महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक १

Shloka 1

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूतिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
अयि = हे
गिरिनन्दिनि = पर्वतपुत्री
नन्दितमेदिनि नन्दित + मेदिनि
नन्दित = आनन्दित करने वाली
मेदिनि = पृथ्वी को
विश्वविनोदिनि विश्व + विनोदिनि
विश्व = संसार
विनोदिनि = मुदित रखने वाली
नन्दिनुते नन्दि + नुते
नन्दि = शिवजी का बैल
नुते = स्तुत, पूजित
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि गिरिवर + विन्ध्य + शिर: + अधिनिवासिनि
गिरिवर = उत्तम पर्वत, सुन्दर पर्वत
विन्ध्य = विन्ध्याचल
शिर: = चोटी, शिखर
अधिनिवासिनि = निवास करने वाली
विष्णुविलासिनि विष्णु + विलासिनि
विष्णु = नारायण
विलासिनि = क्रीड़ा से, लीला से प्रसन्न रखने वाली
जिष्णु = इन्द्र
नुते = स्तुत, पूजित
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूतिकृते
भगवति हे = हे देवी
शितिकण्ठकुटुम्बिनि शितिकण्ठ + कुटुम्बिनि
शितिकण्ठ = नीलकण्ठ
कुटुम्बिनि = गृहिणी
भूरिकुटुम्बिनि भूरि + कुटुम्बिनि
भूरि = विपुल, विशाल
कुटुम्बिनि = विशाल कुटुम्ब वाली
भूतिकृते भूति + कृते
भूति = सौभाग्य, समृद्धि, कल्याण
कृते = (हे) प्रदान करने वाली, करने वाली
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनि = महिषासुर नामक असुर का घात करने वाली (मारने वाली)
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वतपुत्री

अन्वय

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि (हे) नन्दिनुते (हे) गिरिवर- विन्ध्य -शिर:अधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते (हे) शितिकण्ठ-कुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भगवति (हे) भूतिकृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

महिषासुर का वध करने वाली भगवती का स्तवन करते हुए ‘महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्’ के पहले श्लोक में कहा गया है, हे गिरिपुत्री, पृथ्वी को आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, नंदी द्वारा स्तुत अर्थात् नंदी द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, पर्वतप्रवर विंध्याचल के सिरमौर शिखर (सबसे ऊंची चोटी) पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, इंद्रदेव द्वारा स्तुत, नीलकंठ (महादेव) की गृहिणी, विशाल कुटुंब वाली, (सबका) कुशल-कल्याण करने वाली (हे) देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

व्याख्या

स्तुतिकार ने ‘महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्’’ में माता पार्वती के दैत्यनिषूदिनी रूप की स्तुति की है और इस रूप में माँ की विभिन्न भंगिमाओं को, उपयुक्त विशेषणों से विभूषित कर उन्हें संबोधित किया है, साथ ही उनके सुन्दर, स्नेहमय रूप का भी वर्णन किया है । कुछ स्थानों को छोड़ कर लगभग सभी स्थलों पर सम्बोधन के शब्द प्रयुक्त किये हैं, जैसे महिषासुरमर्दिनी के स्थान पर महिषासुरमर्दिनि, गिरिनंदिनी के स्थान पर गिरिनन्दिनि आदि । संस्कृत के व्याकरण में ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में संबोधन की (आठवीं) विभक्तिमें  ई का  इ हो जाता है, जैसे भगवती का भगवति !

