शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक १
Shloka 1 Analysisमहिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येषस्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः।। १।।
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी | ||
महिम्नः | = | महिमा की |
पारन्ते | = | पारं + ते |
पारं | = | पार को, सीमा को |
ते | = | आपकी |
परमविदुषो | = | परं + अविदुषः |
परं | = | उत्कृष्ट, उत्तमोत्तम, अपार |
अविदुषः | = | अविद्वान की, न जान पाने वाले की |
यद्यसदृशी | = | यदि + असदृशी |
यदि | = | अगर |
असदृशी | = | अनुचित, जैसी होनी चाहिये वैसी नहीं |
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि | → | स्तुतिः + ब्रह्मादीनाम् + ब्रह्मादीनाम् + अपि |
स्तुतिः | = | स्तवन |
ब्रह्मादीनाम् | = | ब्रह्मादिकों की, ब्रह्मा आदि अन्य देवों की |
अपि | = | भी |
तदवसन्नास्त्वयि | → | तद् + अवसन्नाः + त्वयि |
तद् | = | तब तो |
अवसन्नाः | = | अपर्याप्त, अनुपयुक्त, योग्य नहीं |
त्वयि | = | आप में, (आपका गुणगान करने में), आपके विषय में |
गिरः | = | वाणियां, स्तुतियाँ |
अथावाच्यः | → | अथ + अवाच्यः |
अथ | = | और यदि, इस तरह |
अवाच्यः | = | अनिन्दनीय, जो आलोचना के पात्र नहीं |
सर्वः | = | सभी |
स्वमतिपरिणामावधि | → | स्वमति + परिणामावधि |
स्वमति | = | अपनी अपनी मति |
परिणामावधि | = | बुद्धि – सामर्थ्य के अनुरूप |
गृणन् | = | गुणगान करने वाला या करता हुआ |
ममाप्येषस्तोत्रे | → | मम + अपि + एषः + स्तोत्रे |
मम | = | मेरा |
अपि | = | भी |
एषः | = | इस |
स्तोत्रे | = | स्तोत्र में, स्तोत्र के विषय में |
हर | = | हे हर ! हे पापों को हरने वाले प्रभु ! |
निरपवादः | = | अनिन्दनीय |
परिकरः | = | प्रयास ( है ) |
अन्वय
अथ स्वमति परिणामावधि गृणन् सर्वः अवाच्यः, (अतः) मम अपि स्तोत्रे एष परिकरः निरपवादः ।
भावार्थ
हे हर ! आपकी अपार महिमा की (असीम) सीमा को न जानने वाले व्यक्ति द्वारा की गई आपकी स्तुति यदि आपके योग्य नहीं है अथवा अनुपयुक्त है, तब तो ब्रह्मादि देवों की वाणी भी आपकी महिमा का वर्णन करने में अनुपयुक्त है या उसके लिए अयोग्य है । और यदि अपनी अपनी सोच अथवा बुद्धि के स्तर पर (या अपने सामर्थ्य के अनुरूप) ही आपका यथासंभव गुणगान करने वाले आलोचना के पात्र नहीं हैं, अर्थात् उनका यह कर्म अनिन्दनीय है, तब तो आपकी स्तुति करने का मेरा भी यह प्रयास अनिन्दनीय है ।
व्याख्या
शिवमहिम्नःस्तोत्रम् से संबद्ध कथा पिछले पृष्ठ दो शब्द में दी गई है । अतः उसका पुनरावर्तन न करते हुए सीधे प्रथम श्लोक से इस पावन स्तवन को हृदयंगम करने का उपक्रम करते हैं ।
शिवकोप के कारण अपने गन्धर्व-पद से भ्रष्ट गंधर्वराज पुष्पदन्त अथवा कुसुमदशन के कातर प्राण पुकार उठते हैं । भगवान शशिशेखर का स्तवन करते हुए वे कहते हैं कि हे हर ! आपकी महिमा अपरम्पार है, वर्णनातीत है । आपकी पूर्ण महिमा को जो नहीं जानते, उनके द्वारा आपकी महिमा का गुणगान करना यदि अनुचित है, तब तो सृष्टि के निर्माता व विधाता एवं देवों में वयोवृद्ध ब्रह्माजी द्वारा की गई आपकी स्तुति भी व्यर्थ है, यद्यपि उनके चारों मुखों से वेदवाणी निसृत होती है, जिसका प्रारम्भ प्रणव से होता है । ऐश्वर्यशाली व पराक्रमशाली देवों की दिव्य वाणियां भी निर्बल निरर्थक हैं आपकी महिमा का बखान करने में, क्योंकि वे तथा महान ऋषिगण, कवि-कोविद, पंडित, योगी भी आपकी महिमा को पूर्णतः तो क्या अंशतः