शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३१

Shloka 31 Analysis

कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धि: ।
इति चकितममन्दीकृत्य माम् भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥ ३१ ॥

कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं
कृशपरिणति = अपरिपक्व
चेत: = चित्त, मति
क्लेशवश्यम् = अविद्यादि क्लेशों के अधीन
क्व = कहां तो
चेदम् च + इदम्
= और
इदम् = यह
क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धि:
क्व = कहां
= और
तव = आपकी
गुणसीमोल्लंघिनी = असीम, त्रिगुण की सीमा को लांघ जाने वाली
शश्वदृद्धि: शश्वद् + ऋद्धि
शश्वद् = शाश्वत, नित्य
ऋद्धि = विभूति, महिमा व ऐश्वर्य
इति चकितममन्दीकृत्य माम् भक्तिराधाद्
इति = इस प्रकार, इस कारण से
चकितममन्दीकृत्य चकितम् + अमन्दीकृत्य
चकितम् = आश्चर्य में पड़े हुए, विस्मय-विमूढ़ (मुझे)
अमन्दीकृत्य = (स्तुति के लिये) उत्साहित करके
माम् = मुझे
भक्तिराधाद् भक्ति: + आधाद्
भक्ति: = भक्ति ने
आधाद् = अर्पित करवायी, चढ़वायी (है)
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम्
वरद = हे वरदाता प्रभो
चरणयोस्ते चरणयो: + ते
चरणयो: = चरणों में
ते = आपके
वाक्यपुष्पोपहारम् = वाक्यरूपी फूलों की भेंट

अन्वय

(हे) वरद ! क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनी शश्वद् ऋद्धि: क्व च इदम् क्लेशवश्यम् कृशपरिणति चेत:, इति चकितम् माम् अमन्दीकृत्य भक्ति ते चरणयो: वाक्यपुष्पोपहारम् आधाद् ।

भावार्थ

हे वरदायी प्रभो ! कहां तो सीमातीत आपकी नित्य विभूति और कहां क्लेशों के अधीन मेरा यह अपरिपक्व चित्त ! विस्मय से विमूढ हुए मुझे आपकी भक्ति ने ही उत्साहित करके स्तुति के रूप में वाक्य-पुष्पों की यह भेंट आपके चरणों में चढ़वायी है ।

व्याख्या

भगवान् शिव की स्तुति में संलग्न शिवनिष्ठ गन्धर्वराज पुष्पदन्त के भक्तितरल हृदय के भावोद्गारों से भरित है शिवमहिम्न:स्तोत्रम् । ३१वें श्लोक में कवि अपने आराध्य के सम्मुख उनकी अनिर्वचनीय महिमा का गुणानुवाद करने के साथ-साथ अपने चित्त को अविद्या आदि क्लेशों के अधीन होने से उसकी अपरिपक्वता व अपनी आर्त्त अवस्था को उकेरते हैं । और इस तरह वे नित्य विभूतिमय शिव के सम्मुख स्वयं को अकिंचन् व तुच्छ बताते हैं । वस्तुत: क्लेश-ग्रस्त ही परमात्मा को पुकारता है ।

