शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक ८

Shloka 8 Analysis

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धि दधति तु भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।। ८ ।।

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः
महोक्षः = महावृषभ, महाकाय बैल, बूढ़ा बैल
खट्वांगं = सोटा या लकड़ी, जिसके सिरे पर खोपड़ी जड़ी हो (यह शिवजी का आयुध माना जाता है।)
परशुरजिनम् = परशुः + अजिनम्
परशुः = कुठार, फरसा
अजिनम् = बाघाम्बर
परशुरजिनम् = कुठार तथा बाघाम्बर
भस्म = चिता की राख
फणिनः = सर्प
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्
कपालं = खोपड़ी, खप्पर, भिक्षुक का कटोरा
चेतीयत्तव = च + इति + इयत् + तव
= तथा
इति = बस (मात्र)
इयत् = इतने (ही)
तव = आपके
वरद = (हे) वरदायी !
तन्त्रोपकरणम् = तन्त्र + उपकरणम्
तन्त्र = निर्वाह करना, उपयोग में लाना
उपकरणम् = साधन, सामग्री
तन्त्रोपकरणम् = उपयोग में लाये जाने वाले साधन
सुरास्तां तामृद्धि दधति तु भवद्भ्रूप्रणिहितां
सुरास्तां = सुराः + ताम्
सुराः = देवगण
ताम् = उसको
सुरास्तां = देवता उस (को)
तामृद्धिं = ताम् + ऋद्धिम्
ताम् = उस
ऋद्धिम् = समृद्धि को, भोगों की प्रचुरता को
तामृद्धिं = उस (उस) समृद्धि को
दधति = भोगते हैं, धारण करते हैं
तु = हि
भवद्भ्रूप्रणिहितां = भवद् + भ्रू + प्रणिहिताम
भवद् = आपकी
भ्रू = भौहों (के), कृपा – कटाक्ष (से)
प्रणिहिताम् = प्राप्त की गई
भवद्भ्रूप्रणिहितां = आपके कृपा – कटाक्ष से प्राप्त (प्रचुर भोगों को)
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति
= नहीं
हि = क्योंकि
स्वात्मारामं = स्व + आत्मारामम्
स्व = अपनी (स्वरूपभूत)
आत्मारामम् = आत्मा में रमण करने वाले को
स्वात्मारामं = अपनी स्वरूपभूत आत्मा में रमने वाले को
विषयमृगतृष्णा = विषय + मृगतृष्णा
विषय = भोग, ऐन्द्रिय सुख
मृगतृष्णा = मृगमरीचिका, भ्रामक अनुभूति
विषयमृगतृष्णा = ऐन्द्रिय सुखों की छलावा देने वाली अनुभूति
भ्रमयति = भरमाती है अथवा भटकाती है

अन्वय

(हे) वरद महोक्षः खट्वांगं परशु: अजिनं भस्म फणिनः च कपालं इति इयत् तव तन्त्र उपकरणं भवद् भ्रूप्रणिहितां हि ताम् ताम् ऋद्धिम् सुराः दधति हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा न भ्रमयति ।

भावार्थ

हे वरदायी (प्रभो) ! (एक) महाकाय बैल, (एक) सोटा, कुठार, बाघाम्बर, चिता की राख, सर्प और खप्पर बस इतने ही आपके जीवन निर्वाह के साधन हैं । (जबकि) आपकी कृपा – कटाक्ष से जो प्राप्त हुईँ हैं, उन उन विभूतियों को देवता धारण करते हैं । (किन्तु आप तपोलिप्त उनका भोग नही करते) क्योंकि ऐन्द्रिय सुखों की मृगमरीचिका अपने स्वस्वरूप में स्थित आपको नहीं भरमाती है ।

व्याख्या

शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के आठवें श्लोक में गन्धर्वराज पुष्पदन्त भगवान् शिव के वैरागी तथा वरद रूप की महिमा गाते हुए कहते हैं कि वरप्रदाता प्रभो ! इन्द्रादिक देवताओं को प्रचुर भोगों की जो विलक्षण विभूति प्राप्त है, वह तो आपके भ्रू के केवल एक संकेत से ही उनके निकट प्रस्तुत हो गई है । आपके एक कृपा-कटाक्ष ने , वरदान ने उन्हें अनन्य ऐश्वर्य का स्वामी बना दिया । किन्तु सुरों द्वारा भोगे जाने वाली स्वर्ग की इस अकूत संपदा व संपन्नता के अजस्र स्रोत होते हुए भी आप स्वयं इसका लेशमात्र भी अपने उपयोग में नहीं लाते हैं । आप बमभोलेनाथ तो बस अत्यल्प उपकरणों से ही अपना जीवन- यापन करते हैं ।