प्रथम श्लोक में स्तुतिकार भगवती को पुकारते हुए कहता है हे गिरिनन्दिनि अर्थात् गिरिजा, नन्दितमेदिननि यानि मेदिनी (पृथ्वी) को आनंदित करने वाली, विश्वविनोदिनि यानि संसार का मन मुदित रखने वाली अर्थात् विश्व में सब का मन विनोदित रखने वाली, नन्दीनुते यानि नंदी द्वारा स्तुत,  गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि अर्थात् पर्वतप्रवर विन्ध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली, विष्णुविलासिनि अर्थात् भगवान विष्णु को प्रसन्नता देने वाली, जिष्णुनुते यानि इन्द्र द्वारा स्तुत,  दूसरे शब्दों में जो इन्द्रदेव द्वारा पूजित-अर्चित होती हैं और शितिकण्ठकुटुम्बिनि हैं यानि जो नीलकंठ महादेव की गृहिणी (घरवाली) हैं, भूरिकुटुम्बिनि अर्थात् जिनका कुटुंब विशाल है, और जो सुख-समृद्धि-सौभाग्य प्रदान करने वाली अम्बा हैं, अर्थात् भूतिकृता हैं । और अंतिम पंक्ति में उन्हें महिषासुरमर्दिनि पुकारते हुए कवि उनका जयघोष करते हुए कहता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी, हे गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो ।

माता पार्वती पर्वतराज हिमालय की नयनतारा अर्थात् प्रिय पुत्री हैं, गिरिनन्दिनी हैं, अत: उन्हें पुकारते हुए स्तुतिकार कहता है ‘अयि गिरिनन्दिनि’ । अयि संस्कृत भाषा में संबोधनबोधक अव्यय है, जैसे कुमारसम्भवम् में “अयि सम्प्रति देहि दर्शनम्” । आगे उन्हें नन्दितमेदिनि पुकारता है, जिसका अर्थ है पृथ्वी को हर्षित, करने वाली । पृथ्वी को मेदिनी कहा जाता है । इसकी पृष्ठभूमि में एक उपाख्यान है, जिसका सार यह है कि पुराकाल में प्रलयोपरांत सृष्टि महार्णव (महासागर) में विलीन हो गई थी तब योगनिद्रा में रत भगवान विष्णु के कान से (कहा जाता है कि कान के मैल से) मधु-कैटभ नाम के दो विशाल, अतिकाय दैत्यों की उत्पत्ति हुई । उन्होंने दीर्घकाल तक कठोर तपस्या से विपुल तेज पाया व भगवती को प्रसन्न करके उनसे इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त किया । उन दोनों ने चारों और दूर दूर तक जल ही जल देखा, तो देवी से यह भी माँगा कि जल में उनकी मृत्यु न हो । इससे वे स्वयं को अमर समझने लगे क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि तब महार्णव के जल में निमग्न थी ।

मद में चूर मधु-कैटभ द्वारा ब्रह्माजी युद्ध के लिए ललकारे गए और वे तब रक्षा-सहायता के लिए विष्णु के पास गए और उन्हें निद्रारत पा कर विष्णु के अंग में व्याप्त भगवती योगनिद्रा की स्तुति की, तब प्रसन्न हो कर तामसीदेवी (निद्रादेवी) भगवान विष्णु की देह से निकल कर उनके पार्श्व में खड़ी हो गईं। विष्णु की निद्रा दूर होते ही उनके नेत्र, मुख, नासिका, भुजा व हृदय से एक अद्भुत तेज निकला । ब्रह्माजी से सब वृत्तांत जान कर वे मधु-कैटभ से भिड़ गए । उन्हें हरा न पाने की स्थिति में विष्णु ने देवी का ध्यान किया व उनकी इच्छा-मृत्यु के बारे में जान लिया । फलतः देवी का स्तवन किया व प्रसन्न देवी बोली कि मैं इन दोनों को अपनी माया से मोहित कर दूँगी, आप युद्ध कीजिए । देवी के कटाक्ष-बाणों से मोहित हुए उन कामान्ध दैत्यों से विष्णु बोले कि मैं तुम्हारे युद्ध-कौशल व अतुलनीय बल से हर्षित हुआ हूँ, इसलिए तुम्हारी कामनाओं को पूर्ण करूँगा । अतः तुम दोनों मुझ से मनोवांछित वर मांग लो । इस पर मधु-कैटभ बोले कि हम याचक नहीं, हम बलशाली हैं, अतःअब तुम ही हम से कोई वर मांग लो । इस सुयोग को पा कर विष्णु ने माँगा कि मेरे द्वारा तुम दोनों की मृत्यु हो। सर्वत्र विश्व को जलावृत देख कर वे बोले कि ठीक है, जहाँ जल न हो, वहां हमें मार दो । उस समय विष्णु ने अपनी जंघाओं का बड़ी दूर तक विस्तार किया और जल के भीतर ही निर्जल-प्रदेश उन दोनों को दिखा दिया और अपने सुदर्शन-चक्र से उनके मस्तक उड़ा दिए । उन अतिकाय, विशाल दैत्यों के मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात् उनके मेद अर्थात चर्बी या वसा से सारा सागर भर गया और तब ही से पृथ्वी को उनके मेद से युक्त होने के कारण मेदिनी कहा जाने लगा । तथा मिटटी अभक्ष्य हो गई ।

