कहता है कि हे कमलकोशवासिनी ! तुम्हारे करुणासदन सदृश चरणकमलों की प्रतिदिन पूजा-अर्चना करने वाला तुम्हारा आराधक स्वयं अकूत सम्पदा का स्वामी हो जाता है ।
कवि कहता है कि हे शिवे ! शिवा शब्द के संबोधन का रूप है शिवे अर्थात् हे शुभे ! शुभ ही शिव है । तात्पर्य यह है कि शिव का एक अर्थ जहाँ भगवान शिव है, वहाँ शिव का दूसरा अर्थ शुभ, कल्याण, तथा मंगल का भी है । अत: शिवा शब्द से शिवभामिनी व शुभा दोनों अर्थ घटित होते हैं । स्तुतिगायक का भक्ति से परिपूरित मन भगवती के चरणद्वय में ही मोक्ष की भावना रखता है । अत: वह मुक्तकण्ठ से कह उठता है कि हे मांगल्ये ! हे शुभंकरी ! तुम्हारे चरण ही परमपद हैं, परमपद मोक्ष को कहते हैं । कवि का अभिप्राय है कि हे शिवानी ! मुक्ति तुम्हारे ही चरणों में है, मेरा ऐसा मानना है, तथा यही चिन्तन-मनन मैं सदा सर्वदा करता हूं । तुम्हारे पाद-पद्मों में प्रतिपल मेरी प्रीति है, प्रतीति (विश्वास) है । ऐसी स्थिति में मेरे जैसे भक्त का, जो सदैव तुम्हारे चरणों की ध्यान-धारणा करता है, कल्याण क्यों न होगा, तात्पर्य यह कि अवश्य होगा । तुम्हारी आराधना में अनुरक्त साधक का कल्याण अवश्यम्भावी है । शीलयतो या शीलयत: का अर्थ है भावना करने वाला ।
स्तुतिकार अन्त में, अपनी परम आराध्या, मंगलमयी महामाधवी की जय जयकार करता हुआ गा उठता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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