शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ३५

Shloka 35 Analysis

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम् ॥ ३५ ॥

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति:
महेशान्नापरो महेशात् + न + अपर:
महेशात् = भगवान् महेश से
अपर: = (बढ़ कर) और कोई
= नहीं (है)
देव: = देवता
महिम्न: = महिम्न (से बढ़ कर)
न अपरा = नहीं (है) अन्य कोई
स्तुति: = स्तोत्र
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम्
अघोरान्नापरो अघोरात् + न + अपर:
अघोरात् = अघोर (मन्त्र) से (बढ़ कर)
अपर: = और कोई
मन्त्र: = मन्त्र
= नहीं (है)
नास्ति न + अस्ति
= नहीं
अस्ति = है
तत्त्वम् = (कोई भी) तत्त्व
गुरो: = गुरु से
परम् = श्रेष्ठ, परे

अन्वय

महेशात् अपर: देव: न (अस्ति), महिम्न: अपरा स्तुति: (अस्ति), न अघोरात् अपर: मन्त्र: न (अस्ति) गुरो: परम् तत्त्वम् न अस्ति ।

भावार्थ

भगवान् महेश से बढ़ कर और कोई देवता नहीं है । महिम्न से बढ़ कर दूसरी कोई स्तुति नहीं है । अघोर मन्त्र से बढ़ कर और कोई मन्त्र नहीं तथा श्रीगुरु से श्रेष्ठ (परे) कोई तत्त्व नहीं है ।

व्याख्या

प्रस्तुत श्लोक में गन्धर्वाधिपति पुष्पदन्त अपने आराध्य भगवान् शिव की स्तुति करते हुए उनकी उत्कृष्टता को रेखांकित करते हैं । साथ ही यह श्लोक महिम्न:स्तोत्र, अघोर मन्त्र तथा गुरु तत्त्व की श्रेष्ठता को भी निरूपित करता है ।

स्तोत्रकार का कथन है कि भगवान महेश से बढ़ कर और कोई देवता नहीं है — महेशान्नापरो देवो । वे महेश्वर ही हैं, जो कालकूट विष को अपने कण्ठ में रख कर अपने आश्रितों को अमृत पिलाते हैं, जो स्वयं दिगम्बर रह कर अन्य को दिव्याम्बर देते हैं । समस्त विद्याओं के प्रथमाचार्य हो कर भी वे डमरुपाणि निपट भोले हैं । वे माया के उस श्मशान में रहते हैं, जहां जगत् का मोह जल जाता है ।  श्मशाननिलय: (श्मशानवासी) होकर भी वे वरद विभु लोकोत्तर संपदा अपने भक्तों को प्रदान करते हैं । शिवजी के समान कोई देव आशुतोष व अवढरदानी नहीं है । उनसे उत्तम कोई देव इसलिये भी नहीं कि देवाधिदेव हो कर भी वे साधारण मनुष्य के सदृश लीला भी करते हैं । संसार के कर्ता, भर्ता-संहर्ता और परिशुद्ध ब्रह्म शिव ही हैं । अपने से उत्पन्न जगत् को स्थिरता देते हुए भी उसके पापलिप्त व दुर्गन्धित-गलित हो जाने पर उसका संहार करते हैं । विद्वान लेखक सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ के शब्दों में कहें तो कूड़े को हटा कर वे नूतन सृष्टि को अवकाश देते हैं । शिव-सहस्रनाम में उनका एक नाम है अनुत्तर:, जिसका खड़ी बोली में अर्थ है लाजवाब । उनकी अनिर्वचनीय महिमा को वर्णित करने का प्रयास किया गया है कवि पुष्पदन्त द्वारा शिवमहिम्न:स्तोत्रम् में, जिसके आरम्भ में ही उन्होंने कह दिया है कि ब्रह्मा आदि देवों की वाणी भी शिवमहिमा को व्यक्त करने में असमर्थ है तो अपनी-अपनी मति के अनुसार स्तुति करने वाले प्रत्येक जन का प्रयास भी अयोग्य नहीं कहा जा सकता है अथावाच्य: सर्व: । तात्पर्य यह है कि शिव दुर्विज्ञेय हैं । उनके समान कोई नहीं है । उन कल्याणगुणनामा का नाम ही शिव अर्थात् शुभ है ।

महादेव की स्तुति के विषय में स्तोत्रकार कहते हैं कि महिम्न:स्तोत्र से बढ़ कर और कोई स्तुति भगवान् शिव की नहीं है—महिम्नो नापरा स्तुति: । भगवान् शिव का कोपभाजन बने गन्धर्वराज पुष्पदन्त ने कातर होकर इन विनय भरे शब्दों में अपने आराध्य भगवान् शिव की स्तुति करके उन करुणामय की कृपा प्राप्त की थी ।