सम्पूर्ण भगवत्ता से संपन्न तथापि सरल स्वरूप अपने आराध्य आशुतोष के जीवनोपयोगी साधनों का विवरण देते हुए गन्धर्वराज बताते हैं कि उनके साधन बड़े विलक्षण है । अपनी सवारी के हेतु से शिवजी ने महोक्ष को, महाकाल बैल को धन्य किया है अर्थात् उनके वाहन महावृषभ हैं । इन महाकाय बैल का नाम नन्दी है । नन्दी का एक सरल नाम नादिया भी है । इन्हें बूढ़े बैल के रूप में भी देखा जाता है । नन्दी धर्मस्वरूप नहीं अपितु मूर्तिमान् धर्म ही हैं । और धर्म को श्रुति ने चार पैरों वाला प्राणी कहा है — धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । महादेव द्वारा वृषभ की सवारी करना इस सत्य को निरूपित करता है कि यह चारों इनके अधीन हैं ।  अत: वृषभ को शम्भु ने अपनी ध्वजा में स्थान दिया है, जिससे वे वृषांक, वृषवाहन व वृषभध्वज भी कहलाते हैं । यहां पर धूर्जटि के साधनों की न्यूनता बताई जा रही है कि इनका वाहन गज, गरुड़ या हंस न होकर एक बड़ा-सा, बूढ़ा-सा बैल है, जिसमें न सौन्दर्य है न चपलता, और न गति है न गरिमा । शिवजी को गो-वंश प्रिय है , अत: वृषभ भी प्रिय है ।

खट्वांग भगवान भोलेनाथ का दूसरा जीवनोपयोगी साधन है । शैवागम मैं इनके बारे में बताया गया है कि हथियार के रूप में शम्भु के पास एक सोटा है, जिसके सिरे पर खोपड़ी जड़ी होती है । इसे जोगी, सन्यासी लोग धारण करते हैं । इसी को खट्वांग कहते हैं , जिसका शाब्दिक अर्थ खाट का पाया‘ है । परशु शब्द कुठार तथा फरसा के अर्थ में प्रयुक्त होता है । यह भी शिवजी का आयुध है और उनकी सम्पदा का एक भाग है । कुठार का सांकेतिक अर्थ है संसार रूपी वृक्ष के लिए महादेव का कुठार – स्वरूप होना ।

पहनने के प्रयोजन से पुरारि व्याघ्रचर्म अर्थात् बाघाम्बर को धारण करते हैं । इसके लिये यहां अजिनम्  शब्द का प्रयोग हुआ है । अजिनम् का कोशगत अर्थ है – बाघ, सिंह या हाथी आदि की, विशेषकर काले हिरन की रोयेंदार खाल, जिसके आसन बनते हैं या जो पहनने के काम आती है । हिरन चंचलता का, हाथी अभिमान का तथा बाघ हिंसा का प्रतीक है । इन्हें धारण करने से इस प्रतीकार्थ का बोध होता है कि योगपरायण प्रभु ने इन वृत्तियों को अपने अधीन कर रखा है । मृगचर्म बिछा कर उस पर वे आसीन होते हैं । अधिकांशतः महादेव बाघचर्म धारण किये हुए चित्रित किये जाते हैं । एक उदाहरण यहां गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित रुद्राष्टकम् से दिया जा रहा है , जिसमें उन्हें मृगाधीशचर्माम्बरम्  कह कर पुकारा जाता है ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ।। ४ ।।

मृगाधीश यानि सिंह और उसके चर्म का अम्बर अर्थात् वस्त्र, परिधान । कुल मिलाकर अर्थ हुआ, सिंह या बाघ के चर्म का परिधान । वस्त्र के नाम पर अजिनम् उनकी पावन देह का आच्छादन है ।

भगवान शिव के अल्प साधनों में जिस एक और साधन की गणना की गई है, वह है भस्म । वे चिता की राख प्रयुक्त करते हैं । भस्म से जगत् की निस्सारता का बोध होता है । चिता की भस्म को भगवान् भूतभावन अपनी पावन देह पर धारण करते हैं । यह उनके श्रीअंगों का लेप है । अतः इन्हें भूति – विभूषण व भस्मांगराग भी कहा जाता है । नीचे शैवागम से एक उदाहरण दिया जा रहा है –

चंद्रावतंसो जटिलस्त्रिणेत्रो भस्मपाण्डरः ।
अर्थात् चंद्रभूषण , जटाधारी , त्रिनेत्र , भस्मोज्ज्वल ।

