शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक २९

Shloka 29 Analysis

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नम: सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नम: ॥ २९ ॥

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नम: = नमस्कार है
नेदिष्ठाय = निकटातिनिकट (आपको)
प्रियदव = (हे) वनप्रेमी
दविष्ठाय = दूरातिदूर (आपको)
= और
नम: = नमस्कार है
नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम:
नम: = नमस्कार है
क्षोदिष्ठाय = लघु से भी लघु (लघुतम रूप आपको)
स्मरहर = (हे) कामान्तक
महिष्ठाय = महत्तम, सबसे महान्
= और
नम: = नमस्कार है
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नम: = नमस्कार है
वर्षिष्ठाय = वृद्धातिवृद्ध (आपको)
त्रिनयन = (हे) त्रिलोचन !
यविष्ठाय = युवातियुवा (आपको)
= और
नमो = नमस्कार है
नम: सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नम:
नम: = नमस्कार है
सर्वस्मै = (आप) सर्वरूप को
ते = आपको
तदिदमिति तत् + इदम् + इति
तत् = वह (परोक्ष)
इदम् = यह (अपरोक्ष)
इति = आदि
शर्वाय = (सबके अधिष्ठान) शिव को
= और
नम: = नमस्कार है

अन्वय

(हे) प्रियदव ! नेदिष्ठाय दविष्ठाय च ते नमो नम: । (हे) स्मरहर ! क्षोदिष्ठाय महिष्ठाय च (ते) नमो नम: । (हे) त्रिनयन ! वर्षिष्ठाय यविष्ठाय च (ते) नमो नम: । सर्वस्मै तत् इदम् इति शर्वाय च (ते ) नम: ।

भावार्थ

निकटातिनिकट और दूरातिदूर भासित होने वाले, हे वनप्रेमी प्रभो ! आपको बार-बार नमस्कार है । हे मदनान्तक ! परम लघु व परम महान् रूप आपको बार-बार नमस्कार है । हे त्रिलोचन ! वृद्धातिवृद्ध एवं अति युवातियुवा आपको बार-बार नमस्कार है । हे शिव ! आप ही सर्वस्व हैं, परोक्ष-अपरोक्ष सभी के अधिष्ठान हैं, आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के २९वें श्लोक में स्तोत्रगायक गन्धर्वराज पुष्पदन्त अपने आराध्य के प्रति भक्तिभाव से प्रपूरित हो कर उन्हें बार-बार प्रणाम करते हैं । मुग्ध हैं वे शिवजी की महिमा से, जो उनकी सोच से अत्यन्त आगे निकलती हुई चली जाती है इतनी कि कोई ओर-छोर नहीं उसका । कवि परस्पर विरुद्धार्थक विशेषणों के द्वारा शिवमहिमा गाते हुए स्तवन करते हैं । आराध्य के समीपातिसमीप रूप को नेदिष्ठ  तथा उसके विरोधाभासी दूरातिदूर रूप को दविष्ठ कह कर शिवनिष्ठ कवि बार-बार  नमस्कार निवेदन करते हैं । सर्वेप्रथम कवि महादेव को प्रियदव कह कर पुकारते हुए उनके निकटातिनिकट रूप को प्रणाम समर्पित करते हैं । प्रियदव का अर्थ है वन प्रिय लगते हैं, जिसको । दव से अभिप्रेत है वन, अरण्य । ‘दावानल’ या ‘दावाग्नि’ शब्द का प्रयोग प्राय: देखने को मिलता है, जिसका अर्थ है ‘जंगल में लगने वाली आग’ । शिव सृष्टि के सिरजनहार तथा पालनहार हैं, तथापि वे आत्माराम सृजन-संपालन-संहरण आदि कर्मों को करके भी उनसे निर्लिप्त तथा निरपेक्ष रहते हैं । वे अनिकेत निर्जन वनों में विचरण करने वाले वैरागी और एकान्तसेवी हैं । सघन श्यामल हरीतिमा और कंटकाकीर्ण तरु-क्षुपों-लताओं से परिवेष्टित वन वीतराग शिव की विहारस्थली हैं । अतएव कवि उन्हें प्रियदव नाम से संबोधित करते हैं तथा कहते हैं कि हे वनप्रेमी, वन-रसिक ! (शिव के तपस्वी होने के कारण इस संबोधन में औचित्य दिखाई पड़ता है ।) आप समीपातिसमीप हैं । आपको प्रणाम करता हूँ । यही तो नेदिष्ठ रूप है — समीपातिसमीप । सत्य ही है कि अपने भक्तजनों के लिये वे सदैव ही उनके मन में भासमान रहते हैं — नित्य प्रकाशित, सदावसन्तं हृदयारविन्दे… । भक्त कण-कण व क्षण-क्षण में उन नित्यविभूति के दर्शन पा सकता है । आत्मस्वरूप हैं वे अतएव समीपतम हैं  । तत्पश्चात् कवि शिवजी के दूरातिदूर रूप को नमन करके उन्हें दविष्ठ बताते  हुए कहते हैं — दविष्ठाय च नमो अर्थात् आपके दूरतम रूप को प्रणाम करता हूँ । यह पहले रूप का सर्वथा विरोधाभासी है । दूर दूर तक जो कुछ भी है, जहां पर भी है उन सब पदार्थों और स्थलों से व सब कुछ से वे जटिल जोगी नितान्त दूर हैं । स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का इस विषय में कथन दृष्टव्य है  कि “दूर दूर भी जितने पदार्थ हैं उनसे भी दूर शिव हैं, इसलिये शिव के अन्दर ही जगत् आता है ।” स्वामीजी श्रुति से उद्धरण देते हुए लिखते हैं  —