मेदिनी अर्थात् पृथ्वी को देवी आनंदित रखती हैं । वे समय-समय पर पृथ्वी का भार उतारती हैं व अपने अनेक रूपों से विविध लीलाएं रचती है तथा विश्व भर के प्राणियों को अपनी उन्मुक्त, मनोहारी लीलाओं से विनोदित रखती हैं । लोग पर्व-त्योहार मनाते हैं, विभिन्न कलाओं से देवी को रिझाने के प्रयत्न करते हैं तथा स्वयं भी मुदित होते हैं । अतः देवी को विश्वविनोदिनि कहा । भगवान शिव के प्रमुख गण अथवा अनुचर नंदी की वे पूज्या हैं व उनके द्वारा देवी संस्तुत, सेवित एवं सुपूजित हैं, इस प्रकार वे नन्दिनुता हैं और क्योंकि इस नाम से सम्बोधन किया गया है, इसलिए नन्दिनुते शब्द का प्रयोग किया है ।

भगवती ने विन्ध्यवासिनी के रूप में विन्ध्याचल को अपना निवासस्थान बना कर विन्ध्यगिरि को जागृत शक्तिपीठ बना दिया है । गिरियों में श्रेष्ठ विंध्याचल के सर्वोच्च शिखर पर देवी का निवास है, अत: शिरोsधिनिवासिनि कह कर उन्हें भक्तिभाव से संबोधित किया है । भगवती के रमा-रूप को, महालक्ष्मी-रूप को कवि ने  विष्णुविलासिनि कह कर पुकारा है । दुर्गा चालीसा में लिखा है

लक्ष्मीरूप धरी जग माहीं ।
श्रीनारायण अंग समाहीं  ।।
क्षीरसिन्धु में करत विलासा ।
दया-सिन्धु दीजै मन आसा ।।

देवी के रमा रूप में सत्वगुण के अधिष्ठाता विष्णु उनके पति हैं और इन्हें देख कर वे प्रसन्न होते हैं । इसके अलावा देवी सर्वत्र व्याप्त रहने वाली सात्त्विकी शक्ति के रूप में विष्णु में विद्यमान रहती हैं, जिससे वे सृष्टि-संचालन, पालन तथा दैत्यों के दलन की शक्ति अर्जित करते हैं, अतएव उन्हें विष्णुविलासिनि विशेषण दे कर पुकारा । देवी जिष्णु अर्थात् सदैव जय प्राप्त करने वाले देवराज इंद्र द्वारा वन्दित हैं, इसलिए वे जिष्णुनुता हैं एवं संबोधन के कारण वे जिष्णुनुते पुकारी गईं । देवासुर संग्राम में विजयश्री अंततः देवताओं का ही वरण करती है, ऐसे देवताओं के अधिपति जिष्णु या इंद्र द्वारा वे सुपूजित हैं । देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित देवी का सदा स्तुतिगान करते हैं । श्रीविन्ध्येश्वरी स्तोत्रम् में देवी को पुरन्दरादिसेविताम्  कहा गया है ।