वस्तुत: शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के साथ एक कथा जुड़ी है , जिसे पाठक दो शब्द शीर्षक के अन्तर्गत दी गई प्रस्तावना में पढ़ सकते हैं । अति संक्षेप में यह कथा इस प्रकार है । गन्धर्वराज पुष्पदन्त (जो शिवजी के गण अथवा सेवक हैं) अदृश्य रहते हुए आकाशमार्ग से कैलाश जाते समय अपने आराध्य महादेव की अर्चा हेतु शिवभक्त राजा चित्ररथ के रमणीय उद्यान से रात्रिकाल में पुष्पचयन कर लेते थे, जिससे राजा को उत्तम पुष्प पूजा के लिये लब्ध नहीं होते थे । कई दिनों तक जब पुष्प ले जाने वाले का सन्धान न मिला, तब राजा के चतुर मन्त्री ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि कोई मनुष्येतर दिव्य योनि का पुरुष ही आकाश से उतर कर पुष्प ले जाता है । अत: मन्त्री के परामर्श पर राजा ने उद्यान में शिव-निर्माल्य अर्थात् शिवजी पर चढ़े हुए बिल्वपत्र उपवन में चारों ओर सघनता से बिछवा दिये क्योंकि शिव-निर्माल्य का उल्लंघन करने पर तो दिव्य शक्ति का अपनेआप नष्ट होना निश्चित है । और हुआ भी वही । उपवन-पथ पर पावन बेलपत्रों की बिछावन से अनभिज्ञ गन्धर्व द्वारा शिव-निर्माल्य का उल्लंघन हो गया और वे पृथ्वी पर आ गये । वस्तुत: बिल्ववृक्ष महादेवस्वरूप है और देवों द्वारा इसकी स्तुति की गई है । बेलपत्र अपार महिमा से युक्त होते हैं । त्रिदल बिल्वपत्र त्रिपुरारी को अति प्रिय हैं । अनजाने में ही सही पर पाप तो गन्धर्व से यह हो ही गया था । फलत: वे शिव के रोष-भाजन बने व गन्धर्व-पद से भ्रष्ट हो गये। उनकी अदृश्य रहने की शक्ति तथा अन्य दिव्य शक्तियाँ भी लुप्त हो गईं । स्वयं से हुए अपराध से संतप्त व व्याकुल गन्धर्व ने आर्त्त स्वर  में अपने आराध्य की स्तुति की व उनसे क्षमा पायी । महिम्न स्तोत्र उनके द्वारा की गई उसी स्तुति का नाम है । आर्त्त भक्त की स्तुति सुन कर भगवान् शिव प्रकट हुए व उन्होंने गन्धर्वराज को उनकी दिव्य शक्तियां एवं गन्धर्वपद  पुन: प्रदान किया । साथ ही यह भी वरदान दिया कि “तुम्हारे द्वारा की गई यह स्तुति अब सिद्ध स्तुति हो गयी । इससे जो मेरा स्तवन करेगा, वह मेरा प्रिय होगा ।”  इसीलिये गन्धर्व कवि ने कहा है कि महिम्नो नापरा स्तुति: । आगे के श्लोकों में भी वे कहते हैं कि इसे पढ़ने वाला महादेव के समीप जाता है, उनका प्रीतिभाजन बनता है । तात्पर्य यह कि और किसी शिवस्तुति का महत्व महादेव की वरदान-प्राप्त इस महिम्न स्तुति से बढ़ कर नहीं है ।

मन्त्रों के संबंध में गन्धर्व कवि कहते हैं कि अघोरान्नापरो मन्त्रो अर्थात् अघोर से बढ़ कर कोई और मन्त्र नहीं  है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में भगवान् शिव के संबंध में अघोर शब्द का प्रयोग मिलता है—

या  ते  रुद्र   शिवा   तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि  ॥
श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/५

अर्थात् हे पर्वत पर वास करने वाले रुद्रदेव ! आपका जो कल्याणकारी, सौम्य व पुण्य से प्रकाशमान रूप है, आप उसी परम शान्त रूप से रूप से, कृपामय रूप से हम लोगों को देखें । यहां शिव को अघोर (अ+घोर)  कहने से तात्पर्य है वह, जो घोर नहीं है अर्थात् सौम्य व सुखरूप । कालान्तर में कुछ लोगों द्वारा अघोर नाम से अघोरपंथ चल पड़ा । हिन्दी साहित्य कोश अघोरपंथ के विषय में कहता है कि ईरान देश में भी पुराने समय में इस प्रकार के एक सम्प्रदाय के साधक रहते थे । वर्तमान रूप में इस पंथ के सिद्धांतों का संबंध गोरखपंथ तथा तन्त्रप्रधान शैवमत से है । इस ग्रन्थ के अनुसार अघोरपंथ का जनसाधारण में प्रचलित नाम औघड़ पंथ है  व अवधूत मत भी है । अघोर शब्द की प्राचीनता  व उससे प्रकाशित अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए प्रतीत होता है कि शिवमहिम्न:स्तोत्रम् में संकेतित अघोर मन्त्र का संबंध सौम्य-सुखकर रूपधारी शिव की प्रसन्नता से होगा, न कि बाद में बनने वाले व वर्तमान में प्रचलित अघोरपंथ के भयावहरूपधारी शिव से । आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार आज तो तन्त्र में तन्त्र-विज्ञान का बिगड़ा हुआ बीभत्स व कामना-दंशित रूप ही मिलता है । अतएव पुष्पदन्ताचार्य से संकेतित अघोर मन्त्र, बहुत सम्भव है कि उनका परम्पराप्राप्त मन्त्र हो । अथवा लोककल्याणार्थ यह  शिव का प्रचलित मन्त्र हो और क्योंकि अघोर शिव का ही नाम है, अत: यह अघोरमन्त्र कहा जाता हो । नाम-साम्य के कारण से ही केवल अब के प्रचलित अघोर पंथ के मत व मन्त्र से जोड़ना भ्रामक हो सकता है । हमें इसकी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त नहीं है ।

