प्रात-मित्र
प्रात की प्राणस्फूर्तिनी बेला
वृक्षाच्छान्न उद्यान के मध्य
फव्वारे की सशब्द बौछार
और उस धाराकुण्ड से
कुट्टिम पथ पर
पड़ती जलधार की फुहेरियों से
मची हुई कीच के बीच
पंकिल घास पर से होते हुए
प्रात-अनिल के साथ ही बहते हुए
तुम भी बहते
चले आते हो मीत !
जल-फुहार-भीगे पथ से
चीरते हुए मेरे सपनों की
इतराती भीड़ ।
जब चोंच में
दाना दाबे चिड़िया
पहुंचने लगती है
अपने नीड ।
और
आता तुम्हें देख
मेरी ही तरह
रोमांचित हो उठते हैं
उद्यान-पथ के
तृण-लता-गुल्म
चम्पक-तरु के
पुष्प-स्तबक और कोरक ।
तृणों के अंतराल से दौड़ती
चीटियों की उतावली कतार
प्रात-पाखी की कलकण्ठ पुकार
नेत्र-युग्म के रक्तिम डोरे
आतप-स्नात पवन झकोरे
द्रुम-शाख से लटकती
तंतुओं की कृश जाली
धरती की रोमावली-सी
हरी मसृण घास पर
मदिर अंगुलियां फेरती
किशोर-रवि की अरुणाली
तथा
बाहु-पल्लव अपने खोले
हवा में झूमते चौड़े चीड़ ।
और तब
खुलती-मुंदती पलकों के
कज्जल पथ पर
रास्ता भूले हुए बटोही-सी
दिग्भ्रांत हो जाती है
कुछ काल के लिए
मुझमें सिमटी हुई
मुझसे सिटकी हुई
मेरे
देह और मन की पीड़ ।
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