स भूमिं विश्वतो वृत्वा ह्यत्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।
इति श्रुतौ च विस्पष्ट दविष्ठत्वमुदीरितम् ॥

अर्थात् श्रुति में लिखा है कि सारे विश्व को घेर कर फिर दस अंगुल आगे तक ब्रह्म स्थित है । इस प्रकार उनका दविष्ठत्व श्रुति में स्पष्ट किया गया है । कहने  का आशय यह है कि अभक्त के लिये वे दूर से भी दूर हैं तथा उन श्रद्धाविहीन जनों के लिये कभी भी किसी भी अनुभूति के विषय वे नहीं हो सकते, उन्हें वे कभी दर्शन नहीं देते । वे प्रियदव, वे ऐकान्तिक अरण्यप्रिय तो ज्ञानगम्य हैं, भावैकगम्य हैं , अत: अज्ञ लोगों के लिये उनकी प्राप्ति का कोई उपाय कहां ? इसके विपरीत जिसने यह जान और मान लिया कि जन-जन की हृदयगुहा में उन्हीं का आलोक अवस्थित है, उसके लिये वे समीपतम हो जाते हैं । ईशावास्योपनिषद् के पाँचवें मन्त्र में कहा है तद् दूरे तद्वन्तिके (तत् दूरे तत् उ अन्तिके), अर्थात् वे दूर से भी दूर हैं तथा वे अत्यन्त समीप हैं । स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी का कथन है कि “आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक तीनों रूप जिसमें हैं या जिसमें भासते हैं, वे शिव इन रूपों से परे हैं । इसीलिए समीपातिसमीप व दूरातिदूर हैं ।” नेदिष्ठ-दविष्ठ आदि विरोधाभास से स्तुतिगायक यह स्पष्ट करते हैं कि भगवान् शिव वाणी व मन से अतीत है । यही बात इस स्तोत्र के दूसरे श्लोक में मिलती है — अतीत: पन्थानं तव च महिमा वांगमनसयो: …।  महादेव की सर्वव्यापकता व सर्वदेशीयता यहां पहली पंक्ति में पर्यलक्षित होती है ।

गन्धर्व कवि द्वारा निकटातिनिकट एवं दूरातिदूर वर्णित किये गये महादेव के लघुतम एवं महतम रूप की अभिव्यक्ति भी उतनी ही भव्य एवं भक्तिमयी है । जब महादेव की विराट छवि का ध्यान आता है तो छवि की विराटता अचिन्त्य और अनिर्वचनीय हो उठती है । जब ब्रह्मा और विष्णु ही शिव की थाह न पा सके थे (जैसा कि इस स्तोत्र के १०वें श्लोक में वर्णित है) तो किसी और की तो बात ही क्या है ?

