महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक ९

Shloka 9

सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते
कृतकुकुथाकुकुथोदिडदाडिकतालकुतूहलगानरते ।
धुधुकुटधूधुटधिन्धिमितध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते
सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते सुरललना + ततथेयि + ततथेयि + तथा + अभिनय + उत्तर + नृत्यरते
सुरललना = देवस्त्रियां अर्थात् देवांगना
ततथेयि = नृत्य की एक ताल
तथा = उसी प्रकार
अभिनय = हाव-भाव, चेष्टाओं से व्यक्त करने की कला
उत्तर = (किसी) से युक्त, (किसी) से पूर्ण
नृत्यरते = नृत्य से प्रसन्न
कृतकुकुथाकुकुथोदिडदाडिकतालकुतूहलगानरते
कृतकुकुथाकुकुथोदिडदाडिकतालकुतूहलगानरते कृत + कुकुथाकुकुथोदिडदाडिकताल + कुतूहलगान + रते
कृत = किया हुआ
कुकुथाकुकुथोदिडदाडिकताल = एक प्ररकारकी ताल
कुतूहलगान = आश्चर्य उत्पन्न करने वाला गीत
रते = हे प्रसन्न होने वाली
धुधुकुटधूधुटधिन्धिमितध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
धुधुकुटधूधुटधिन्धिमितध्वनिघोरमृदंगनिनादरते धुधुकुटधूधुटधिन्धिमित + ध्वनि + घोर + मृदंग + निनादरते
धुधुकुटधूधुट = एक प्रकार की ताल
धिन्धिमित = धुधुकुट की ताल से गुंजरित
ध्वनि = नाद
घोर = गम्भीर
मृदंग = एक प्रकार का ढोल
निनादरते = ध्वनि से प्रसन्न होने वाली ( हे देवी)
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनि महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

सुरललना ततथेयि ततथेयि तथा अभिनय उत्तर (हे) नृत्यरते (च) कृत कुकुथाकुकुथोदिडदाडिकताल कुतूहलगान रते (हे) धुधुकुटधूधुट धिन्धिमित ध्वनि घोर मृदंग निनादरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

देवांगनाओं द्वारा ततथेयि तथेयि की लय-ताल पर नृत्य और उस नाच के अनुरूप किये जाने वाले अभिनय से सुप्रसन्न हे देवी,  कुकुथा-कुकुथा आदि ताल पर कुतूहल जगाते गान में तन्मय होती हुई (हे देवी),  धुधुकुट- धुधुट की धिंम् धिम् ध्वनि करते हुए मृदंग के धीर-गम्भीर निनाद में खो जाने वाली (हे देवी)  ! हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा !  तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

kathakमहिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के नौवें श्लोक में कवि ने देवी की महिमा का वर्णन करते हुए स्वर्गलोक का दृश्य उपस्थित कर दिया है । देवता नृत्य एवं गान-प्रिय होते हैं । भगवान के विविध अवतारों में उनके द्वारा रची गई लीलाओं का गीत-संगीतमय अभिनय देवलोक के वासियों को अनुपम दैवीय रस व आनंद प्रदान करता है । स्वर्गलोक में कामदेव, रति व अन्य अप्सराओं द्वारा भगवान की लीलाओं की नृत्य-नाटिकाएं अभिनीत की जाती हैं, तुम्बरू, हाहा, हूहू आदि गन्धर्व एवं किन्नरगण गीत-संगीत के निपुण कलाकार हैं, अप्सरियां कामकला व नृत्य में पारंगत हैं ।

प्रस्तुत श्लोक में कवि ने उस दृश्य का चित्रांकन किया है जिसमें सुरललनाएं यानि देवरमणियां (अप्सराएँ)   नृत्याभिनय कर रही हैं । कवि कहता है कि ततथेयि-ततथेयि की ताल पर नृत्य हो रहा है व उसीके अनुरूप नयनाभिराम हाव-भाव व चेष्टाओं के साथ सुन्दर अभिनय देवांगनाओं द्वारा किया जा रहा है । देवी इस नृत्य का दत्तचित्त हो कर रसपान कर रही हैं ।अत: उन्हें अभिनयोत्तरनृत्यरते कह कर पुकारा गया है । यही पहली पंक्ति में उनका संबोधन है कि ततथेयि तथेयि की ताल में अप्सरियों द्वारा प्रदर्शित अपने नृत्याभिनय से प्रसन्न हे देवी !

दूसरी पंक्ति में  कवि द्वारा देवी को गान से प्रसन्न बता कर संबोधित किया गया है । यह गान कुतूहलपूर्ण है, आगे क्या आयेगा, इसकी जिज्ञासा जगाता है । अत: स्तुतिकार माँ को इस तरह संबोधित करता है कि हे कु-कुथ कु-कुथ, ग ड धा आदि ताल के साथ सुनने की इच्छा जगाते हुए इस कौतुकपूर्ण गान की मधुरिमा में निमग्न-प्रसन्न हे देवी !

दिव्य कलात्मकता से संयुत नृत्य-गान का उत्सव स्वर्ग में संगीत की ध्वनि के साथ हो रहा है, अप्सरियां  कलाकौशल को प्रदर्शित करते हुए, संगीत की ताल के साथ, मृदंग के गंभीर निनाद के बीच, कुतूहल और रूचि को जागृत करती हुईं नृत्य-गान प्रस्तुत कर रही हैं । धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित की धीर ध्वनि गुंजायमान हो रही है । कवि देवी को इस मंगल निनाद में रत कह कर पुकारते हुए कहता है कि कु-कुथ कु-कुथ , ग ड धा आदि ताल के साथ बजते हुए संगीत से कुतूहल जगाते हुए, देवांगनाओं के ता-थेई ता-थेई करते हुए नृत्य में, तथा धु-धु-कुट की ताल और मृदंग से निकलती हुई धिमि-धिमि की गंभीर ध्वनि के निनाद में जो रत हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

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6 comments

  1. संदीप कुमार says:

    सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते
    हासविलासहुलासमयि प्रणतार्तजनेऽमितप्रेमभरे ।
    धिमिकिटधिक्कटधिकटधिमिध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
    जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

    कृपया उक्त श्लोक से मिलान कर त्रुटि को दूर करें।http://sanskritdocuments.org वेबसाइट पर अवलोकन करें।

      • संदीप कुमार says:

        इसके अन्तर्गत कोई सन्दर्भ / प्रमाण प्रस्तुत करने की कृपा करें।

        • Kiran Bhatia says:

          मान्यवर, गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक ‘देवीस्तोत्ररत्नाकर’ (कोड न.१७७४) में यह स्तोत्र मिल जायेगा । श्री शंकराचार्य द्वारा रचित यह स्तोत्र यहा‘श्रीसंकटास्तुति:’ के नाम से, पृष्ठ संख्या २३९ पर है । ध्यातव्य है कि संकटा देवी भी माँ दुर्गा का ही एक नाम है । संस्कृत भाषा में पहाड़ों की संकीर्ण घाटियाँ तथा सर्पिलाकार, दुर्गम, झालरदार मार्ग ‘संकट’ कहलाते हैं । माता के बाल्य-कैशोर्यकाल की लीलाएं पर्वतराज हिमालय की इन्हीं संकटों अर्थात् घाटियों में संपन्न हुई हैं, अतएव वे श्रीसंकटा भी कहलाती हैं ।

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