इन सभी नामों में इनका रूप वर्णित है । भस्म पाण्डर अर्थात् भस्म के लेप से उज्जवल देह वाले । पाण्डर का अर्थ है धवल, उज्ज्वल, श्वेत । चमेली के पुष्प को भी पाण्डर कहते हैं । भस्म का प्रयोग उनके वीतराग होने का परिचायक है । सृष्टि के संहारक वे देखने में तो दुःख रूप हैं, परन्तु वास्तव में संसार को मिटा कर परमात्मा में एकीभाव कराना उन गुणनिलय भगवान का सुखरूप है ।

तत्पश्चात् शिवजी सर्प से तथा सर्प शिवजी से इस प्रकार जुड़े हुए हैं मानों सर्प उनके अंग हों । व्यघ्रचर्म यदि उनका आभरण है तो सर्प उनके आभूषण हैं । भुजंगभूषण, नागेन्द्रहार आदि अनेक सर्प-सूचक संज्ञाओं से उन्हें अभिहित किया जाता है ।
शैवागम से एक श्लोक प्रस्तुत है –

आशीविषाहारकृते देवौघप्रणतांघ्रये ।
पिनाकांकितहस्ताय हरायास्तु नमस्कृतिः ।।

आशीविषः का अर्थ है सर्प, आशीविषः का हार धारण करने के हेतु उनका एक पर्याय है आशीविषाहरकृतः । यही नहीं सर्प भी उनकी संज्ञा से संवलित होकर शिव-भूषण कहलाते हैं । इस प्रकार देखा जा सकता है कि अलंकरण के नाम पर भगवान धूर्जटि सर्पों को धारण करते हैं । यहां यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि महादेव की ग्रीवा से लटकता हुआ सर्प शैव-ग्रंथों के अनुसार वस्तुतः सर्पराज वासुकि हैं । सर्पराज वासुकि ने अपनी अनन्य भक्ति से इन्हें प्रसन्न कर लिया था और इनसे शिव-सान्निध्य का वरदान प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप भुजंगराज वासुकि भगवान शिव के कण्ठहार बने । इस प्रकार शिवजी की ग्रीवा में वासुकि नाग शोभा पाते हैं ।

अंत में एक और साधन का नाम इस श्लोक में दिया गया है , वह है कपालम्, जिसका कोशगत (शब्दकोश में दिया गया अर्थ) अर्थ है खोपड़ी, टूटे बर्तन का खण्ड, भिक्षुक का कटोरा, प्याला, बर्तन । यह शिवजी के उनके व्यवहारोपयोगी जो अल्प साधन हैं , उनमें गिना जाता है । खर्पर , जिसका अर्थ भी खोपड़ी या खप्पर है , उसे भगवान भूतनाथ कटोरे के रूप में प्रयुक्त करते हैं । कपालपाणि , कपालमाली , कपाली शिवजी के कुछ कपाल – संबंधी नाम हैं । भगवान शिव के संहारक रूप को रूद्र कहा जाता है, जिसकी उपाधियां अनंत हैं । एकादश रुद्रों की कथा महाभारत व पुराणों में वर्णित है । इनमें ऐसी कथा आती है कि इन्होंने एक बार ब्रह्माजी को दण्ड देने के लिए उनका पांचवां मस्तक काट लिया था । कपाल धारण करने के कारण ही दसवें रूद्र को कपाली कहा जाता है । इसी रूप में इन्होंने दक्ष-यज्ञ का विध्वंस किया था । अस्तु , खप्पर भी उनके साधनों की अल्पता को दर्शाता है व भौतिक पदार्थों के प्रति उनके अनासक्ति-भाव को भी ।

