शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक २४
Shloka 24 Analysisश्मशानेष्वाक्रीड़ा स्मरहर पिशाचा: सहचरा-
श्चिताभस्मालेप: स्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।
अमंगल्यं शीलं तव भवति नामैवमखिलंp
तथापि स्मरतृणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ।।
श्मशानेष्वाक्रीड़ा स्मरहर पिशाचा: सहचरा: | ||
श्मशानेष्वाक्रीड़ा | → | श्मशानेषु + आक्रीड़ा |
श्मशानेषु | = | श्मशान में |
आक्रीड़ा | = | खेल, आमोद |
स्मरहर | = | काम को नष्ट करने वाले |
पिशाचा: | = | भूत, प्रेत, बेताल, शैतान |
सहचरा: | = | संगी, साथी, साथ रहने वाले |
श्चिताभस्मालेप: स्रगपि नृकरोटीपरिकर: | ||
श्चिताभस्मालेप: | → | श् + चिताभस्म + आलेप: |
श् | = | पहली पंक्ति के अंतिम शब्द के विसर्ग हटने से श् बना |
चिताभस्म | = | चिंता की राख |
आलेप: | = | लेप |
स्रगपि | → | स्रक् + अपि |
स्रक् | = | माला |
अपि | = | भी, और |
नृकरोटी | = | नरमुण्ड |
परिकर: | = | झुण्ड |
अमंगल्यं शीलं तव भवति नामैवमखिलं | ||
अमंगल्यम् | = | अशुभ |
शीलम् | = | चरित, आचरण, रहन-सहन |
तव | = | आपका |
भवति | = | होता है |
नामैवमखिलं | → | नाम् + एवम् +अखिलम् |
नाम | = | सचमुच ही, वास्तव में, यथार्थ में, निस्सन्देह |
एवम् | = | इस प्रकार का |
अखिलम् | = | पूरा, समस्त |
तथापि स्मरतृणां वरद परमं मंगलमसि | ||
तथापि | = | तब भी, फिर भी |
स्मरतृणाम् | = | स्मरण करने वालों के लिये |
वरद | = | हे वर देने वाले |
परमम् | = | अत्यधिक |
मंगलमसि | → | मंगलम् + असि |
मंगलम् | = | शुभ, कल्याणकारी |
असि | = | हो |
अन्वय
भावार्थ
हे कामान्तक प्रभो ! आप स्मशान में क्रीड़ा करते हैं तथा आपके संगी-साथी पिशाच हैं । अपने तन पर आप चिता की राख का लेप लगाते हैं अर्थात् चिता की राख को शरीर पर मलते हैं तथा नरमुण्डझुण्ड की माला पहनते हैं । आपका यह सब चरित अशुभ भले ही हो, किन्तु जो आपको स्मरण करते हैं, उनके लिये आप बहुत ही शुभंकर हैं ।
व्याख्या
शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के चौबीसवें श्लोक में स्तोत्रकार पुष्पदन्त ने भगवान शिव के परम शुभत्व को रेखांकित किया है । महादेव की महिमा अपार है । समाधिरत स्वात्माराम शिव बाह्य रूप से अपने अशुभ वेश व व्यवहार के कारण अपवित्र व भयावह दिखाई देते हैं । विषयी जन उनमें स्तुत्य या श्लाघ्य कुछ भी नहीं पाते हैं । अत: उनके अटपटे बाह्य रूप को देख कर वे शिव को अमंगलकारी समझते हैं । इस पर कवि कहते हैं कि वे अज्ञानी अनभिज्ञ हैं इस बात से कि शिव तो यथार्थ में सर्व मंगलों का मूल हैं । अपने भक्तों के लिये वे वरद परम मंगलकारी हैं । जो उनका स्मरण करते हैं अर्थात् उनके भक्त हैं, उन्हें तो भुक्ति-मुक्ति सभी कुछ वे अवढरदानी प्रदान करते हैं । वास्तविक स्वरूप तो उनका शिव है और शिव का अर्थ ही शुभ होता है । शिव शब्द कल्याण का वाचक है ।