देवी शितिकंठ यानि महादेव की गृहिणी हैं, अत: उन्हें शितिकण्ठकुटुम्बिनि कह कर पुकारा । जगन्माता होने के कारण खूब बड़े कुटुंब वाली हैं । वे जगदम्बिका हैं, भूतिकृता हैं, अत: भूतिकृते कह कर पुकारा, जिसका अर्थ है क्षेमकरी अर्थात् कल्याणकारी, सौभाग्य-समृद्धि करने वाली, ऐश्वर्य को, विभूतियों को देने वाली  विभूतिकारिणी देवी । इसके अलावा भूतिकृत्  भगवान शिव को भी कहते हैं, अत: माता उस प्रकार भी भूतिकृता हो जाती हैं ।

श्लोक की अंतिम पंक्ति में माँ पार्वती को महिषासुरमर्दिनि कह कर सम्बोधित किया है क्योंकि महिषासुर के नाम से जाना जाने वाला दुर्दान्त असुर देवी के हाथों मारा गया था । उसका वध करके माता ने देवों का अभीष्ट कार्य पूरा करके उनका हित-संपादन किया था ।  रम्यकपर्दिनि शब्द भी ध्यान देने योग्य है । मूल पद है रम्यकपर्दिनी, संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार सम्बोधन (विभक्ति) के कारण रम्यकपर्दिनि हो गया है । यहां दो शब्द जुड़े हुए हैं, रम्य + कपर्दिनी = रम्यकपर्दिनी, पहला है रम्य और दूसरा है कपर्दिनी । रम्य का अर्थ है सुन्दर, मनोरम, मनोहर, सुखकर आदि । यह शब्द विशेषण है । दूसरा शब्द है कपर्दिनी, जिसका अर्थ है जटाधरी अर्थात् जटा धारण करने वाली । उनके मनोरम मस्तक पर जटाजूट के विमल विन्यास के कारण उन्हें कपर्दिनी कहा गया है भगवान् शिव को भी उनके जटाधारी होने के कारण कपर्दी कहा जाता है । कालिका पुराण से एक वर्णन द्रष्टव्य है –

अतसीपुष्पवर्णाभा ज्वलत्कांचनकुण्डला ।
जटाजूटसखण्डेन्दुमुकुटत्रयभूषिता ।।

अर्थात् (जब माँ भद्रकाली ने महिषासुर को आक्रान्त करके उसका वध किया तब का चित्रण है) माँ का वर्ण अलसी के पुष्प की आभा के समान था तथा तपे हुए स्वर्ण के समान उनके कुण्डल देदीप्यमान थे, खण्ड-चंद्र (अर्धचंद्र) सहित उनका मस्तक जटाजूट से युक्त एवं तीन मुकुटों से शोभायमान था । यहां माँ जटाधारिणी हैं ।
इसके अतिरिक्त शक्ति का एक नाम कपर्दिनी भी है । मत्स्य-पुराण में अन्धकासुर और शिव के बीच भीषण युद्ध के प्रसंग में यह वर्णन आता है कि शम्भु द्वारा अन्धकासुर पर पाशुपत बाण चलाने पर अन्धकासुर की देह से निकलने वाले रुधिर (रक्त) से सहस्रों और भी अन्धक उत्पन्न हुए जा रहे थे, जिनसे यह जगत व्याप्त हो रहा था । तब शिव ने मायावी अंधकों के रुधिर का पान करने के लिए मन से महाघोरा माताओं (मातृकाओं) का सृजन किया, जिनमें से एक का नाम है कपर्दिनी । यह श्लोक द्रष्टव्य है-

उषा रम्भी मेनका च सलिला चित्ररूपिणी ।
स्वाहास्वधा वषट्कारा धृतिर्ज्येष्ठाकपर्दिनी ।।

इस तरह से भी माँ पार्वती के कपर्दिनी नाम का उल्लेख स्थान स्थान पर मिलता है । कपर्द का अर्थ जटा होता है । जटाधरशिव का एक नाम कपर्दी भी है । अतएव कपर्दी की पत्नी होने के कारण भी माँ को कपर्दिनी कहा जाता है , जैसे शिव से शिवानी, भव से भवानी, रुद्र से रुद्राणी आदि । वस्तुतः मस्तक पर जटाजूट के विन्यास से मनोरम दिखने वाली माता को इसी कारण रम्य कपर्दिनि कह कर पुकारा गया है । वे सुन्दर जटाधरी हैं, अतएव माँ को पुकारते हुए रम्यकपर्दिनि कहा गया है। शैलसुता का अर्थ है पर्वतपुत्री और सम्बोधन के कारण शैलसुते रूप हो गया है।