आगे गंधर्वराज अपने आराध्य के लिए कहते हैं कि बस इतने कम साधन शिवजी बरतते हैं । केवल इतनी – सी साधन-संपत्ति वे अपने जीवन-निर्वाह के लिए रखते हैं । किन्तु कितनी विचित्र बात है कि यही बैल की सवारी वाले, बाघाम्बर व सर्प धारण करने वाले, चिताभस्म व खप्पर बरतने वाले सदाशिव की भगवत्ता वर्णनातीत है । दिव्यैश्वर्यमयी विभूतियों के स्वामी इन्द्रादिक देवता स्वर्ग-राज्य के विपुल भोग व अलौकिक संपत्ति-संभार को इनके द्वारा प्रदत्त वरदान से प्राप्त करते हैं तथा उस उस समृद्धि को भोगते हैं जो इनकी कृपादृष्टि के एक संकेत मात्र से उन्हें लब्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि देवताओं द्वारा अभिलषित अलौकिक विभूतियां व भोगैश्वर्य , उनके दिव्य वपु और वसु एवं स्वर्ग की समस्त सुख- संपदा तो महादेव की भृकुटि के एक कटाक्ष भर से उन्हें मिल जाती हैं, जिसके लिये विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्  प्रभु को कोई साधन नहीं करना होता । वे स्वयं अपने लिये कुछ नहीं रखते । अवढरदानी शिव उत्तमोत्तम वरों के दाता हैं । इसलिये प्रस्तुत श्लोक में उन्हें वरद कह कर संबोधित किया गया है । प्रसन्न होने पर मुक्तहस्त से वर लुटाना उनकी प्रकृति है, जिससे कभी कभी वे स्वयं भी संकट में आ जाते हैं । भस्मासुर की कथा कोई शिव-भक्त कैसे भूल सकता है ?

सृष्टि के निखिलैश्वर्य के स्वामी भगवान भोलेनाथ स्वयं अपनी विभूतियों का भोग नहीं करते हैं । वे योगेश्वर भूतभर्तरि होकर भी निस्पृह व दिगम्बर रहते हैं । प्राणियों को वांछित विषयभोग देकर भी वे निर्विषय हैं । तपोलिप्त, वशीकृतचित्त, उत्कट योगी वे अपनी आत्मा में रमण करते हैं । अपने वास्तविक निज स्वरूप में तन्मय होकर समाधि में लीन रहते हैं अपनी आत्मा में रमे रहने के कारण उन्हें स्वात्माराम कहते हुए स्तोत्रकार कहते हैं कि वे सकल संपदा के स्रोत होकर भी उसका लेशमात्र भी भोग नहीं करते क्योंकि ऐन्द्रिय सुखों एवं विषय-वासनाओं में अनासक्त और तद्जन्य उद्वेगों के आघातों से अलिप्त जितेन्द्रियजन को विषयों के आकर्षण कभी लुब्ध नहीं कर सकते, भ्रमित नहीं कर सकते । अहर्निश अपने स्वरूपभूत आत्मा में रमण करने वाले आपको को भोग्य पदार्थों से प्राप्त होने वाले रूप रस गंध शब्द स्पर्श रुपी विषयों की मृगतृष्णा अपनी ओर आकर्षित नहीं करती । शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में लिखा है कि “कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वश में हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता है ।”

दृढमनस्क, स्थिरमना शिव आत्मसंपन्न व स्वात्माराम हैं । आत्माराम का अर्थ है अपनी आत्मा में रमण करने वाला आत्मजित्, आत्मनिष्ठ व्यक्ति । आत्माराम वह है जो पूर्णकाम, आप्तकाम है, जो लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणासे व सब प्रकार की एषणाओं से विनिर्मुक्त है । भगवान धूर्जटी समाधि में लीन रहते हैं । उन्हें विवश कर सके ऐसा कोई विषय नहीं, कोई प्रलोभन नहीं । विषय का अर्थ है ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त आनन्द, वासनात्मक पदार्थ व उनके भोग । और अनित्य पदार्थों से सुख मिलने की प्रवंचना (धोखा) को कहते हैं मृगतृष्णा । यह छलावा मृगमरीचिका अथवा मृगजल भी कहलाता है । वन वन विचरता मृग जब तृषा (प्यास) से व्याकुल हो जाता है, तब उस निरीह जीव को कुछ दूरी पर (सूर्य-प्रकाश के कारण) जल के दिखने का आभास होता है, जिसे सत्य मान कर वह जल पीने के हेतु दौड़ता है व वह झूठी प्रतीति उसे सतत भटकाती रहती है । अतएव सुखप्राप्ति की इस छलना को मृगजल की संज्ञा दी गई है । इसी प्रकार अनित्य पदार्थों से सुख-शान्ति की आशा, निराशा और अतृप्ति की जननी होती है तथा अज्ञ जीव को विषय-वासनाओं के कंटक-कानन में भटकाती रहती है । लेकिन सर्वेश्वरेश्वर त्रिलोकीनाथ सकल निधियों के सर्वोपरि स्रोत होकर भी इनके अविषय बने रहते हैं तथा वीतराग होकर अपने मूलभूत स्वरूप में स्थित रहते हैं । और आत्माराम को मृगतृष्णा भ्रमित नहीं कर सकती है । इस तरह वरद शिव वीतराग हैं ।

श्लोक ७ अनुक्रमणिका श्लोक ९

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