भी नहीं जान पाते । तथापि आपकी स्तुति-अर्चा वे निरंतर करते रहते हैं । ऐसी स्थिति में हे हर ! अज्ञ जन यदि आपकी महिमा का तन्मय हो कर गुणगान करते हैं, तो इसमें आपत्तिजनक क्या है ? भोले-भाले भक्तों द्वारा भावविभोर हो कर किया गया आपका स्तवन किसी भी तरह निंदनीय अथवा नगण्य नहीं है । जब ब्रह्मादि देव ही आपको जानने का सामर्थ्य धारण नहीं करते तो अन्य किसी की क्या बिसात है ? इस तरह आपकी अपार महिमा को यथेष्ट रूप से न जानने वालों के द्वारा की गई आपकी स्तुति यदि अनुचित है तो ब्रह्मा, विष्णु एवं इन्द्रादिक देवताओं की दिव्य गिरा (वाणी) भी आपकी महिमा का वर्णन करने के हेतु अयोग्य है, अपर्याप्त है , क्योंकि पूर्णत: तो वे सब भी आपको कहाँ जानते हैं अर्थात् नहीं जानते।
अब आगे कवि मानो प्रश्नभंगिमा में खड़े हुए पूछते हैं कि किसी की भी वाणी आपका बिरुद कैसे गा सकती है ? फिर स्वतः उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि आपके तत्त्व से तो सृष्टिकर्त्ता, श्रुति के परमोपदेष्टा भी भिज्ञ नहीं हैं । वे भी आपके तत्व को न जान कर अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए आपकी अर्चा करते हैं (यह बात और है कि उनकी और हमारी सीमाएं भिन्न हैं, चेतना के स्तर भिन्न हैं) । प्रत्येक देहधारी स्वमतिपरिणामावधि अर्थात् अपनी मति, रुचि , बुद्धि के स्तर व सामर्थ्यानुसार ही आपका गुणानुवाद करता है, जहां तक जिसकी बुद्धि की पहुंच है, वह वहां तक की ही जानकारी रखता है । हे भक्तवत्सल ! आपकी कृपा-कणिका प्राप्त कर धन्य हुए जीव अपनी बौनी बुद्धि के अनुरूप ही आपको समझ सकते हैं और आप विषयक कल्पना कर सकते हैं और उसमें वे स्वयं को धन्य मानते हैं । प्रेमपूर्वक किया गया आपका चिंतन उनके भव-भव के बंधन काट देता है । बालक तो बालोचित बोली में ही बोलते हैं । अतः इनमें से किसी को भी आपकी स्तुति के अयोग्य नहीं ठहराना चाहिये । अथावाच्य: सर्व: इस तरह दोष के योग्य कोई भी नहीं है, सभी अवाच्य हैं, अनिन्दनीय हैं । वस्तुत: आपके प्रति भक्तिभाव से की गई कोई भी अभिव्यक्ति सर्वदा व सर्वथा शोभनीय है न कि आलोचना करने योग्य ।
भक्ति की उच्च भावभूमि पर खड़े स्वच्छात्मा भक्त अपनी स्निग्ध वाणियों से अपने आराध्य का चारु यश गाते हैं । अपने अंतर में उमड़ती भावधारा के अनुरूप और अनुकूल वे उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित भी करते हैं । संत रैदास ने ठीक ही कहा है “हरिजन बैठे हरिजस गावन ।” परमात्मा को किसी की बानी ने साहिब कह कर पुकारा तो किसी ने प्रेम की पीर में उन्हें परिव्याप्त पाया । आराध्य का इन्द्रियातीत आलोक कहाँ वाणी का विषय बन सकता है । भस्मांगरागभूषित भवभयहारी बम भोलेनाथ को किसी ने औघड़बाबा कहा तो किसी ने औढरदानी, प्रलयंकर भी वे कहे जाते हैं और शंकर भी । एक लोटा जल से ही प्रसन्न होने वाले आशुतोष को मानसीपूजा भी तुष्ट कर देती है, जो किसी बाह्याडम्बर की मुखापेक्षी नहीं । वे करुणाब्धि तो पुकारने वाले के ‘करचरणकृतं वाक्कायजं’ सभी अपराध क्षमा कर देते हैं । ऐसे भगवान शिशुशशधरमौलि का भूल से अपराध कर बैठने वाले गंधर्वराज का कहना सर्वथा युक्तियुक्त है कि स्तवन करने का उनका यह परिकर: अर्थात् प्रयास भी निरपवाद: है, दोषरहित है ।