इस प्रकार स्तुतिकार माँ की जयजयकार करते हुए कहता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

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54 comments

  1. डा॰ सुरेन्द्र वर्मा says:

    किसी पृष्ठ से आपके “व्याख्या” वट के नीचे आया… सरस सुरुचिपूर्ण कलेवर. मुझे संस्कृत का कोई ज्ञान नहीं है, रुचिवश कुछ देखता रहता हूं. शुद्ध पाठ हेतु मार्ग दर्शन आकांक्षी: महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र में पहले पद में “भगवती शितिकण्ठकुटुम्बिनि” के स्थान पर “भगवती हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि” अधिकांश पाठों में उपलब्ध है जो उच्चारण की दृष्टि से उचित लगता है. कृपया स्पष्ट करने की अनुकम्पा करें ताकि पाठ में सही समावेश कर सकूँ.

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय डा. सुरेन्द्र वर्माजी, आपकी टिप्पणियों के लिए आपका साधुवाद । बड़े मनोयोग व निष्ठा से लिखने पर भी कतिपय त्रुटियाँ रह जाती हैं तथा सुधी पाठकों के रसास्वादन को बाधा पहुंचती हैं । आपने दोषमार्जन का अवसर दिया, अनुगृहीत हूँ । महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के पहले पद में `हे लगा दिया है। शिवमहिम्नःस्तोत्रम् में `कुसुमादशननामा के स्थान पर `कुसुमदशननामा `भी सुधार दिया गया है।

  2. डा॰ सुरेन्द्र वर्मा says:

    श्रद्धेय डा॰ किरणजी, सादर प्रणाम. अलग से मेल द्वारा आग्रह उचित होता, पर संपर्क सूत्र न होने से ये माध्यम चुना है. पहली टिपण्णी के क्रम में: (2) अधिकांश प्रकाशनों में शिवमहिम्न: स्तोत्र में प्रियायास्मैधाम्ने “प्रणिहितनमस्योsस्मि भवते ।।२८।।” के प्रणिहित के स्थान पर प्रविहित शब्द है, सही क्या है? अपने मूल पाठ के महिम्न: श्लोक 37 के प्रारंभ में “कुसुमादशननामा” को मात्रा हटा कर “कुसुमदशननामा” करने का श्रम कर अनुग्रहित करें. आप इन टिप्पणियों को आवश्यक अनुग्रह के बाद हटा दें, ऐसी विनती. आभार. -​सुरेन्द्र वर्मा ​

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय डा. वर्माजी, यहाँ `प्रणिहित` शब्द सही है । कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ । इति नमस्कारान्ते ।

      • सुरेन्द्र वर्मा says:

        श्रद्धेय डा॰ किरणजी,
        जय श्री कृष्ण! समाधान हेतु आभार. निवेदन और भी हैं, कुछ कालावधि बाद करूँगा. कृपया अज्ञ के प्रति इतने प्रतिष्ठात्मक शब्दों का प्रयोग न करें, असहज अनुभव करता हूँ. आभारी मैं हूँ. प्रणाम.

        • Kiran Bhatia says:

          आपका स्वागत है ।आपके प्रश्नों के समाधान हेतु न्यूनाधिक जो कुछ भी अपनी बौनी बुद्धि से कर सकती हूं , करने का उद्यम करूंगी, वास्तव में तो वे सर्वरूप ही सब के भावों को सार्थक करते हैं । विज्ञ जन सदैव आदर के भाजन होते हैं ।
          इति शुभम् ।

  3. सुरेन्द्र वर्मा says:

