अल्पजीवी उपस्थिति
हे सखि ! मेरी तुम
कई बार अपने एकांत में मैनें
तुम्हारे स्मित को लहराते देखा है
दिपती-बुझती वह, सखि !
तुम्हारी स्मृति-रेखा है
कुछ ही वर्षों का रहा साथ हमारा
नवांकुर-सा फूटता था यौवन तुम्हारा
थे बत्तीस वर्ष के आसपास हमतुम
उल्लास में हास में डूबा पोर पोर था
पर`उस निष्ठुर` के मन में कुछ और था
कितनी थी त्वरा तुम्हें बुलाने की `उसे`
कि बारिश-बारिश भीगता यौवन
देखते ही देखते सुखा दिया
जिसे देख हिलोरें उठती थीं
मन में उसी को उठा लिया
करके सपने चूर-चूर
चली तुम गयीं कितनी दूर
मैंने तो नगर ही बदला था
अतएव दूर हुई कुछ कोस
तुमने तो जग ही बदल लिया
है तारापथ में कहाँ वह लोक
जहाँ जाने को दे गयीं तुम इतना शोक
अपनी कक्षा के पाठ्य-क्रम मैं
पढ़ी थी कविता एक बचपन में
थी वह अंग्रेजी भाषा में
तड़पता था कवि भग्नाशा में
नाम तो भूल गयी कवि का
पर उसकी पहचान उसके उद्गारों से है
शिलाओं से टकराती समुद्री लहरो की
व्याकुल चीत्कारों से है
प्रिय मित्र को अपने खो कर
कर रहा विलाप था विकल हो कर
लहरें सागर की हहरा-घहरा कर
टकरातीं किनारों से आ आ कर
वह बैठा वहां रेतीले तट पर
देखता लहरों का क्षुब्ध व्यापार
जिसमें दीख उसे रहा था
निज व्याकुल ह्रदय का हाहाकार
थी मैं तब पाठशाला की बालिका
अल्हड़ न दुःख जान पाई उसका
न ही उसकी अतल गहराई
तुम्हें खो कर जो मन इतना खिन्न है
तो जाना कि मेरी भावना
उस अंग्रेज कवि से अभिन्न है
सुमित्र मेरी अपने नाम सदृश
तुम सच में `सुमित्रा’ थीं
प्रेम-प्रपूरित हृदय वाली
हा ! नारी तुम विचित्रा थीं
भूला न कभी मैं पाऊँगी
तुम्हारी वह छवि,सखि !
समय की धूल से बहुत कुछ धूसरित हुआ
तिरती रही पर धूल-कणों में एक छवि सदा
सालती है मुझे तुम्हारे न होने की अनुभूति
याद रहेगी मुझे मेरे जीवन में, सखि !
तुम्हारी वह अल्पजीवी उपस्थिति ।
← गंगा मैया | अनुक्रमणिका | कालिय-दमन → |