भगवान शिव के बाह्य रूप के अशुभ (दिखने वाले) तत्वों की ओर इंगित करते हुए कवि उन्हें स्मरहर कह कर संबोधित करते हैं । स्मर अर्थात् काम तथा हर यानि दूर करना या अन्त करना ।और इस प्रकार जो काम को हर ले वह स्मरहर है, दूसरे शब्दों में वह कामान्तक है । शिव कामरिपु हैं । काम शब्द से अभिप्राय कामनाओं से भी है । संसार में सब दुःखों का मूल कामनाओं को कहा जाता है । तथा कामनाओं से निवृत्ति का सुख ईशकृपा से मिलता है । अत: कवि अपने आराध्य को स्मरहर कह कर पुकारते हैं । वे कहते हैं कि हे कामनाशक ! आप कितने अद्भुत् हैं ! श्मशान आपकी क्रीड़ास्थली है, क्रीड़ोद्यान है, वहाँ आप क्रीड़ा करते हैं, आमोद करते हैं । यह जगत् वस्तुत: स्वयं ही एक श्मशान है । प्रतिपल यहाँ कोई न कोई जीवन नष्ट होता रहता है । क्षण क्षण में किसी न किसी जीव की मृत्यु होती रहती है । श्मशान जीवन के अन्त को दर्शाता है । शिव ही रुद्र हैं । उनके द्वारा स्मशान में क्रीड़ा का एक अर्थ यह भी निकलता है कि लोक में विध्वंस का प्रतिपल घटित होना शिव की ही एक क्रीड़ा है । वे संहार के देवता हैं । अतएव वह स्थान, जहां संहार होता है, शिव की क्रीडास्थली है । वे काम के, कामनाओं के विनाशकर्ता हैं, अन्तकर्ता हैं और बात यहाँ पर शिव द्वारा की जाने वाली श्मशान-क्रीड़ा की हो रही है तो इस सन्दर्भ में कवि ने उन्हें स्मरहर कह कर संबोधित किया है जो दर्शाता है कि श्मशान जिनकी आमोदस्थली हो, उन जितात्मा को, उन वीतराग को संसार से या उसके विषयों से भला क्या प्रयोजन । अपितु विषय-वासनाओं के कीच में धँसे और फँसे हुए संसार को अपने से दूर रखने के कारण वे वीतराग शम्भु श्मशान जैसे भयानक स्थल में विचरण करते हैं श्मशानेष्वाक्रीड़ा । वे इस प्रकार एकांत-सेवन करते हैं ।
श्मशान में भूत-प्रेत-पिशाच आदि रहते हैं । अत: इन्हें श्मशान-विहारी शिव के सहचरों के रूप में वर्णित करते हुए कवि ने कहा है पिशाचा: सहचरा: । सहचर कहते हैं साथ रहने-चलने वाले को, संगी-साथी को । भूत-प्रेत-पिशाच आदि शिवजी के गण हैं, उनके परिकर हैं, उनके साथ उनकी क्रीड़ा में भाग लेने वाले वे उनकी क्रीड़ा के सहभागी हैं । पिशाचों के निकट कोई नहीं जाना चाहता, न हि कोई इन्हें देखना चाहता है । पिशाच से अभिप्राय उन सेवकों से है, जो विषयशून्य हैं तथा जो कामनाओं को जला कर उनकी राख अपने तन पर चुपड़ लेते हैं । अतएव वैरागी शिव इन्हें सहचर बना कर अपने पास रखते हैं । इस प्रकार संसार का सेवन करने वालों से दूर रह कर वे अपने आत्म में रमते हैं ।
भगवान शिव चिता की भस्म का लेप शरीर पर लगाते हैं, अत: कवि ने कहा चिताभस्मालेप:। चिता की राख, जो कि शवों के जलने से बनी हुई राख है और जो इस तरह अत्यंत अशुद्ध होती है, उसको वे अपनी देह पर अंगराग की तरह लगाते हैं, मलते हैं । यहाँ भी वैरागी मन की बात है । चिता की राख मले हुए व्यक्ति के निकट कोई नहीं जाता । इस प्रकार इस भस्मालेप को धारण करके वे विषयासक्त संसारियों से दूर रहने में सफल होते हैं । स्वयं को और भी भयावह व अपवित्र बनाने के आशय से वे नरमुण्ड-झुण्ड की माला भी धारण कर लेते हैं । मनुष्य की खोपड़ियों की माला धारण करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अपने शरीर पर जो राख उन् भस्मभूषण ने मली है वह राख चिता की ही है । उसी के लिये कहा नृकरोटीपरिकर: । परिकर शब्द के कई अर्थ हैं, जैसे परिजन, सामान, समूह