    श्रद्धेय डा॰ किरणजी,
    जय श्री कृष्ण! सुन्दर अलंकृत भावाभिव्यक्ति का आनन्द रसास्वादन बार बार करके उसी के वर्धन / कुछ परिष्कार हेतु निवेदन को धृष्टता न मान, आप जो आदर देती हैं, स्तुत्य है. कुछ और: (शिवमहिम्न: स्तोत्र में Leave a Reply प्रावधान न होने से इस स्थान पर टिप्पणी कर रहा हूँ, दृष्टता क्षमा करते हुए आवश्यक उपक्रमोपरांत हटाने की कृपा करना):

  4. सुरेन्द्र वर्मा says:

    श्रद्धेय डा॰ किरणजी,
    जय श्री कृष्ण! परिष्कार हेतु निवेदन मान्य किये, आभार. इन टिप्पणियों को आवश्यक अनुग्रह के बाद हटाने की पुनः विनती. एक सादर अनुरोध: महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र और शिव ताण्डव स्तोत्र की भांति महिम्नः स्तोत्र का भी सकल पाठ अविरल पठन हेतु दे कर अनुग्रहित करें.

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय श्री सरेद्र वर्माजी, जय श्रीकृष्ण एवं आभार । परिष्कार स्वागतार्ह हैं व कर दिए हैं । २५ वें श्लोक में आपके द्वारा दर्शाये गए `दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥` में यमिनस्तत् के स्थान पर यमिनस्तत्किल है। `शिवमहिम्नःस्तोत्रम्` में कुछ कार्य हो चुका है, जो अविलम्ब प्रस्तुत होने के लिए तैयार है । इति शुभम् ।

  5. सुरेन्द्र वर्मा says:

    श्रद्धेय डा॰ किरणजी,
    जय श्री कृष्ण! एक अंतराल के बाद आपके स्तुत्य रचना परिष्करण एवं भावाभिव्यक्तियों का आनन्द ले पाया. अनायास ही दिख जाने से परिष्कार हेतु निवेदन: (शिवमहिम्न: स्तोत्रं मूल पाठ एवं अन्वय खण्ड में):
    पद 23: त्वामबद्धा के स्थान पर त्वामद्धा
    पद 43: हरिप्रियेण के स्थान पर हरप्रियेण

    • Kiran Bhatia says:

      श्रद्धेय , नमस्कार ! मूलपाठ की इस गलती की ओर ध्यान आकर्षित करवाने के लिए आपका आभार एवं अपनी प्रसन्नता प्रकट करती हूँ । सुधार कर दिया गया है ।
      धन्यवाद । इति शुभम् ।

    • Kiran Bhatia says:

      विस्तार से व्याख्या दी गई है , कृपया आगे देखें । कोई सन्देह हो तो अवश्य बताएं । इति शुभम् ।

    • Kiran Bhatia says:

      आपके प्रेरणादायी शब्दों के लिए अतीव धन्यवाद ।
      इति नमस्कारान्ते ।

  6. सुबोध त्यागी says:

    बहुत ही सुंदर व्याख्या ….दिल खुश हो गया …जय माता दी

  7. कमलेश रविशंकर रावल says:

    आदरणीय आज मेरा मन पूर्ण प्रफुल्लित हो गया है, माँ भगवती के इस स्रोत का भाषांतर व व्याख्या पढ के मन भावविभोर उठा है, आप के इस संनिष्ठ प्रयास की सराहना के लिए मेरे पास शब्द नहीं है, बरसों की प्यास आज जा के बुझी है, मां का नवरात्र सफल हो गया अब! मेरी आने वाली पीढी आप के ये ज्ञान यज्ञ के लिए ऋणी रहेगी, माँ भगवती समस्त लोक के सज्जनों का कल्याण करे एवम दुर्बुद्धि का नाश कर के सब को सद्बुद्धि प्रदान करे ऐसी हृदयतल से प्रार्थना

    • Kiran Bhatia says:

      मुझे बहुत संकोच का अनुभव हो रहा है यह सब पढ़ कर । केवल इतना ही कहूंगी कि माँ सबसे पहले मेरे विकारों को विनष्ट करे व मनसा , वाचा ,कर्मणा मुझसे ऐसे कर्म करवाए कि मैं स्वयं को उनकी सेवा के किंचित योग्य समझूं ।
      इति नमस्कारांते ।