स्तुतिकार यद्यपि परम ज्ञानी हैं, लेकिन इन निष्ठावान शिवपरायण भक्त में कहीं भी अपने कर्तृत्व के प्रति अहम् भाव अथवा अभिमान का लेशमात्र भी दृष्टिगत नहीं होता । इस श्लोक का आरम्भ ही वे स्वयं को क्लेशवश्य बता कर करते हैं ।  क्लेशों का सामान्य लक्षण है कष्टदायिकता । क्लेशों के रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता ।  कृशपरिणति यानि अल्प परिपक्व अथवा अपरिपक्व — ऐसा बताते हैं वे अपने चित्त को । कवि के अनुसार उनका चित्त अभी पूरे प्रौढ़त्व को प्राप्त नहीं हुआ है, अत: उस चित्त में सर्वेश्वर की महती गरिमा को हृदयंगम करने का सामर्थ्य नहीं के बराबर है । जब गरिमा का पूरा ज्ञान ही नहीं तो उसका गान कैसे हो ?  कवि के अनुसार उनकी अल्प-सी मति कहां इतनी  विकसित है कि वे शिव की नित्य महिमा व ऐश्वर्य को जान या समझ पायें । एक तो चेत: अर्थात् चित्त अविद्या आदि क्लेशों की जकड़ से परवश बना हुआ है, अतएव चित्त को  क्लेशवश्य  कहा और फिर उसे वे कृशपरिणति अर्थात् अपरिपक्व भी बताते हैं । कृश का अर्थ है अल्प, न्यून, पतला और कम । परिणति प्रौढ़ता की, वृद्धत्व की प्रकारान्तर से समझदारी की सूचक है । अत: कृशपरिणति से अभिप्रेत है अल्प परिपक्व अथवा अपरिपक्व । दोनों का भाव एक ही है ।  कवि कहते हैं कि मेरा चित्त माया के वश में है । अविद्या ही माया है । संसार के भोगों में रत मन वास्तव में भ्रान्त स्थिति में पहुँचा हुआ मन है , जिसे परिपक्व नहीं कहा जा सकता । संसार के सब भोग तथ्यहीन हैं । वे कहते हैं कि कहां तो राग आदि से मलिन, अविद्या से जकड़ा हुआ मेरा चित्त और कहां आपकी शश्वदृद्धि (शश्वत् ऋद्धि) यानि आपकी शाश्वती महिमामयी विभूति, जिसे कवि ने गुणसीमोल्लंघनी (गुण सीमा उल्लंघिनी) विशेषण से वर्णित किया है । गुण से विवक्षित हैं त्रिगुण, तथा उन तीनों गुणों (सत्व, रज व तम) की सीमाओं को भी पार कर जाने वाली सीमातीत है शाश्वत विभूति महादेव की । ऐसा कह कर वे परम ज्ञानी गन्धर्वाधिपति शिवजी के सम्मुख पूरे समर्पण के साथ अपनी लघुता चित्रित करते हैं ।

गन्धर्व कवि अगले पाद अथवा पंक्ति में अपनी अवस्था का चित्रण करते हैं । प्रथम व द्वितीय पाद में अपने अविद्याजन्य क्लेशों के वशीभूत चित्त व शिवजी की शाश्वत विभूति का कथन करते हुए करते दिखायी देते हैं । दोनों के मध्य कोई मेल नहीं अत:, आश्चर्य से चकित या स्तब्ध हो कर रह जाते हैं वे कि कहां तीनों गुणों की सीमा से अतीत महादेव की नित्य महिमा और कहां उनके डावाँडोल चित्त की क्षणभंगुर लहरियां…! दोनों का क्या मेल है, यह सोच ही कवि को आश्चर्य से चकित करके रख देता है । और विस्मय-विमूढ हुए-से वे शिवजी से निवेदन करते हैं कि हे वरदायी प्रभो ! आपकी भक्ति ने ही मुझ चकित-अचम्भित को उत्साहित किया है । इसी ने मेरे मन में स्तुति करने की  स्फुरणा व प्रेरणा भर दी है और झर पड़े हैं कुछ शब्द फूलों की तरह । तथा आपकी भक्ति ने, हे भगवन् !  इन्हीं फूलों की — वाक्यरूपी फूलों की भेंट आपके चरणकमलों में मुझसे अर्पित करवायी है । इन शब्दों में कवि की कृतज्ञता की भावना छलकती है । वे कृतकृत्य हैं कि शिवभक्ति ने उन्हें सेवा-सक्षम बनाया है । इस ऋजु कथन (सरल कथन) से स्पष्ट है कि उनके मन में अपने फूल-से सुंदर शब्दों के वाक्यपुषपोपहार को लेकर अभिमान का लेशमात्र भी नहीं है । अपने प्रति गौरवभाव से सर्वथा शून्य वे शिवभक्ति को इस बात का श्रेय देते हैं कि मुझसे वाक्यपुष्पों की यह भेंट आपकी भक्ति ने ही आपके चरणों में चढ़वायी है  । अन्यथा मुझ अपदार्थ की क्या बिसात है, मैं अकिंचन तो ठगा-सा रह गया था आपके असीम महत् ऐश्वर्य से —  ऐसा  निरभिमान व निर्मल भाव उनके उद्गारों से छलकता है ।

विद्वानों के कथनानुसार शिववमहिम्न:स्तोत्रम् में  गन्धर्वराज ने जो स्तुति की हैं अर्थात् उनके रचे हुए  स्तुतिपरक श्लोक यहीं समाप्त हो जाते हैं  व इस श्लोक के बाद आगे फलश्रुतिपरक श्लोक हैं ।

श्लोक ३० अनुक्रमणिका श्लोक ३२

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