गन्धर्वराज पुष्पदन्त स्तोत्र के द्वितीय पाद में महादेव को स्मरहर कह कर पुकारते हुए कहते हैं कि हे कामान्तक ! लघु से भी लघुतम व महान् से भी महानतम आपको मैं बार-बार प्रणाम करता हूं । महादेव मदनान्तक (मदन अन्तक) ही नहीं भवान्तक (भव अन्तक) भी हैं । मनुष्य के जनम जनम के फेरे उसकी अतृप्त कामनाओं के कारण लगते हैं और इसमें कामनाओं के अधिदेव कामदेव की भूमिका को हल्के में नहीं लिया जा सकता । कामोद्दीपक चेष्टाओं, आकर्षण व प्रेम से संसारोत्पत्ति के आश्रय वे लालस-मानस मदन ही हैं । काम अथवा कामना की अतृप्ति से क्रोध, लालसा, मद, मत्सर आदि भाव प्रश्रय पाकर मनुष्य को कर्म श्रृंखला में बाँधते हैं, फलत: पुनरपि जननं पुनरपि मरणं अर्थात् पुन: पुन: संसार में आवागमन का चक्र चलता रहता है । इस तरह स्मर का अन्त करके स्मरान्तक शिव भवचक्र का अन्त करके भवान्तक भी बनते हैं । स्मर कामदेव का एक नाम है और स्मर का जीवन हरने वाले साधुसाध्य शिव को कवि ने स्मरहर कह कर पुकारा ।

श्रुति परमात्मा की सूक्ष्मता व विराटता के विषय में कहती है— अणोरणीयान् महतो महीयान् । इसका अर्थ है कि परमात्मा अणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म तथा महान् से भी अत्यन्त महान् रूप में विराजमान हैं । इसी तरह का भाव लक्षित होता है कवि के शब्दों में जब वे कहते हैं कि क्षोदिष्ठाय नम: अर्थात् छोटे से भी छोटे, लघुतम को, हे स्मरान्तक ! मैं प्रणाम करता हूं, साथ ही महिष्ठाय च नम: कह कर बताते हैं कि जगत् में महान् से भी जो महत्तर है, और महत्तम है उसे मेरा प्रणाम है । क्योंकि अणु व महान् दोनों ही शिव हैं ।  सूक्ष्म वे इतने हैं कि वे ही सबकी आत्मा हैं, मुण्डकोपनिषद् का उनके लिये कथन है एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्य: अर्थात् यह सूक्ष्म आत्मा मन से जानने में आने वाला है । साथ ही बृहत वे इतने हैं कि उनसे बाहर कुछ बचता ही नहीं । शिव के सूक्ष्म व महान् रूप का एक और उदाहरण दृष्टव्य है । श्वेताश्वतरोपनिषद् के चतुर्थ अध्याय का १४वां मन्त्र है—

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये
विश्वस्य  स्रष्टारमनेकरूपम्  ।
विश्वस्यैकं   परिवेष्टतारं
ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥

अर्थात् सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हृदय-गुहारूप गुह्य स्थान के भीतर स्थित निखिल विश्व के रचयिता, अनेक रूप धारण करने वाले और समस्त जगत् को अकेले ही परिव्याप्त करने वाले (घेर कर रखने वाले शिव को जानकर (साक्षात्कार करके) मनुष्य शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है । इस तरह यह लक्षित होता है कि धरा का क्षुद्रतम कण शिव ही हैं और ऊपर नीलिमाच्छादित अपरिमेय आकाश भी वे ही हैं । और दोनों के बीच जो कुछ भी और जैसा कुछ भी है, वह शिव से अभिन्न है । यहां यह सन्देश भी निहित है कि किसी के भी प्रति क्षुद्र या महत् दृष्टि रखना अनुचित है । केवल अनन्त-तत्व ही वरेण्य है । प्रथम पाद में शिवजी की सर्वदेशीयता स्पष्ट की तथा द्वितीय पाद में उनकी सर्वात्मरूपता रेखांकित की ।