  8. Raman katiyar says:

    यह गुप्त ज्ञान आपने हिंदी में लिखकर हम भक्तों पर बहुत ही उपकार किया आपको कोटि-कोटि बार धन्यवाद

    • Kiran Bhatia says:

      धन्यवाद । उत्तर में विलम्ब के लिए कृपया क्षमा करें । कोटिशः धन्यवाद तो माँ कपर्दिनी का है । इति शुभम् ।

  9. दीपक अग्रवाल says:

    इतने विस्तार से अर्थ समझाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
    कृपया रम्यकपर्दिनी शब्द का अर्थ भी संधिविच्छेद के साथ समझा दीजिए !

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, आपका धन्यवाद।

      ‘रम्यकपर्दिनी ‘ का अर्थ है मनोहर जटाधारिणी । इन शब्दों का प्रयोग माँ पार्वती के लिये हुआ है, जिसमें ‘ रम्य ‘का अर्थ है सुन्दर, मनोहर, आनन्दप्रद आदि । कपर्दिनी का अर्थ इस प्रकार है ।

      कपर्दी जटाधर शिव को कहते हैं। कपर्दी से कपर्दिनी स्त्रीलिंग बनता है । उन्हें सम्बोधित किया है अतएव कपर्दिनी पद का रूप ( संस्कृत व्याकरण के अनुसार ) कपर्दिनि हो गया । यह तो हुआ एक अर्थ । दूसरा अर्थ यह है कि माँ स्वयं भी जटा धारिणी हैं , इसलिए स्तुतिगायक उन्हें कपर्दिनि कह कर पुकारते हैं । यहां व्याख्या में यही अर्थ ग्रहण किया गया है । मां को ‘शैलसुते’ भी कह कर पुकारा गया है और भक्तों को भलीभांति यह विदित है कि मां पार्वती तपस्विनी रूप में जटाधारिरणी हैं । माता का रूप-नाम कोई भी हो, वे अपने सभी रूपों में शक्ति हैं । माँ शक्ति के अनेक नामों में से एक नाम उनका कपर्दिनी भी है । ‘कपर्दिनी’ के संबंध में विस्तृत जानकारी पहले श्लोक की व्याख्या में देखी जा सकती है ।
      इति शुभम् ।

  10. Dr. Suresh nagar says:

    बहुत बहुत आभार.?? दुर्गा सूकतम का भी उल्लेख कर दीजीए

    • Kiran Bhatia says:

      शिवमहिम्नःस्तोत्रम् पर अभी काम चल रहा है।  इसके उपरान्त आपके सुझाव पर विचार किया जा सकता है ।  इति शुभम् । 

  11. संदीप कुमार says:

    आपने प्रथम श्लोक में “शिरोsधिवासिनि” शब्द का प्रयोग किया है जबकि अन्य वेबसाइट पर कई जगह “शिरोधिनिवासिनि” शब्द है। कृपया अपने विवेक अनुसार सही शब्द की पहचान कर वांछित कार्य करें।

  12. Amrat says:

    बहुत बहुत धन्यवाद् आपका किरन जी।
    कृपया करके अगर आपको कोई पुस्तक है तो बताइए, इन श्लोकों का व्याख्या अनुवाद समझने और याद करने में सहयोग होगा।

    • Kiran Bhatia says:

      धन्यवाद । मुख्यतः देवी पुराण व कालिका पुराण से सहायता मिलती है । किन्तु किसी एक स्थान पर पूरी जानकारी सुलभ नहीं है । आप गूगल करके विभिन्न वेब साइटस् से भी लाभ ले सकते हैं । इति शुभम् ।

  13. श्वेता त्रिपाठी says:

    जी कई जगह “दुर्मुनिरोषिणि” शब्द कि जगह “दितसुत रोषिणि ” शब्द दिया गया है। किस शब्द को सही मानेंगे?
    और “कल्मष” की जगह “किल्विष” दिया गया है। कृपया मार्गदर्शन करें।