गंधर्वराज पुष्पदन्त उद्यत हैं भगवान करुणार्णव के सुरासुरार्चित पादपद्मों में अपने उदगार निवेदित करने पर । प्रथम श्लोक के अंत में वे अपना मंतव्य प्रकट करते हुए गा उठते हैं, ममाप्येषस्तोत्रे हर ! निरपवाद: परिकर: अर्थात् हे हर ! मेरे स्तोत्र के विषय में भी यह बात कही जा सकती है कि मेरा यह शिशु-प्रयास अनिन्दनीय है, चाहे जैसा भी है । मुझ अक्षम की यह बालसुलभ चेष्टा अनुचित अथवा अशोभनीय नहीं है । उनका अभिप्राय है कि हे भगवन् ! आप भावगम्य हैं, श्रद्धैकगम्य हैं । आपके निकट वाणीचातुर्य का कोई अर्थ नहीं, बुद्धिविलास का कोई प्रयोजन नहीं,बस महत्त्व है तो केवल भाव का, समर्पण का । अतः मुझ अक्षम का यह खर्व प्रयास भी अक्षम्य न होगा । क्योंकि न्यूनाधिक जो भी प्रयास मैं कर रहा हूं, वह भी तो वस्तुतः कृपा-साध्य है अर्थात् उन्हीं करुणामय की कृपा का फल है । तात्पर्य यह कि यथासम्भव निज भावानुसार की गई भगवान सदाशिव की स्तुति-अर्चा सर्वदा, सर्वरूपेण सुंदरातिसुन्दर है । अथ से अथाह तक महादेव की महिमा अक्षुण्ण है ।
दो शब्द | अनुक्रमणिका | श्लोक २ |
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी
महिम्नः = महिमा की
पारन्ते = पारं + ते
पारं = पार, सीमा
ते = आपकी
परमविदुषो = परं + अविदुषः
परं = उत्कृष्ट, उत्तमोत्तम, अपार
अविदुषः = अविद्वान की, न जान पाने वाले की
यद्यसदृशी = यदि + असदृशी
यदि = अगर
असदृशी = अनुचित
आप के इस प्रकार (जैसा ऊपर दिया है ) श्लोक का अर्थ स्पष्ट करना मुझ जैसे लोगों के लिये अर्थ समझने में बहुत सहायक है । कृपया रामचरित मानस के विभिन्न कांड के मंगलाचरण , उपनिषद के शांति मंत्र इत्यादि का भी इसी प्रकार अर्थ लिखने पर विचार करें । बहुत उपकार होगा ।
मान्यवर, अभी शिवमहिम्न:स्तोत्रम् पर कार्य चल रहा है । आपका सुझाव स्वागतार्ह है और ध्यान में रख लिया गया है । सब्स्क्रिप्शन की सुविधा जोड़ने जा रहे हैं, जिससे नई पोस्ट के लगने पर आप तद्विषयक सूचना पा सकते हैं । कृपया उपकार की बात न कहें । सब अकारणकरुणावरुणालय की कृपा है । इति शुभम् ।
“वाणी आपका बिरुद कैसे” के स्थान पर “वाणी आपका विरुद्ध कैसे” लिखें और त्रुटि को दूर करें।
‘ बिरुद ‘ सही है। इसका अर्थ है महिमा ।
बिरुद का अर्थ बोध कराने के लिए धन्यवाद!
संदीप कुमार जी, आपका स्वागत है ।
बहुत धन्यवाद
आपका स्वागत है, राजेश सिंहजी ।
“भक्ति की उच्च्च भावभूमि” की सुधार कर “भक्ति की उच्च भावभूमि” लिखें और त्रुटि दूर करें।
Thank you, Sandeep ji. This has been corrected. Apologies for a late reply.
आपकी शिक्षा ही सच्ची शिक्षा है जो गुणातीत ईश्वर के गुणों को समझने वाले महान मनीषियों के मंत्रों को जिज्ञासुओं तक पहुंचाने के कार्य में संलग्न है। भाषा व व्याकरण की दृष्टि से संस्कृत का इससे सरल व सारगर्भित हिंदी अनुवाद मेरी खोज को आज तक नहीं मिल सका था।
आपका धन्यवाद।
भगवान भूतभावन की अपने भक्तों पर असीम कृपा है । उन नीलकण्ठ को व्यसन है जगत् के हित-चिन्तन का । आपको कार्य उपयोगी लगा, जान कर संतोष हुआ । आपका बहुत बहुत धन्यवाद । इति शुभम् ।
बहोत उपयोगी है , संस्कृत सीखने वालों के लिए ; भक्तों के लिये । किरण भाटियाजी आप धन्य है। इसी प्रकार ओर भी संस्कृत साहित्य के शब्दार्थ , भावार्थ उपलब्ध कराते रहिये। आपका बहोत धन्यवाद ।। आप की आपके क्षेत्र में बहोत प्रगति हो , ओर आपको बहोत ख्याति मिले , आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो ; यही महादेव शिव से पार्थना ।।????
धन्यवाद । भगवान् भोलेनाथ की महती कृपा ही यह कार्य स्वयमेव कर रही है । सुधी पाठकगण भलीभाँति स्तोत्र के भाव को हृदयंगम कर सकें, यही हमारे लिये हर्ष का विषय है । इति शुभम् ।
hello maam
नमस्कार ।