अथवा संग्रह इत्यादि । प्रस्तुत सन्दर्भ में इस शब्द से झुण्ड का अर्थ लिया जायेगा । तात्पर्य है कि नर-कपालों की माला धारण करते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि महादेव की माला भी नरमुण्डों के झुण्डों की है, जो उनके रूप को भयानक बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ते । परिकर शब्द का प्रयोग सामान अथवा निजी उपयोग की वस्तुओं के सन्दर्भ में भी होता है । अतएव यह भी कहा जा सकता है कि चिता की भस्म व खोपड़ियों की माला यह सब श्मशानविहारी शम्भु के परिकर हैं अर्थात् अपने साथ रखने के उनके साधन हैं ।
स्तुतिगायक अपने आराध्य भगवान शिव को पुकारते हुए कहते हैं कि हे कामरिपु ! सब अपवित्र वस्तुएँ धारण करके अपवित्र स्थल में अपवित्र सहचरों के साथ आमोद क्रीड़ा में आप मग्न होते हैं । तब भी जो आपका भक्त है, आराधक है, जिसे प्रयोजन केवल और केवल आपसे है, क्या वह आपके ऐसे अमंगल आचरण, रहन-सहन के कारण आपको छोड़ देता है ? नहीं, आपके भक्तों से आपका वास्तविक चरित छिपा नहीं है । वे आप करुणावरुणालय की वात्सल्य-व्याकुलता से भलीभाँति विज्ञ हैं ।वे जानते हैं कि उनके लीलाविशारद शूलपाणि शंकर समस्त मंगलों के मूल हैं और अमांगलिक आचरण तो उनका केवल एक लीला-नाट्य है । स्तुतिकार कहते हैं कि हे कामान्तक ! आप तो वे कृपासिन्धु हैं, जो अपने स्मरण करने वालों के प्रति सदा अनुकूल रहते हैं तथा सानुग्रह समस्त ऐश्वर्य क्षणार्ध में ही उन्हें दे देते हैं । यही नहीं परमपद के प्रदाता भी आप ही हैं । भुक्ति-मुक्ति आपके चरणों में लोटती है । आपके निकट कुछ भी अदेय नहीं है । अमंगल दिखने वाला आपका रूप विषयान्ध व मदान्ध जनों को भय व संशय में डालता है और केवल वे विमूढ़ जन ही आपको अमंगलमय जानकर आप के प्रति आस्थावान् नहीं होते । लेकिन आपका स्मरण व स्तवन-अर्चन करने वाले आपके भक्तों के लिये तो हे वरदायी प्रभो ! आप अवढरदानी हैं, आशुतोष हैं । आप अपने भक्तजनों को पाप-पाश से मुक्त करके उनका परम मंगल सिद्ध करते हैं, उनका कल्याण-साधन करते हैं । महादेव को इसलिये शिव कहते हैं । शिव अर्थात् शुभ, कल्याणकारी । जो पापियों के लिये प्रलयंकर हैं वही दयालु शिव भक्तों के लिये परम मंगलकारी हैं । दशानन रावण ने अपने शिवताण्डवस्तोत्रम् में शिव की स्तुति करते हुए गाया है तनोतु न: शिव: शिवम् , जिसका अर्थ है कि शिव हमारे शिव ( शुभ) का विस्तार करें !
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श्रद्धेय किरण जी , सादर अभिवादन एवं नमस्कार । दीर्घ अंतराल से आगे के श्लोकों की आपके द्वारा व्याख्या की प्रतीक्षा में हूं । कृपया मेरी जिज्ञासा पूर्ण करें ।
विलम्ब के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ । महादेव की अहैतुकी कृपा ही सब कुछ करवाती है । अविलम्ब आगे के श्लोकों का क्रम से प्रकाशन हो जायेगा । इति शुभम् ।
आदरणीय डाक्टर किरण जी , सादर अभिवादन एवं नमस्कार। आगे के श्लोकों की व्याख्या ग्रहण करने के लिए दीर्घ अंतराल से प्रतीक्षारत हूं ।
आदरणीय एस.के.नाथजी, सादर नमस्कार । विलम्ब के लिये खेद है । आगे के श्लोकों का प्रकाशन शीघ्र करेंगे । धन्यवाद ।