स्तोत्र के तृतीय पाद में कवि महादेव को त्रिनयन अर्थात् त्रिलोचन कह कर पुकारते हैं । त्रिवेदीचक्षुषे तस्मै त्रिनेत्राय नमो नम: अर्थात् तीन वेद जिनके तीन नेत्र हैं उन (शंकर) को नमस्कार है । गन्धर्व कवि नमो वर्षिष्ठाय कह कर शिव के वृद्धतम रूप को तथा यविष्ठाय च नमो कह कर युवातियुवा रूप को प्रणाम अर्पित करते हैं । शिवजी के ये पुरातनतम व नवीनतम  रूप हैं । शिव सृष्टि रचयिता पितामह ब्रह्मा के भी जनक होने से वृद्धतम  हैं । उनका एक नाम ब्रह्मगर्भ भी है और इस नाम का अर्थ है कि ‘ब्रह्मा जिनके गर्भस्थ शिशु के समान हैं’ । इस तरह शिव वृद्धतम हुए । कवि ने साथ ही उन्हें सर्वाधिक युवा भी बताया । वस्तुत: महादेव काल के नियन्ता हैं, जिन्हें काल नहीं व्यापता । हर विगत, अनागत व नवागत क्षण महाकाल से पूर्णतया व्याप्त है । इसीको स्पष्ट करता हुआ उनका एक नाम सद्योजात: भी है, जिसका उल्लेख शिवसहस्रनाम में आता है । ‘सद्यः’ कहते हैं तरोताज़ा को और ‘जात’ से अभिप्रेत है जन्मा हुआ । श्वेताश्वतरोपनिषद् के चौथे अध्याय के तीसरे मन्त्र के अनुसार वे ही स्त्री, पुरुष, कुमार, कुमारी आदि अनेक रूपोंवाले हैं । वे ही बूढ़े हो कर लाठी के सहारे चलते हैं ।  स्वामी काशिकानन्द गिरिजी का कहना है कि यही तो काल की लीला है। नूतन को जीर्ण करता है । जीर्ण को नूतन नहीं करता । हाँ, एक परमेश्वर को वह जीर्ण नहीं करता, यदि करता है तो नूतन करता है । परमेश्वर पुराण है । अर्थात् पुराभव भी नवीन है । (पुरा पुराभवोऽपि नवीन) परमेश्वर काल के लपेटे में नहीं आता ।  इस तरह श्लोक के तृतीय पाद अर्थात् तीसरी पंक्ति में ‘लोचन भाल बिसाल’ महादेव का काल-नियन्ता रूप आलोकित होता है ।

श्लोक के अन्त में कवि कहते हैं — नम: सर्वस्मै ते अर्थात् आपको मैं नमस्कार करता हूं जो सर्वरूप-सर्वस्व हैं । साथ ही वे कहते हैं कि संसार में तदिदमिति (तत् इदम् इति) अर्थात् ‘यह-वह’ आदि सभी रूपों में विलसित होने वाले भगवान शर्व को मेरा प्रणाम है । तत् अपने गूढ़ अर्थ में ब्रह्म का द्योतक है और इदम् प्रपंचमय दृश्य-जगत् का । अतएव यहां यह विवक्षित है कि ब्रह्मस्वरूप को व प्रपंच से भरे इस जगत् के स्वरूप में आपको हे शर्व ! बार-बार प्रणाम है । एक ही परम शिव के ये परोक्ष व अपरोक्ष रूप हैं । भक्त-अभक्त की भावनानुसार वे दूर-समीप, लघु-विराट् व वृद्ध-युवा रूपों में भासमान होते हैं । सभी रूपाकारों में व सर्व विभूतियों में प्रतिभात वे ही होते हैं, इस सत्य को श्रद्धावान् व ज्ञानवान भलीभांति समझता है ।

इस श्लोक में महादेव की अनिर्वचनीय महिमा को विरोधाभसोक्ति द्वारा सप्रणाम बार-बार बता कर मुग्ध स्तोत्रकार ने अपने कथ्य की सम्प्रेषणीयता को धार दी है । वे चन्द्रमौलि के जिस किसी भी रूप का चिन्तन करते हैं, उसके विरोधाभासी रूप के साथ भी वही भव्यता व भावगम्यता गुम्फित रहती है । नमन-तन्मय स्तुतिकार समर्पण की गंगा में बार-बार डुबकी लगाते हुए अघाते नहीं हैं ।

श्लोक २८ अनुक्रमणिका श्लोक ३०

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