    • Kiran Bhatia says:

      हमने महिषासुरमर्दिनी का मूलपाठ गीता- प्रेस गोरखपुर से गृहीत किया है क्योंकि वहाँ से प्रकाशित पुस्तकें सर्वाधिक प्रामाणिक होती हैं । दूसरी बात यह है कि आजकल विभिन्न वेबसाइटें एक दूसरे से मूलपाठ कदाचित् ले लेती हैं, यह समझ कर कि पाठ सही ही होगा । कुछ पुस्तकों में भी मैंने तनिक भिन्न पाठ देखे हैं । हमने भी वही पहले प्रकाशित किया था जो आपने लिखा है, किन्तु कुछेक बार सुधी पाठकों ने अलग-अलग वेबसाइट पर जाने का सुझाव दिया । हमने वह भी देखा । ऐसी स्थिति में धार्मिक ग्रन्थों का सबसे पुराना व प्रामाणिक स्रोत गीता प्रेस प्रकाशन में दिये गये पाठानुसार हमने अपना पाठ बदल दिया व तदनुसार नये पाठ के अनुरूप पहले लिखी हुई व्याख्या में विभिन्न स्थलों पर न्यनाधिक बदलाव भी हम कर रहे हैं । अत: अब आप जो पढ़ रही हैं वही पाठ शुद्ध है ।
      इति शुभम् ।

  14. गणेश says:

    अतीव साध्वी व्याख्या ।
    साधुवादार्हा व्याख्यातार: !

    • Kiran Bhatia says:

      सहृदया: पाठका: एव साधुवादार्हा: । अनुगृहीतास्मि महोदय ! इति नमस्कारान्ते ।

    • Kiran Bhatia says:

      हमारी स्रोत-पुस्तक में ‘भूतिकृते’ दिया है, यद्यपि अन्यत्र कई स्थानों पर ‘भूरिकृते’ देखा गया है । भूतिकृते का अर्थ है विभूति व ऐश्वर्य-समृद्धि की देने वाली और भूरिकृते का है बहुलता से देने वाली ।इसमें भूरि शब्द प्रचुरता का बोध कराता है ।

  15. vimala says:

    अच्छी व्याख्या है . धन्यवाद
    संस्कृत मेरी रूचि का विषय बन चुका है.
    भाषा सीखी है और सिख रही हूँ

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय विमलाजी, सराहना एवं संस्कृत में रुचि के लिये आपका धन्यवाद तथा शुभकामनाएँ । जय माता की ।

  16. Bhogendra Kumar says:

    विष्णु कर्णमलोद्भूत मधु कैटभ नामकरण का तात्पर्य भी स्पष्ट करेंगे तो महती कृपा होगी।

    • Kiran Bhatia says:

      भगवान विष्णु जब प्रलय के पश्चात् योगनिद्रा में रत थे, तब उनके कानों की मैल से मधु-कैटी नामक विशालकाय दैत्यों की उत्पत्ति मानी जाती है, अतएव वे विष्णुमलोद्भूत कहे जाते हैं । मल शब्द से तात्पर्य मैल से है । कर्णमल अर्थात् कानों की मैल । नमस्कार ।

  17. इस स्त्रोत मे देवी को समुद्र की कन्या भी कहा गया है और पर्वत पुत्री भी कहा गया है कृपया बताएंगे ऐसा क्यों ❓️

    • Kiran Bhatia says:

      देवी में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली के रूप समाहित हैं । नमस्कार ।

  18. इतनी सुन्दर व्याख्या के लिए आपका पुनः ह्रदय से आभार ??कृपया रामरक्षा स्त्रोत की भी इसी तरह व्याख्या करें आपकी बड़ी कृपा होगी किरण जी ??

    • Kiran Bhatia says:

      आपका सुझाव नोट कर लिया गया है । धन्यवाद ? ।

  19. आपकी ये सुन्दर व्याख्या पुस्तक के रूप मे उपलब्ध हो पायेगी क्या किरण जी

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