स्तोत्रकार आगे गुरुतत्त्व की निर्विवाद सत्ता व महत्ता को प्रकाशित करते हैं । गन्धर्व कवि के कथनानुसार नास्ति तत्त्वं गुरो: परम् अर्थात् गुरु से परे अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है । वस्तुत: गुरु शब्द का अर्थ है, अन्धकार का नाश करने वाला, प्रकारान्तर से अविद्या के अन्धकार को दूर करने वाला । गुरु ज्ञानदाता है । उपनिषद का कहना है कि समस्त देहों में स्थित चैतन्य ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाला गुरु ही हैं और वह ही उपास्य है—

उपास्य इति च सर्वशरीरस्थचैतन्यप्रापको गुरुरुपास्य: ॥
(निरालम्बोपनिषद् मन्त्र ३०)

विद्वान लेखक श्री सुदर्शनसिंह ‘चक्र’ ने गुरुतत्त्व को अपनी पुस्तक शिवचरित में समझाते हुए कहा है कि …जैसे अनेक मन्दिरों में अनेक शिवलिंग हैं—छोटे-बड़े, श्वेत-कृष्ण, पतले-मोटे कई प्रकार के, किन्तु इनसे शिव अनेक नहीं हैं, एक ही हैं, इसी प्रकार सृष्टि के आदि से अब तक और आगे भी जो प्राणियों के विभिन्न मानव-गुरु हैं, हुए हैं और होंगे, वस्तुत: वे जो विश्वैक गुरु हैं उन परम गुरु की मूर्त्ति मात्र हैं । सारांश में वे  कहते हैं कि गुरुतत्त्व—परमगुरु एक ही है  लेखक का मानना है कि जीव अर्थात् व्यष्टि शरीर से परिसीमित जीव किसी का गुरु नहीं हो सकता । स्वयं जो अविद्या के अन्धकार में भटक रहा है, वह दूसरे को इस अन्धकार से पार होने का पथ कैसे दिखायेगा ?  देहाभिमान के सर्वथा गलित होने पर, देहासक्ति के समूल उखड़ जाने पर ही अविद्या की निवृत्ति मानी जाती है । यही वह अवस्था है जब देह दिखाई तो देती है परन्तु देह के माध्यम से प्रकाशित होने वाला पुरुष व्यक्ति न होकर परम तत्त्व ही होता है । एक नित्यशुद्ध, निश्चल, समस्त बुद्धियों का साक्षी और त्रिगुणरहित व्यक्ति भला क्या एक व्यक्ति मात्र ही  होगा ? अर्थात् नहीं होगा । ऐसा व्यक्ति ब्रह्म से एकाकारिता साधे हुए होता है  गुरु को नित्य कहते हैं, क्योंकि वे नित्य निज शिष्य के साथ ही होते हैं । उनके स्थूल देह के न रहने पर भी वे नित्य साथ हैं । गुरुनिष्ठ-शिष्य के अन्तर में रहकर गुरु उसके साधन-देह का संरक्षण-पोषण करते रहते हैं । वे तो जन्मान्तर में भी शिष्य के साथ ही रहते हैं और उसे परमपद तक पहुंचाते हैं ।

श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिता में  ब्रह्माजी व शिवजी के बीच जीवों की सृष्टि को लेकर होने वाली वार्ता का वर्णन है, जिसमें ब्रह्माजी महारुद्र से मरणधर्मा जीवों की उत्त्पत्ति करने की प्रार्थना करते हैं । तब महादेव उनसे कहते हैं कि मैं यह न करके गुरु का स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदान कर दु:ख सागर में डूबे व मृत्युभय से युक्त जीवों का उद्धारमात्र करूँगा, उन्हें पार करूंगा । शिव प्राणिमात्र के परमगुरु हैं, जगत् के आदिगुरु हैं ।

इस प्रकार गन्धर्व कवि ने महिम्न स्तुति और अघोर मन्त्र की उत्कृष्टता को यहां आलोकित करने के अलावा अनादि काल से भारतवर्ष में चली आती हुई गुरु तत्व की गरिमा का गान किया है तथा गुरु को सबसे श्रेष्ठ बताया है । इस विषय में गोस्वामी तुलसीदास का कथन दृष्टव्य है—

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जो विरंचि संकर सम होई   ॥
श्लोक ३४ अनुक्रमणिका श्लोक ३६

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